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श्रीरामचरितमानस.li बालकाण्ड.

सती का भ्रम, श्रीराम एश्वर्य एवं सती का खेद॥

एक बार त्रेता जुग माहीं।
संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संगसती जगजननि भवानी।
पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥

एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने संपूर्ण जगत्‌ के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥1॥

रामकथा मुनिबर्ज बखानी।
सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई।
कही संभु अधिकारी पाई॥

मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुंदर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया॥2॥

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा।
कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।
चले भवन सँग दच्छकुमारी।।3

श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले॥3॥

तेहि अवसर भंजन महिभारा।
हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी।
दंडक बन बिचरत अबिनासी॥

उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान्‌ उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे॥4॥

दोहा :

हृदयँ बिचारत जात हर
केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु
गएँ जान सबु कोइ॥48 क॥

शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान्‌ के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे॥ 48 (क)॥

सोरठा :

संकर उर अति छोभु
सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु
मन डरु लोचन लालची॥48 ख॥

श्री शंकरजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे॥48 (ख)॥

चौपाई :

रावन मरन मनुज कर जाचा।
प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा।
करत बिचारु न बनत बनावा॥

रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी॥1॥

ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा।
तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि। संगा।
भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥

इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया॥2॥

करि छलु मूढ़ हरी बैदेही।
प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए।
आश्रमु देखि नयन जल छाए॥

मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर (अर्थात्‌ वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए॥3॥

बिरह बिकल नर इव रघुराई।
खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें।
देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥

श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया॥4॥

दोहा :

अति बिचित्र रघुपति चरित
जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस
हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥

श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं॥49॥
॥हरि: ॐ तत् सत्॥
क्रमशः……..
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