सत्य है कि आप शस्त्र नहीं उठायेंगे, किन्तु उन दुष्टों के आक्रमण में अवरोध तो प्रस्तुत कर ही सकते हैं… महर्षि अगस्त्य ने भी शस्त्र कहाँ उठाया था? यदि आप हमारी रक्षा नहीं करेंगे तो एक न एक दिन वे हमारा सम्पूर्ण विनाश कर देंगे। यज्ञकर्म यदि पूर्णतः समाप्त हो गया तो धर्म की रक्षा कैसे संभव होगी?” विश्वामित्र को शांत विचारमग्न बैठे देखकर ऋषि न्यायप्रिय ने पुनः निवेदन किया।
“ऋषिवर! मैंने यह कब कहा कि मैं आपका सहयोग नहीं करूँगा? किन्तु प्रश्न यह है कि यह कार्य कैसे किया जाय? मैं आपके आश्रम पर बैठकर उनके आक्रमण को रोक सकता हूँ, किन्तु सदैव तो बैठा नहीं रह सकता; मेरे हटने के उपरांत वे पुनः आक्रमण कर सकते हैं… दूसरी स्थिति यह भी तो है कि उस प्रांत में शताधिक आश्रम तो होंगे ही; मैं कितने आश्रमों पर बैठ सकता हूँ? मैं एक स्थान पर बैठा रहूँगा, और ताड़का अन्य स्थानों पर उपद्रव करती रहेगी।”
“तब क्या उपाय होगा ब्रह्मर्षि? हमें तो एकमात्र आपमें ही आशा है। आपके अतिरिक्त हम और किसका अवलम्ब ग्रहण कर सकते हैं? आप ही यदि ऐसी निराशाजनक बातें करेंगे, तो हमारे पास आत्महत्या के सिवाय क्या मार्ग बचेगा?” ऋषि पुण्यधाम ने हताश स्वर में कहा। उनकी बात सुनकर विश्वामित्र मुस्कुरा उठे। वे सहज आत्मीय भाव से बोले –
“ऋषिवर ! अपनी सहायता स्वयं ही करनी पड़ती है; जब कोई स्वयं उद्योग करता है, तब अन्य भी उसका सहयोग कर पाते हैं… अतः उद्योग तो आपको करना ही होगा, मैं आपका सहयोगी बन जाऊँगा।”
“ब्रह्मर्षि! आपका आवाहन तो हमने अपने नेतृत्व के लिये किया है; हम आपके सहयोगी हो सकते हैं, किन्तु नेतृत्व तो आपको ही करना होगा।”
“मैं नेतृत्व अवश्य करूँगा, किन्तु आपको समर्थ बनाने में। रण में मैं शस्त्र संधान तो कदापि नहीं करूँगा, वह तो आपको ही करना होगा। मैं किसी राक्षस का वध भी नहीं करूँगा, किन्तु आपको सबल बनाने का प्रयास अवश्य करूँगा। राक्षस जब तक आपको निर्बल पायेंगे, वे आप पर अत्याचार करेंगे। जिस क्षण उन्हें भान हो जाएगा कि आप निर्बल नहीं हैं, आप उनसे भी अधिक सबल हो गये हैं, वे आपसे उलझना छोड़ देंगे। अत्याचार के प्रतिकार का एक ही तो उपाय है स्वयं को निर्भय बनाना, और अत्याचारी से भी अधिक सबल बनाना।”
“किन्तु ब्रह्मर्षि! हम राक्षसों के साथ युद्ध कैसे कर पायेंगे? सहसा तो हमारी प्रवृत्ति ही नहीं हैं। हम तो अध्यात्म के विद्यार्थी हैं। हमने तो सदैव आत्मा की आराधना की है, शरीर की आराधना तो की ही नहीं; शारीरिक शक्ति हमारे पास है ही कहाँ, दूसरी ओर दुष्ट राक्षस तो गजराजों के समान बलशाली हैं।”
“महर्षि अगस्त्य क्या आत्मा की आराधना नहीं करते थे? उन्होंने कैसे स्वयं को राक्षसों से अधिक सबल सिद्ध कर दिया? एकाकी उन्होंने सुन्द का वध कर दिया, ताड़का और मारीच-सुबाहु को भगा दिया; आप तो इतने सारे हैं, आप सब मिलकर भी इनसे भयभीत हैं?” विश्वामित्र ने उलाहना देते हुए कहा।
“ब्रह्मर्षि ! सब तो अगस्त्य नहीं हो सकते न! उनकी मानसिक शक्ति इतनी प्रबल थी कि उसके सम्मुख शारीरिक शक्ति गौण हो गयी थी। उन जैसा सिद्ध तो युगों में कोई एक ही हो पाता है, हमारी उनसे तुलना तो आपका अन्याय है।”
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