मानव जीवन श्रेष्ठ क्यों है//मनुष्य जीवन को “सबसे श्रेष्ठ” मानने का आधार, उसके अंदर मौजूद “अच्छे गुण” हैं जो प्रकट होने के लिए अपना रास्ता खोजते रहते हैं। संयम-सेवा, विनम्रता-सहनशीलता और प्रेम-सद्भाव आदि के रूप में प्रकट होकर ये मनुष्य को पशु-पिशाच स्तर से ऊपर उठाकर उसे एक अच्छा इंसान बनाते हैं-पं श्रीराम शर्मा आचार्य।

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ऋषि चिंतन

मानव जीवन श्रेष्ठ क्यों है?
मनुष्य जीवन को “सबसे श्रेष्ठ” मानने का आधार, उसके अंदर मौजूद “अच्छे गुण” हैं जो प्रकट होने के लिए अपना रास्ता खोजते रहते हैं। संयम-सेवा, विनम्रता-सहनशीलता और प्रेम-सद्भाव आदि के रूप में प्रकट होकर ये मनुष्य को पशु-पिशाच स्तर से ऊपर उठाकर उसे एक अच्छा इंसान बनाते हैं और महानता के रास्ते पर आगे बढ़ाते हैं। मनुष्य की बुद्धि और पुरुषार्थ की क्षमता तभी अपने समय और सुविधा-साधनों का सही-सही इस्तेमाल कर पाती है। तभी मनुष्य की शक्ति स्वार्थ, विनाश और गलत कामों से हटकर ईश्वर की विश्व-वाटिका को सुंदर, सभ्य और सुसंस्कृत बनाने में अपना भाव-भरा योगदान देती है।
मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी पूँजी उसकी “भाव-संवेदना” है। इसी को अपनाने पर मनुष्य दूसरों की पीड़ा और दुःख-दर्द को समझ पाता है। तभी वह दूसरों के दुःख को बँटा लेता है और अपने सुख को बाँट देता है। यही सद्भाव, सहानुभूति, सज्जनता, शालीनता आदि गुणों के रूप में चारों ओर शीतलता, मधुरता और सुख-शांति का वातावरण बनाता है। इसी को धारण करने पर मनुष्य में महामानव, देवमानव और ऋषि पैदा होते हैं। जो अपने हृदय में छलकते प्रेम भाव, सूझ भरे कार्यों और अपने आदर्श जीवन द्वारा इसी मनुष्य जीवन में देवता की उपस्थिति को प्रमाणित करते हैं और इसी धरती पर स्वर्ग जैसी स्थिति खड़े करते हैं। समय-समय पर ऐसे ही मनुष्यों की अधिकता ने इस धरती पर सतयुग-स्वर्णयुग जैसे सुख-शांति भरे वातावरण को तैयार किया है। ऐसा श्रेष्ठ जीवन जीने के कारण ही कभी भारत भूमि के तैंतीस करोड़ निवासी, तैंतीस कोटि देवताओं की श्रेणी में रखे जाते थे और भारत विश्वगुरु और चक्रवर्ती जैसी उपाधियों से पूरे विश्व में विख्यात था।
वास्तव में “भगवान” ने “मनुष्य” को अपने ही रूप में बनाकर भेजा है। पूरे ब्रह्मांड का नमूना पदार्थ के सबसे छोटे कण परमाणु के अंदर देखा जा सकता है। इसके अंदर सौर मंडल की तरह, इलेक्ट्रान, प्रोटोन आदि कण केंद्रीय नाभिक के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। विशाल वटवृक्ष का पूरा नक्शा उसके छोटे से बीज में बंद पड़ा है। खाद-पानी मिलते ही यह अंकुरित होकर अपना रूप प्रकट करना शुरु कर देता है। ऐसे ही मनुष्य के अंदर वह सब कुछ बीज रूप में छिपा पड़ा है, जो स्वयं भगवान में है। कह सकते हैं कि सामान्य अवस्था में भगवान हमारे अंदर सो रहे हैं। ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में अनेकों शक्तियाँ हमारे अंदर छिपी पड़ी हैं। जब साधना द्वारा उन्हें जगाया जाता है, तो मनुष्य के अंदर दिव्य शक्तियों का जागरण होने लगता है। मनुष्य के अंदर का ईश्वरीय अंश जब जागता है, तो वह महात्मा, देवात्मा, ऋषि, सिद्धपुरुष जैसी सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। उसके अंदर सोया भगवान प्रकट होने लगता है और मनुष्य भगवान की तरह शक्तिशाली, ज्ञानवान और प्रेममय हो जाता है। इसी अवस्था में वह सोऽहम्, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् जैसी देव वाणियाँ बोलता है और अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म, तत्त्वमसि जैसे वचनों को प्रत्यक्ष अनुभव करता है। इस शरीर में ऐसा कुछ भी संभव है, यह सचाई मनुष्य जीवन को बेशकीमती बना देती है।

मानव जीवन की गरिमा पृष्ठ ०३
।।पं श्रीराम शर्मा आचार्य।।

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