श्रद्धा से श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति है। तृप्त से तर्पण शब्द की उत्पत्ति है। दोनों शब्द समाज में बहुत प्रचलित है,श्राद्ध तर्पण विधि में दक्षिण दिशा में मुंह करके बैठें, हाथ में कुश लेकर उसमें काले तिल, सफेद फूल, गंगाजल, जौं, चावल, और कच्चा दूध मिलाकर पितृ तीर्थ से अपने पितरों को जल अर्पित करें

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श्रद्धा से श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति है। तृप्त से तर्पण शब्द की उत्पत्ति है। दोनों शब्द समाज में बहुत प्रचलित है

संस्कृत जानने वाले लॉग इन दोनों शब्दों के अर्थ को जानते हैं श्राद्ध शब्द का अर्थ श्रद्धा के साथ अपने बड़े व्यक्ति का सत्कार करना और उन्हें भोजन करवाना या श्रद्धा का भाव रखना सेवा करना इत्यादि और तर्पण शब्द का अर्थ अपने बड़े बुजुर्गों को किसी भी बात से तृप्त करना तर्पण कहलाता है और यह दोनों शब्द जब व्यक्ति जीवित होता है तभी संबंध रखते हैं

ज्यादातर लोगों को इन दोनों शब्दों का अर्थ ही नहीं पता इसलिए लोग मृत्यु के पश्चात इन दोनों शब्दों को प्रचारित और प्रसारित करते हैं बुद्धिमान लोग विचार करके असत्य को त्याग दे

और सत्य को धारण करें सत्य यही है की श्राद्धका सही अर्थ जाने और तर्पण का भी

श्राद्ध तर्पण विधि में दक्षिण दिशा में मुंह करके बैठें, हाथ में कुश लेकर उसमें काले तिल, सफेद फूल, गंगाजल, जौं, चावल, और कच्चा दूध मिलाकर पितृ तीर्थ से अपने पितरों को जल अर्पित करें, साथ ही पितृ मंत्रों का जाप करें। तर्पण के बाद परिवार के दिवंगत सदस्यों के लिए बनाए गए सात्विक भोजन में से ब्राह्मणों और जरूरतमंदों को भोजन कराएं, और पशु-पक्षियों को भी खाना खिलाएं। 
सामग्री तैयार करें:
तांबे का लोटा/बर्तन: इसमें जल, गंगाजल, काले तिल, जौं, चावल, सफेद फूल और कच्चा दूध मिलाएं। 
कुश (तर्पण के लिए घास): यह जल अर्पित करने के लिए उपयोग की जाती है। 
पितृ चित्र या स्थान: जहां तर्पण करना है, उस स्थान को गंगाजल से पवित्र करें। 
पितृ मंत्र: पितरों का ध्यान करने के लिए मंत्रों का जाप करें। 
तर्पण करने की विधि:
स्नान और पवित्रीकरण: तर्पण करने से पहले स्नान करें, और जिस स्थान पर तर्पण कर रहे हैं उसे गाय के गोबर से लीपकर गंगाजल से पवित्र करें। 
आसन और मुद्रा: दक्षिण दिशा में मुंह करके घुटनों को जमीन पर टिकाकर बैठें। 
जल अर्पित करना: हाथों में कुश की एक जूड़ी लें। फिर, अपने पितृ तीर्थ (अंगूठे और तर्जनी उंगलियों के बीच का भाग) से अपने पूर्वजों का नाम लेकर और ओम पितृ देवताय नमः मंत्र का जाप करते हुए जल अर्पित करें। 
पितरों का स्मरण: पितरों का नाम लेकर, उनके गोत्र का उच्चारण करते हुए तीन-तीन बार जल चढ़ाएं। 
तर्पण की पूर्णाहुति: सभी पितरों को जल अर्पित करने के बाद, ओम तर्पयामी मंत्र का जाप करें। 
पिंड दान: जल के साथ पितरों को अन्न का पिंड (लोई) बनाकर कुश पर रखकर जल से सींचें। 
श्राद्ध का समापन:
भोजन और दान: इसके बाद पितरों का प्रिय भोजन बनाएं और ब्राह्मणों को भोजन कराएं। अगर ब्राह्मण न हों, तो गरीब व्यक्ति को भोजन कराएं। 
पशु-पक्षियों को भोजन……

गया तीर्थ का महत्व :

पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष दिलाने में है, जहां पिंडदान और श्राद्ध करने से पितरों को शांति मिलती है। यह एक पौराणिक कथा से जुड़ा है, जिसमें गयासुर नामक असुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दान कर दिया था, और उसका शरीर ही गया बन गया, जिससे यह पितृ तीर्थ बन गया। गया को विष्णु के पदचिह्नों से भी पवित्र माना जाता है, और यहाँ फल्गु नदी, विष्णुपद मंदिर, और अक्षय वट जैसे पवित्र स्थानों पर श्राद्ध किया जाता है।
गया तीर्थ का महत्व:
पितरों की मोक्ष:
गया तीर्थ में पिंडदान और श्राद्ध करने से पूर्वजों की आत्माओं को इस संसार से मुक्ति मिलती है और उन्हें शांति प्राप्त होती है, ऐसा पौराणिक ग्रंथों में कहा गया है।
पौराणिक कथा:
गयासुर नामक एक राक्षस ने कठोर तपस्या कर यह वरदान मांगा था कि उसके दर्शन मात्र से लोग पापों से मुक्त हो जाएं। इससे स्वर्ग और नरक का संतुलन बिगड़ गया। इस समस्या के समाधान के लिए देवताओं ने गयासुर को अपना शरीर यज्ञ के लिए दान करने को कहा। उसके शरीर पर ही गया तीर्थ की स्थापना हुई और यह पितृकर्म के लिए पवित्र स्थल बन गया।
विष्णुपद मंदिर:
विष्णु के पदचिह्नों के कारण यह मंदिर गया में एक अत्यंत पावन स्थल माना जाता है, और इसे पितृकर्म के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
प्रमुख स्थल:
फल्गु नदी, विष्णुपद मंदिर और अक्षय वट का वृक्ष गया में पिंडदान और श्राद्ध के लिए प्रमुख पवित्र स्थान हैं।
धर्मग्रंथों में महत्व:
विष्णु पुराण, गरुड़ पुराण और रामायण जैसे धर्मग्रंथों में गया को पितृकर्म और पितृदोष निवारण के लिए श्रेष्ठ तीर्थस्थल के रूप में वर्णित किया गया है।

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