वशिष्ठ-नारद संवाद
रात्रि का प्रथम प्रहर आरम्भ हो रहा था। सारा गुरुकुल सो चुका था। गुरुदेव वशिष्ठ, अपनी कुटिया में पद्मासन की मुद्रा में बैठे हुए थे। वे योग समाधि में डूबे हुए सम्भवतः किसी से सम्पर्क करने का प्रयास कर रहे थे। थोड़ी ही देर में गुरुदेव के ठीक सामने धीरे-धीरे एक त्रिआयामी छवि उभरनी आरम्भ हुई। कुछ ही पलों में छवि पूर्ण स्पष्ट हो गयी। ये देवर्षि नारद थे।
“प्रणाम ब्रह्मर्षि! कैसे स्मरण किया?”
वशिष्ठ ने धीरे से अपनी आँखें खोल दी।
“प्रणाम देवर्षि! आपसे क्या गोपन है? सम्पूर्ण पटकथा तो आप ही लिख रहे हैं।” वशिष्ठ ने अकचित मुस्कान के साथ कहा।
“अच्छी से अच्छी पटकथा व्यर्थ हो जाती हैं, यदि उसे श्रेष्ठ निर्देशक न मिले, अथवा मंच पर उसे साकार करने वाले अभिनेता चूक कर जायें; अतः निर्देशक और मंच पर अभिनय करने वाले अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। नारद सौभाग्यशाली है कि उसकी पटकथा को आप जैसे समर्थ लोगों का निर्देशन प्राप्त हो रहा है।”
“मुनिवर! आइये एक-दूसरे की प्रशंसा की औपचारिकता को छोड़कर मुख्य विषय पर आ जायें।”
वशिष्ठ खुलकर हँसते हुये बोले।
“जैसी आपकी इच्छा।”
“देवर्षि! राम की दीक्षा पूर्णप्राय है, किन्तु मैं चाहता हूँ यदि महर्षि विश्वामित्र का आशीर्वाद और प्राप्त हो जाता उसे, तो यह दीक्षा परिपूर्ण हो जाती; महर्षि, शस्त्र ज्ञान में शिव के बाद सर्वश्रेष्ठ हैं।”
“आप उचित कह रहे हैं; तो निवेदन क्यों नहीं करते महर्षि से?”
“देवर्षि, आप ही कीजिये यह कार्य!”
“क्यों? अब तो आपके संबंध मथुर हैं; आप दोनों ही परस्पर एक-दूसरे का सम्मान करते हैं, महर्षि
आपको न नहीं करेंगे।”
“देवर्षि! इस सम्पूर्ण अभियान के सूत्रधार आप ही हैं, और आप ही बने भी रहें; मुझे तो मात्र एक सहकर्मी भर ही बना रहने दीजिये।” मुस्कुराते हुए वशिष्ठ बोले।
“क्या अभी भी मन में कुछ है मुनिवर?” नारद ने ठहाका लगाते हुए विनोद किया।
“नहीं, ऐसा कोई कारण नहीं; वस्तुतः यह अभियान देवों का ही तो है और आप देवों के प्रतिनिधि हैं, अतः आप द्वारा ही इस दायित्व का निर्वहन उचित होगा।”
“चलिये ऐसा ही सही… तो आपकी सूचनार्थ निवेदन है कि यह कार्य नारद सम्पादित कर चुका है; जामदग्नेय राम; परशुरामद्ध, कैलाश प्रस्थान कर चुका है, और दाशरथि राम को ब्रह्मर्षि के संरक्षण में सौंपने की भूमिका लिखना आरंभ हो चुका है।”
“अरे देवर्षि!” वशिष्ठ हठात् आश्चर्य और हर्ष से मिश्रित स्वर में बोल पड़े “आप निस्संदेह हम सबसे आगे ही चलते हैं; मेरे विचार करने से पूर्व ही आपने कार्य सम्पादित भी कर डाला … धन्य हैं आप!”
नारद, सस्मित कुछ देर कुछ सोचते रहे, फिर बोले –
“मुनिवर! सीरध्वज जनक की पुत्री सीता भी बड़ी हो रही है।”
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