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जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है, और न (पाप से) बँधता है-कृपा शंकर
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दूसरों को तो कुछ कहने का मुझे कोई अधिकार नहीं है, इसलिए स्वयं को ही ये उपदेश दे रहा हूँ। मैं जो भी उपदेश स्वयं को दे रहा हूँ, वे मुझे इसी जन्म में भगवान से मिलाने के लिए मेरे लिए पर्याप्त हैं।
पिछले जन्म-जन्मांतरों और इस जन्म में मैंने अनेक भूलें की होंगी, और अनेक पाप-पुण्य अर्जित किए होंगे। अब भूतकाल को विस्मृत करने और उस से सारे संबंध तोड़ने का मेरा समय आ गया है। इसी क्षण से पूर्व के भूतकाल से अब मेरा कोई संबंध नहीं है। वर्तमान जीवन भी रंगमंच पर किया जा रहा एक अभिनय मात्र ही है। अब तक के अपने सारे अच्छे-बुरे कर्म और उनके फल — भगवान वासुदेव को अर्पित कर रहा हूँ। एकमात्र कर्ता और भोक्ता वे ही हैं। यह कोई आत्म-मुग्धता या अहंकार नहीं, निज हृदय के गहनतम भाव हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान का आदेश/उपदेश है —
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“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९:२७॥”
अर्थात् — “हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥९:२७॥”
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“शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥”
अर्थात् — “इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे॥९:२८॥”
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“समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥९:२९॥”
अर्थात् — “मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। उन प्राणियोंमें न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो भक्तिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ॥”९:२९॥”
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“अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥”
अर्थात् — “यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥९:३०॥”
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“यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥”
अर्थात् – “जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है, और न (पाप से) बँधता है॥१८:१७:॥”
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“मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥”
अर्थात् – “मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥१८:५८॥”
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“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥”
अर्थात् – “सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥”
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संसार में किसी की प्रशंसा से स्वयं का अहंकार नहीं बढ़े। किसी की निंदा से उदासी या निराशा न हो। किसी भी तरह की अपेक्षा और आकांक्षा न हो। साधु स्वभाव के लोगों के मुंह पर तो दुनियाँ के लोग प्रशंसा करते हैं, पीठ पीछे सब भद्दी और अश्लील गालियाँ देते हैं। इसलिए सम्मान की अपेक्षा मत रखो। भगवान की दृष्टि में हम क्या हैं? इसी का महत्व है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अक्तूबर २०२३

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