सनातन संस्कृति में भाव (श्रद्धा) ही सबसे बड़ा साधन माना गया है। “भावेन लभ्यते देवः” — देवता भाव से ही सुलभ होते हैं। और धार्मिक आयोजनों की गरिमा और हमारी बदलती मानसिकता

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धार्मिक आयोजनों की गरिमा और हमारी बदलती मानसिकता

आजकल समाज में एक अजीब-सी प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है—धर्म को मनोरंजन का माध्यम बना देने की। खासकर सुन्दरकाण्ड, जो श्रीरामचरितमानस का अत्यंत पवित्र, शक्ति-पुंज और आत्मशुद्धि कराने वाला एक दिव्य प्रसंग है, उसे भी कुछ लोग “मज़ेदार माहौल” बनाने वाला कार्यक्रम समझ बैठते हैं। कई बार आयोजकों के फोन आते हैं— “ऐसा सुन्दरकाण्ड करना कि मज़ा आ जाए… पूरे जोश में माहौल बने… तड़क-भड़क वाला हो!”

ऐसे वाक्य सुनकर लगता है कि जैसे किसी आध्यात्मिक पाठ के लिए नहीं, बल्कि गीत-संगीत के शोर में डूबे किसी नृत्य-कार्यक्रम के लिए बुलावा दिया जा रहा हो।

यह स्थिति सिर्फ सुन्दरकाण्ड तक सीमित नहीं है। आज कई धार्मिक आयोजन—कीर्तन, भंडारे, जगराते, प्रवचन—हर जगह “मनोरंजन” की होड़ दिखाई देती है। तेज़ डीजे, चिल्लाता हुआ माइक, बीच-बीच में फोटो-सेशन, सेल्फी, चाय-शरबत का दौर—इन सबने आध्यात्मिकता की आत्मा को खोखला कर दिया है।

धर्म का भाव बनाम मनोरंजन की प्रवृत्ति

🕉️सनातन संस्कृति में भाव (श्रद्धा) ही सबसे बड़ा साधन माना गया है। “भावेन लभ्यते देवः” — देवता भाव से ही सुलभ होते हैं।

परन्तु जब धर्म का आयोजन केवल “थिरकने” भर का माध्यम बन जाए, तो वहाँ भाव का स्थान मनोरंजन ले लेता है। सुन्दरकाण्ड का पाठ, जो मन, बुद्धि और जीवन को दिव्यता से जोड़ने के लिए रचा गया, वह जब डीजे की धुनों में बदल जाए, तो यह केवल आयोजन की गरिमा ही नहीं, बल्कि हमारी मानसिकता का पतन दर्शाता है।

🕉️सुन्दरकाण्ड में वर्णित हनुमत्-चरित्र हमें अपार शक्ति, अटल भक्ति और असंभव को संभव करने की प्रेरणा देता है। पर यदि आयोजक और श्रोता दोनों का ध्यान केवल तड़क-भड़क वाले संगीत पर हो, तो फिर पाठ का फल नहीं मिलना स्वाभाविक ही है।

धार्मिक आयोजन कोई पार्टी नहीं

कई स्थानों पर यह भी देखा जा रहा है कि लोग मुंह में गुटखा भरकर, सिगरेट पीकर, या बीच-बीच में चाय-शरबत की चुस्कियाँ लेते हुए पाठ करते हैं। यह न केवल अपमानजनक है बल्कि सनातन धर्म की साधना-पद्धति के बिल्कुल विपरीत भी है।

🕉️शास्त्रों में कहा गया है— “शुचिर्भूत्वा समाहितः” — पूजा और पाठ शुचिता, स्थिरता और ध्यान से करना चाहिए। किंतु आज कई आयोजक स्वयं चाय-शरबत बांटते हुए पाठ को “इवेंट” का रूप दे देते हैं। इससे धार्मिक अनुशासन नष्ट होता है और पाठ केवल औपचारिकता बनकर रह जाता है।

क्या यही धर्म की रक्षा है?

हम अक्सर कहते हैं— “हमें संस्कृति बचानी है, धर्म की रक्षा करनी है।” पर भला यह कैसी रक्षा है, जिसमें हम वही धर्म-पद्धति तोड़ रहे हैं जिसे बचाने की बात करते हैं? धर्म की रक्षा हथियारों से नहीं, बल्कि संस्कारों, मर्यादा और शुचिता से होती है। और इन तीनों का ह्रास धार्मिक आयोजनों में सबसे पहले दिखाई देता है।

🕉️सनातन धर्म का निर्देश — कैसे करें धार्मिक आयोजन?

🕉️शास्त्रों में स्पष्ट नियम दिए गए हैं—

1. आसन पर स्थिर बैठना – पाठ के समय अनावश्यक उठना-बैठना वर्जित है।

2. शुचिता का पालन – पूजन या पाठ करते समय गुटखा, तम्बाकू, नॉन-वेज, मद्य या किसी भी अशुद्ध चीज़ का सेवन धर्मविरुद्ध है।

3. शांति और मर्यादा – तेज़ संगीत, अत्याधिक ध्वनि-प्रदूषण या चिल्लाहट पूजा का अंग नहीं है।

4. भावनात्मक एकाग्रता – पाठ का फल तभी मिलता है जब मन स्थिर और श्रद्धामय हो।

5. धार्मिक आयोजन = साधना, न कि शो-ऑफ – कैमरा, रील्स, फोटो-शूट से अधिक महत्व भावनाओं को दिया जाए।

यदि हम सुधरेंगे तो समाज सुधरेगा

धर्म का उपहास करना आसान है, पर उसकी मर्यादा में रहकर साधना करना कठिन।

यदि हम स्वयं ही धार्मिक आयोजनों को मनोरंजन का साधन बना देंगे तो आने वाली पीढ़ियाँ धर्म को गंभीरता से कैसे लेंगी?

इसलिए आवश्यक है कि—आयोजक मर्यादा का पालन करवाएँ।

मंडलियाँ भाव प्रधान पाठ करें, न कि ध्वनि प्रधान

श्रोता शांत भाव से बैठकर पाठ सुनें

अनावश्यक प्रदर्शन से बचा जाए

सनातन धर्म की शक्ति उसके अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि उनके प्रति हमारी श्रद्धा में निहित है।सुन्दरकाण्ड हो, श्रीमद्भागवत कथा हो, कीर्तन हो या कोई भी धार्मिक कार्यक्रम— ये मनोरंजन के मंच नहीं, बल्कि आत्मा की साधना और मन की शुद्धि का माध्यम हैं।

यदि हम इन आयोजनों की गरिमा बनाए रखें, उनकी पवित्रता को बचाएँ और उन्हें सही भाव से करें, तो निश्चित ही धर्म हमारी रक्षा करेगा, जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है -“धर्मो रक्षति रक्षितः।” जब हम धर्म की मर्यादा की रक्षा करेंगे—तभी धर्म हमारी रक्षा कर सकेगा।

हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा

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