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रावण विजयी हुआ। उसने कुबेर से उसका पुष्पक विमान छीन लिया।

उस क्षेत्र के प्राकृतिक सौन्दर्य से रावण अभिभूत था। वह सुमाली आदि के साथ पुष्पक पर भ्रमण के लिये निकल पड़ा। आगे जाकर एक स्थान पर पुष्पक अटक गया, पता चला कि यह शिव के कारण हुआ है। रावण, शिव से युद्ध के लिये उद्यत हो गया। शिव ने उसे बच्चों की तरह खिलवाड़ करते हरा दिया। रावण, शिव की असीमित शक्ति से अत्यंत प्रभावित हुआ; वह उनका भक्त बन गया, और उसने शिव से उनकी स्मृति के रूप में चमत्कारी चन्द्रहास खड्‌ग प्राप्त किया।

उस क्षेत्र के सौन्दर्य और शिव के व्यक्तित्व से सम्मोहित रावण ने शेष सबको वापस लंका भेज दिया और स्वयं आत्मत्रचतन के लिये वहीं वन में रुक गया। उसने सुमाली से कहा कि ठीक एक वर्ष बाद वे उसे लेने वहीं आ जायें। वहाँ उसका एक अत्यंत सुंदरी युवती वेदवती से परिचय हुआ। उसने वेदवती की एक सह के आक्रमण से रक्षा की।

वेदवती, बृहस्पति के पुत्र ऋषि कुशध्वज की कन्या थी। इसी वन में उनका छोटा सा कुटीरनुमा आश्रम था। उसके पिता का विचार था कि वेदवती के योग्य वर, सृष्टि में विष्णु के अतिरिक्त कोई नहीं हो सकता। पिता के विश्वास के चलते वेदवती ने भी मान लिया था कि वह विष्णु की वाग्दता है। वह विष्णु को प्राप्त करने हेतु तपस्या करने लगी। अनेक लोगों ने वेदवती को प्राप्त करने का प्रयास किया, किन्तु उसके पिता ने मना कर दिया। इसी कारण एक दिन सुन्द नामक एक दैत्य ने उनकी हत्या कर दी। वेदवती की माता उन्हीं की चिता में सती हो गई तब से वेदवती यहीं रह रही थी, और विष्णु को प्राप्त करने हेतु तपस्या कर रही थी।

उस विजन वन में ये दो ही प्राणी थे। दोनों में घनिष्ठता बढ़ने लगी और फिर एक दिन एक और दुर्घटना के उपरांत दोनों में सम्बन्ध स्थापित हो ही गया। किन्तु इस घटना से वेदवती को अत्यंत आघात पहुँचा। उसे लग रहा था कि उसने विष्णु के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष से संबंध स्थापित कर पाप किया है। वह चितारोहण कर लेना चाहती थी। उसे रावण से प्रेम था, किन्तु उसका विश्वास बाधा बना हुआ था। तभी पता चला कि वह गर्भवती है। रावण ने उसे किसी प्रकार प्रसव तक रुकने को मना लिया। प्रसव के उपरान्त वह कैसे भी नहीं रुकी, और वितारोहण कर ही लिया।

रावण, वेदवती की चिता के पास नवजात कन्या को लिये अर्धविक्षिप्त सा बैठा था, तभी सुमाली उसे लिवाने आ गया। उसकी पैनी दृष्टि ने तत्काल भाँप लिया कि कन्या के लक्षण, पितृकुल के लिये अत्यंत अनिष्टकारी हैं। वह उससे छुटकारा पाने का उपाय सोचने लगा। रावण की स्थिति देखते हुए कन्या के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता था। बहुत विचार करने के उपरान्त कन्या को रावण से अलग करने का उपाय उसे सूझ गया। उसने रावण को समझाया कि वेदवती, विष्णु से विवाह करना चाहती थी। उसने अन्तिम समय कहा भी था कि उसकी तपस्या व्यर्थ नहीं जायेगी, वह स्वयं विष्णु को नहीं प्राप्त कर सकी तो अब उसकी यह कन्या उसे प्राप्त करेगी। किन्तु रावण के, देवों से जो शत्रुता के सम्बन्ध स्थापित हो गये हैं, उनके चलते रावण यदि शत्रुता भुला दे तो भी, विष्णु कभी भी उसकी कन्या को स्वीकार नहीं करेगा। अतः इसका विष्णु से सम्बन्ध एक ही सूरत में हो सकता था कि इसे किसी विधि से किसी ऐसे व्यक्ति के पास पहुँचा दिया जाये जिसके विष्णु से अच्छे संबंध हों, और यह उसके पास उसकी कन्या के रूप में पल कर बड़ी हो। किसी को भी इस बात की भनक तक न लगे कि यह रावण की कन्या है।

रावण की समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसे संभव हो सकता हैं? तब सुमाली ने उसे बताया कि
कल प्रातः मिथिला नरेश जनक यज्ञ के लिये भूमि पर हल चलाने वाले हैं। वह कन्या को उसी भूमि में इस प्रकार स्थापित कर देगा कि वह अवश्य ही जनक को प्राप्त हो जाये। जनक की ख्याति राग- द्वेष से मुक्त, धर्मप्राण राजा के रूप में थी, उन्हें विदेहराज कहा जाता था। रावण भी उनका सम्मान करता था। उनके नाम पर उसने सहमति दे दी।

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