साक्षी
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एक जर्मन अपनी भारत यात्रा के दौरान, एक निर्माणाधीन मंदिर में गया। उन्होंने वहाँ एक मूर्तिकार को देखा, जो एक देवी की मूर्ति बना रहा था, और इसी मूर्ति को मंदिर में स्थापित किया जाना था।
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इधर-उधर देखते हुए उसे अचानक पास में ही एक वैसी की वैसी मूर्ति दिखाई पड़ी। आश्चर्यचकित होकर उसने मूर्तिकार से पूछा, “क्या तुम्हें एक ही देवी की दो मूर्तियाँ चाहिए?”
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“नहीं।”, मूर्तिकार ने उसकी ओर देखे बिना ही उत्तर दे दिया और फिर काम जारी रखते हुए तर्क दिया, “हमें केवल एक मूर्ति की ही जरूरत है, लेकिन मूर्ति बनाने के अंतिम चरण में पहली मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई।”
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जर्मन सज्जन पहली मूर्ति के पास गए और उसे बारीकी से देखा पर उन्हें उस मूर्ति में कोई कमी नजर नहीं आई।
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इस मूर्ति में क्या कमी है?”, उसने उलझन में पूछा।
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“उस मूर्ति की नाक पर एक खरोंच है।”, मूर्तिकार ने अपने काम में व्यस्त रहते हुए बहुत साधारण तरीके से उत्तर दिया।
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“क्या मैं पूछ सकता हूँ कि यह मूर्ति कहाँ स्थापित होने वाली है?”, जर्मन सज्जन ने मूर्तिकार से पूछा।
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मूर्तिकार ने उत्तर दिया, “यह मूर्ति लगभग बीस फीट ऊँचे एक स्तंभ पर स्थापित होगी।”
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“क्या !!”, अगर मूर्ति को इतनी दूर रखना है, तो किसी को कैसे पता चलेगा कि मूर्ति की नाक पर एक खरोंच है?”, सज्जन ने आश्चर्य के साथ प्रश्न किया।
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मूर्तिकार ने अपना काम बंद कर, पहली बार सज्जन की ओर देखा औऱ मुस्कुराकर कहा, “और किसे, मुझे पता है ना। मैं तो देख रहा हूँ।”
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किसी काम में उत्कृष्टता प्राप्त करने की इच्छा इस तथ्य से अलग होती है कि कोई इस पर गौर करता हैं या नहीं, कोई इसकी तारीफ करता हैं या नहीं।
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जब हमें ऐसा लगता है कि हमें कोई नहीं देख रहा है, तब भी हमारे सभी कर्मों, हमारे विचारों और हमारे इरादों का एक निरंतर साक्षी है और वह है, हमारी आत्मा! हम किसी ओर से कुछ छुपा भी सकते है लेकिन अपने आप (अपनी आत्मा) से कभी नहीं।
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जय श्री राधेश्याम जी