संतोषी सदा सुखी
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एक बार एक राजा ने दूसरे राज्य पर चढ़ाई में विजय प्राप्त कर ली। उस चढ़ाई में दूसरे राजा के कुटुम्ब के सभी लोग मारे गये। अंत में विजयी राजा ने सोचा कि अब वह राज्य नहीं लेगा और राज्य में जो कोई बचा हो उसको यही राज्य सौंप देंगे।
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ऐसा विचार कर राजा तलाश करने के लिए निकला। एक व्यक्ति जो घर-गृहस्थ छोड़कर जंगल में रहता था, वही बच गया था।
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राजा ने उस व्यक्ति के पास जाकर कहा, “जो कुछ चाहते हो वह ले लो।”
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राजा ने यह सोचकर कहा था कि वो राज्य माँग ले, उससे बढ़कर और भला क्या माँगेगा।
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वह व्यक्ति बोला, “मैं जो कुछ चाहता हूँ वो आप देंगे?”
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राजा ने कहा, “हाँ-हाँ !! दे दूँगा।”
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वह व्यक्ति बोला, “महाराज !! हमें ऐसा सुख दो कि जिसके बाद फिर कभी दुःख नहीं आये।”
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राजा को एक सामान्य व्यक्ति के ऐसा ज्ञानी होने की जानकारी नहीं थी। राजा ने विनम्रतापूर्वक कहा, “क्षमा करो !! मैं इस चीज को तो नहीं दे सकता। दूसरी और कोई चीज माँगिये।”
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वह व्यक्ति बोला, “फिर हमको ऐसा जीवन दो कि हमारा मरण कभी न हो।”
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महाराज ने फिर हाथ जोड़कर कहा, “मैं यह भी नहीं दे सकता। आप कुछ और माँग लीजिए।”
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वह व्यक्ति बोला, “अच्छा कुछ और नहीं तो हमको ऐसी जवानी दो कि जिसके बाद कभी बुढ़ापा नहीं आये।”
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राजा को अपनी भूल का अहसास हुआ। उस व्यक्ति के समक्ष राजा ने अपने ज्ञान को अत्यंत कमजोर समझा। अतः अपने आप को उस व्यक्ति के सम्मुख नतमस्तक मानकर और हाथ जोड़कर राजा वहाँ से चल दिये।
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राजा को समझ आ गया था कि यह संसार से कुछ नहीं चाहता है। यह अपनी आत्मा में ही खुश है।
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जो अपनी आत्मा को देखकर प्रसन्न होता है उसे बाहर में कहीं भी सुख नहीं दिखता है और जो बाहर में सुख देखता है उसे अपनी आत्मा भी नहीं दिखाई देती है।
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जय श्री राधेश्याम जी