जिद जब जुनून बन जाता है तो उसे पूरा करना और आसान हो जाता है। भारत के इतिहास में भी कई ऐसे योद्धा हुए जिन्होंने जिद की और सफल हुए। चाहे वो सम्राट अशोक हों या फिर मुगल शासक अकबर। ऐसे ही एक शासक थे शेरशाह सूरी, जो अपने जिद से जमींदार के बेटे से एक बहुत बड़े साम्राज्य के शासक बने। भारत के विकास में उनके योगदान को भूला नहीं जा सकता। शेरशाह जहां एक ओर विकास करते जा रहे थे वहीं दूसरी ओर खून खराबा करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार भी करते रहे। वो एक ऐसे शासक थे जिन्होंने अदम्य साहस और बुद्धि से उसने अपने साम्राज्य का विस्तार विदेशी धरती तक किया।
शेरशाह उर्फ फरीद खान के पिता सासाराम के जमींदार हुआ करते थे, लेकिन उसकी हसरत कुछ और थी। बचपन में शेर का शिकार कर दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खान लोहानी का दिल जीत लिया, तब लोहानी ने ही फरीद को शेरशाह की उपाधी दी, और अपने पुत्र का संरक्षक बना दिया। लोहानी की मौत के बाद उनकी बेगम से शेरशाह ने निकाह कर दक्षिण बिहार के नवाब बन बैठे। इसके बाद भी शेरशाह की ख्वाहिशें थमी नहीं, बल्कि और बढ़ती गई। ऐसे में वो अपनी अफगान सैनिकों से सजी सेना के साथ अपना साम्राज्य विस्तार करते रहे। शेरशाह ने अपने शासन में ही जीटी रोड उर्फ ग्रांड ट्रंक रोड का निर्माण कराया था, जो आज भी एक उत्कृष्ट साधन है आवागमन का। वहीं जीतने की जिद ऐसी कि अपनी जिंदगी से भी प्यार नहीं था उन्हें। बस एक जिद थी कि हर हाल में जीत मिलनी चाहिए। इसका नजारा आखिरी युद्ध में देखने को मिला था।
इतिहासकार बताते हैं कि शेरशाह का अंतिम युद्ध चंदेल राजपूतों के साथ हुआ था। हुआ यूं था कि भाटा के राजा वीरभानु ने शेरशाह के प्रतिद्वंद्धी रहे हुमायूं की सहायता की थी। हुमायूं पर विजय के बाद शेरशाह के डर से वीरभानु कालिंजर के राजा कीर्ति सिंह चंदेल की शरण में चला गया। जब शेरशाह सूरी ने वीरभानु को सौंपने की बात कीर्ति सिंह से कही तो उसने मना कर दिया। ऐसे में शेरशाह 80,000 घुड़सवार, 2,000 हाथी और अनेक तोपों के साथ कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। किलेबंदी के कारण अंदर तबाही फैलाने के लिए अग्निबाण (हुक्के-एक प्रकार के अग्निबाण, जो हाथ से फेंके जाते थे) फेंके जाने की तैयारी हुई, जिसे खुद शेरशाह फेंकने लगे। उसी दौरान एक अग्निबाण किले के बाहर गेट पर ही फट गया, जिससे वो बुरी तरह से जख्मी हो गए। ऐसे में शेरशाह की हालत बिगड़ते देख उनके सैनिक और सेनापति युद्ध की तैयारियां छोड़ पास आकर दुःख प्रकट करने लगे। तब भी जीत की ऐसी ख्वाहिश थी कि पूछिए मत। मरने से पहले शेरशाह ने कहा कि यदि वे उसके जीवित रहते गढ़ पर अधिकार कर लें तो वह शान्ति से प्राण छोड़ सकेंगे। ऐसे में उनके सैनिक भीषण आक्रमण करने लगे और दुर्ग कब्जा जमा लिया। जीत की सूचना पाते ही वह मई 1545 ई. में मर गए। इस तरह एक जिद्दी शासक का अंत हो गया।