उस व्यक्ति ने अपना प्रयास नहीं छोड़ा, किन्तु कई अन्य व्यक्ति अपनी-अपनी कटार निकालकर उसके सामने आ गये। परशुराम का परशु ‘विद्युत-द्युति’, विद्युतगति से ही संचालित होने लगा। कुछ ही पलों में वे सब के सब वहीं ढेर हो गये। किसी का हाथ कटा था, किसी का पैर; तो कइयों

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उस व्यक्ति ने अपना प्रयास नहीं छोड़ा, किन्तु कई अन्य व्यक्ति अपनी-अपनी कटार निकालकर उसके सामने आ गये। परशुराम का परशु ‘विद्युत-द्युति’, विद्युतगति से ही संचालित होने लगा। कुछ ही पलों में वे सब के सब वहीं ढेर हो गये। किसी का हाथ कटा था, किसी का पैर; तो कइयों

के सिर ही थड़ से पृथक हो गया उनका रक्त, आश्रम की पवित्र भूमि को अपवित्र करने लगा था। यह देखकर अर्जुन का क्रोध अपनी सीमा का अतिक्रमण कर गया। वह स्वयं गरजता हुआ परशुराम के सम्मुख आ गया। उसके साथियों ने भी परशुराम को घेर लिया।

कोलाहल सुनकर अर्जुन की सेना, जो आश्रम के बाहर प्रतीक्षा कर रही थी, वह भी भीतर झाँकने लगी। सम्राट् को युद्धरत देखकर उन्होंने मर्यादा त्यागकर भीतर प्रवेश कर लिया, परन्तु उन्हें कपिला के नेतृत्व में गोवंश ने अपने सींगों पर ले लिया। उनके सामने अत्यंत विषम परिस्थिति थी। वे गाय की पूजा करते थे; विकट से विकट परिस्थिति में भी वे गोहत्या का पाप अपने सर पर नहीं ले सकते थे। उनकी कटारें अर्थहीन थीं। वे चाहकर भी अपने सम्राट के पास नहीं फटक पा रहे थे। वे बस गायों की सींगों से अपनी सुरक्षा में ही व्यस्त थे। वे जिधर भी जाते, गायें उन्हें दौड़ा लेतीं। इस भागदौड़ में अनेक सैनिक, सींगों से घायल हो गये। अंत में विवश होकर बचे हुए सैनिकों को जान बचाकर आश्रम के बाहर ही भागना पड़ा। गाँवों का झुण्ड उनके सामने ही मार्ग रोककर खड़ा हो गया।

परशुराम के परशु संचालन में ऐसा अद्भुत हस्तलाघव था, कि अर्जुन और उसके साथियों को परशु दिखाई ही नहीं पड़ रहा था। एक मुहूर्त के युद्ध में अर्जुन के सारे साथी अपने प्राण त्याग चुके थे। वह अकेला ही अब परशुराम का सामना कर रहा था। उसका सैन्य, विवश बाहर से यह अद्भुत

खेल देख रहा था।

सैनिकों में खुसफुसाहट होने लगी थी।

“सम्राट ने निस्संदेह कुलगुरु और गोमाता का अपमान कर अपने विनाश को आमंत्रित किया है।”

“सही कह रहे हो साथी; गोमाता पर अत्याचार करने वाले को तो त्रिलोक में कहीं त्राण नहीं

मिलता।”

“हाँ-हाँ, उसको तो ब्रह्मा-विष्णु-शिव भी नहीं बचा सकतेो”

सैन्य भी अपने सम्राट के विरुद्ध होता जा रहा था, और आश्रमवासियों के समान प्रतीक्षा कर रहा

था उसके विनाश का।

सहस्त्रार्जुन ने अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य का प्रयोग किया, परंतु परशुराम के सम्मुख टिक नहीं सका। परशुराम के परशु के वेग के सम्मुख वह निरन्तर शिथिल पड़ता जा रहा था।

और अंततः सहस्रार्जुन का अंत हो ही गया। परशु के वार से, कबंध से विलग हुआ उसका सिर भूमि पर लोटने लगा। कबंध भी कुछ क्षण अपनी कटार भाँजता रहा, और फिर वह भी भूमि की गोद में लोटने लगा।

“अपने अन्यायी सम्राट और उसके साथियों के शव उठा ले जाओ!” जमदग्नि ने उठते हुए बाहर से

झाँकते सैनिकों से कहा- “कपिला! माता उन्हें मार्ग दो।”

कपिला ने उन्हें मार्ग दे दिया।

देवेन्द्र का एक संकट कट गया था।

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