श्रीमद्भगवद्गीता
श्लोक १५-३ पर विशेष बात
जब मनुष्य स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि ‘मैं शरीर नहीं हूँ; शरीर मेरा नहीं है’, तब कामना, ममता और तादात्म्य—तीनों मिट जाते हैं। यही वास्तविक वैराग्य है।
जिसके भीतर दृढ़ वैराग्य है उसके अन्त:करण में सम्पूर्ण वासनाओं का नाश हो जाता है। अपने स्वरूप से विजातीय (जड़) पदार्थ—शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि से किंचिन्मात्र भी अपना सम्बन्ध न मानकर—’सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, सब नीरोग हों, कभी किसी को किंचिन्मात्र भी दु:ख न हो— इस भाव का रहना ही दृढ़ वैराग्य का लक्षण है।
विचारों के अनुसार मानव का स्वरूप
याद रखो— यदि तुम अपने अंदर रहे परमात्मा को जगा सके, देख सके, उनके प्रति अपने को अर्पण करके उनके आदेशानुसार चल सके और उनके दिव्य गुणों का अपने अंदर विकास-प्रकाश कर सके तो तुम्हारा मानव-जीवन परम सफल होगा। तुम जगत् में धन्य ही नहीं बनोगे, तुम तो तरन-तारन बन जाओगे। तुम्हारे अंदर भगवान् नित्य विराजित हैं, उनके साथ ही उनके दिव्य गुण भी, दिव्य भाव भी वर्तमान हैं। उनको देखो, प्रकाश करो और उन्हें अपने सहज जीवन में उतार कर धन्य हो जाओ।
जय श्रीकृष्ण
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