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ईश्वर की अनंत सत्ता

एक दिन वृंदावन के कुंजों में श्रीकृष्ण गोपियों और ग्वालबालों के साथ विचरण कर रहे थे।
चारों ओर मधुर पवन बह रही थी, पुष्पों की सुगंध वातावरण में फैली हुई थी।
तभी श्रीकृष्ण ने देखा — एक वृक्ष पर मधुमक्खियों का विशाल छत्ता लटक रहा है।

ग्वालबाल बोले —
“देखो, प्रभु! कितनी मधुमक्खियाँ हैं, कितनी परिश्रमी!
ये सारा शहद इन्होंने ही तैयार किया होगा!”

कृष्ण मुस्कुराए —
“सखा, यही तो जगत की माया है।
एक मधुमक्खी के छत्ते में लाखों मधुमक्खियाँ शहद इकट्ठा करती हैं
और सोचती हैं कि सारा शहद उन्हीं ने बनाया है।

किन्तु वे यह नहीं जानतीं —
कि वह रस तो पुष्प से निकला है।
और पुष्प सोचता है कि मकरंद उसी ने तैयार किया है,
जबकि सूर्य, वायु, पवन और जल के द्वारा उसका जीवन यापन होता है।

और फिर मनुष्य आता है —
वह उस छत्ते से शहद निकालता है
और यह सोचता है कि वही उसका निर्माता है।
परंतु वह यह नहीं सोचता कि वह केवल निमित्त मात्र है।”

कृष्ण का स्वर अब गम्भीर हो गया —
“सखा, ईश्वर ने ऐसे ही करोड़ों जीव-जंतु बनाए हैं,
करोड़ों ब्रह्मांड, करोड़ों ग्रह-नक्षत्र रचे हैं।
हम उसकी शक्ति और समर्थता की कल्पना भी नहीं कर सकते।
उसके विषय में जानना संभव नहीं — वह अनंत है।

उसके सम्मुख तो मस्तक झुकाया जा सकता है,
उठाया नहीं।”

इतना कहकर श्रीकृष्ण ने अपनी मुरली होंठों से लगाई,
और जैसे ही स्वर निकला,
वहां उपस्थित सब जीव-जंतु — मधुमक्खियाँ, पक्षी, पुष्प, यहाँ तक कि वायु भी —
एक क्षण को ठहर गए।

प्रकृति ने मानो उसी क्षण स्वीकार किया —
कि कर्ता कोई नहीं, सब उसी के निमित्त हैं।

राधा रानी ने मंद मुस्कान से कहा —
“प्राणवल्लभ, आज तो आपने हमें सृष्टि के हर कण में भगवान का दर्शन करा दिया।”

जय श्री राधे जय श्री श्याम

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