‼️ऋषि चिंतन ‼️
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➖साधना से सिद्धि का आधार➖
‼️➖।।आत्म समीक्षा।।➖‼️
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“आध्यात्मिक साधनाएँ” व्यक्ति को पूर्णता की ओर ले जाने के निमित्त की जाती हैं। इन साधनाओं का मूलभूत आधार है- “आत्म समीक्षा ।” बिना इसके हवाई किले की तरह कोई भी साधना टिक नहीं सकती। अपने आपकी “समीक्षा” करना व्यक्तित्त्व के वर्तमान स्वरूप को समझना आध्यात्मिकता की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। क्योंकि इसी आधार पर त्रुटियों का संशोधन तथा न्यूनता की पूर्ति करना सम्भव है। इस “आत्म-निरीक्षण” का एक और भी पहलू है कि जो विशिष्टताएँ-आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक हैं, उनका यदि विकास नहीं हुआ है तो उसकी आवश्यकता अनुभव करते हुए आत्मोत्कर्ष का प्रयास सम्भव हो सकेगा।
वस्तुतः मनुष्य के पास ऐसा बहुत कुछ है जो सदा अप्रकट और अविकसित ही बना रहता है । मस्तिष्कीय क्षेत्र की अनूठी क्षमताएँ और अन्तःकरण की विविध विशिष्टताएँ ऐसी हैं जो हर किसी के पास न्यूनाधिकता में पाई जाती हैं। यदि “आत्म-निरीक्षण” की कला हस्तगत हो सके तो मनुष्य इन दिव्य केन्द्रों का स्थान एवम् स्वरूप समझ सकता है और उन्हें विकसित करने के लिए वह सब कर सकता है जो सुदृढ़ संकल्प शक्ति के सहारे निश्चित रूप से हो सकता है।
यदि “लक्ष्य” और “आदर्श” ईश्वर प्राप्ति जैसा उच्च हो तो इसकी प्राप्ति कर्मकाण्डों के बलबूते सम्भव नहीं। इसके लिए “आन्तरिक परिष्कार” और “उत्कृष्ट चिन्तन-चरित्र” अपनाने की आवश्यकता है । तद्विषयक जो कुछ परिवर्तन या विकास करना है, उसका स्वरूप सामने आने की बात तभी बनती है जब “आत्म निरीक्षण” का सिलसिला पूर्ण उत्साह के साथ चलाया जाय।
यह भ्रम जितनी जल्दी दूर किया जा सके उतना ही अच्छा है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए अमुक कर्मकाण्ड ही सबकुछ है । अधिकांश लोग इसी भ्रम में ग्रसित रहकर अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप पूजा-विधानों में संलग्न रहते और सोचते हैं कि ईश्वर के भी मनुष्य की भांति चर्म चक्षु ही हैं। वह मात्र क्रिया-कृत्यों को ही देख पाता है। किसी का अंतरंग देखने या परखने की उसमें क्षमता नहीं है या है तो इसे महत्व नहीं देता और हेय व्यक्तियों को भी उनके कर्मकाण्डों जैसे बाह्य दिखावे से प्रभावित होकर अपने सिंहासन पर बैठा लेता है।
पापों के क्षमा होने या उल्टे-सीधे नाम रटने से सभी दुष्कृत्यों को अनदेखे करने जैसी बातें गल्प ही हैं। तीर्थाटन आदि कृत्यों में भी यदि कोई चाहे तो दिशा-निर्देशन प्राप्त कर सकता है। पर पापों के नष्ट होने या कर्मफल के उलट जाने की बात सोचना प्रकारान्तर से ईश्वर की बड़ी व्यवस्था उलट जाने की दुराशा रखना है। परम सत्ता के दरबार में पुजारियों के – साथ पक्षपात होने तथा बिना पुजारियों के दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंकने की उपेक्षा जैसा कोई विधान नहीं है। इस तथ्य को समझते ही तुरन्त यह समस्या आगे आती है कि हमें अन्तर्मुखी होने का अभ्यास करना चाहिए ताकि “आत्म निरीक्षण” के साथ “आत्म सुधार” का प्रयास भी चल पड़े। इसकी अनिवार्य आवश्यकता है। इस क्षेत्र में कोई सस्ते उपचार-आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त और किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते।
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अखंड ज्योति मई १९८८ पृष्ठ २९
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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ऋषि चिंतन//आध्यात्मिक साधनाएँ” व्यक्ति को पूर्णता की ओर ले जाने के निमित्त की जाती हैं। इन साधनाओं का मूलभूत आधार है- “आत्म समीक्षा ।” बिना इसके हवाई किले की तरह कोई भी साधना टिक नहीं सकती। अपने आपकी “समीक्षा” करना व्यक्तित्त्व के वर्तमान स्वरूप को समझना आध्यात्मिकता की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है

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