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विश्व की प्रथम प्रेम कथा
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नल-दमयन्ती की कथा का वर्णन महाभारत में आता है। जब युधिष्ठिर द्रौपदी को जुएं में हार जाते हैं और फिर पांडव द्रौपदी सहित वनवास को जाते हैं, तब युधिष्ठिर की आत्म-ग्लानि को मिटाने के लिए देवर्षि नारद ने उन्हें ये कथा सुनाई थी
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प्राचीन काल में निषादराज वीरसेन के पुत्र थे नल। वे बहुत वीर, सच्चरित्र एवं सुन्दर थे, किन्तु उन्हें जुएं का व्यसन था।
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उसी काल में विदर्भ नरेश भीमक के तीन पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्रों का नाम था दम, दान्त एवं दमन और पुत्री का नाम था दमयन्ती।
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कहा जाता है कि दमयन्ती के समान रूपवती स्त्री उस समय त्रिलोक में कोई नहीं थी। उसके रूप और गुण की चर्चा पृथ्वी के साथ साथ स्वर्ग तक फैली थी।
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एक बार नल उद्यान में बैठा था तभी वहाँ एक सुन्दर हंस आया। नल ने उसे पकड़ लिया और सदा के लिए अपने पास रखने का विचार करने लगा।
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तब उस हंस ने कहा, “कृपया आप मुझे छोड़ दीजिये। आपकी कृपा के बदले में मैं राजकुमारी दमयन्ती के पास जाकर आपकी ऐसी प्रशंसा करूँगा कि वो आपको ही वर लेगी।”
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नल ने भी दमयन्ती के बारे में सुना था इसीलिए उसने उस हंस को छोड़ दिया।
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वचन के अनुसार वो हंस दमयन्ती के पास गया और नल की इतनी प्रशंसा की कि वो बिना देखे ही उससे प्रेम करने लगी।
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नल के विरह में उसकी दशा अत्यंत व्याकुल हो गयी। उसी समय उसके पिता भीमक ने उसके स्वयंवर का आयोजन किया और सभी राजाओं को निमंत्रण भेजा।
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नल भी उस स्वयंवर में भाग लेने के लिए विदर्भ की ओर निकला।
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दमयन्ती के रूप का प्रभाव ऐसा था कि स्वयं देवराज इंद्र भी अन्य देवताओं सहित स्वयंवर में भाग लेने को स्वर्ग से चले।
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मार्ग में देवताओं ने कामदेव के समान नल को देखा। उन्होंने चतुराई से उसे स्वयंवर से हटाने की योजना बनाई।
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देवराज इंद्र को देख कर नल ने उन्हें प्रणाम किया। तब देवराज ने कहा कि मेरा एक कार्य है जिसके लिए मैं चाहता हूँ कि आप मेरे दूत बनें।
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ये सुनकर नल ने प्रसन्नता से कहा, “हे देवराज !! आपका दूत बन कर मैं सम्मानित होऊँगा। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं आपका कार्य अवश्य करूँगा। कृपया मुझे वो कार्य बताएं।”
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तब इंद्र ने कहा, “हे नल !! आप हम देवताओं के दूत बन कर दमयन्ती के पास जाइये और उससे कहिये कि वो स्वयंवर में हम देवताओं में से किसी को चुन ले।”
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ये सुनकर नल ने कहा कि वे स्वयं दमयन्ती को वरण करने की आकांक्षा लेकर विदर्भ जा रहे हैं, फिर किस प्रकार वे उनका सन्देश उसे सुना सकते हैं?
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ये सुनकर इंद्र ने कहा कि आपने हमें वचन दिया है इसीलिए आपको हमारा ये कार्य तो करना ही होगा।
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अपने वचन की रक्षा के लिए नल रात्रि में छिप कर दमयन्ती के महल पहुँचे। वहाँ पर जब दोनों की भेंट हुई तो दोनों एक दूसरे को देखते ही रह गए।
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जब दमयन्ती को पता चला कि ये वही नल हैं जिन्हे वो अपना पति मान चुकी हैं तो उन्हें बहुत हर्ष हुआ।
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फिर नल ने उन्हें देवताओं का सन्देश दिया। इस पर दमयन्ती ने रोते हुए नल को अपने ह्रदय की बात बताई और कहा कि यदि वे उन्हें पति के रूप में ना पा सकी तो आत्महत्या कर लेंगी।
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नल ने उन्हें बहुत समझाया किन्तु अपने प्रति उनका सच्चा प्रेम देख कर नल वापस देवताओं के पास आ गए और उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया।
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देवताओं ने सोचा कि किसी और उपाय से दमयन्ती को प्राप्त किया जाये।
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स्वयंवर के दिन संसार के सभी राजा विदर्भ पहुँचे किन्तु दमयन्ती की दृष्टि केवल नल को ही खोज रही थी।
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स्वयंवर में सभी देवताओं ने भी छल से नल का ही रूप बना लिया। जब दमयन्ती वहाँ पहुँची तो उन्हें कई नल दिखाई दिए।
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दमयन्ती समझ गयी कि ये देवताओं का छल है। तब उसने देवताओं से ही प्रार्थना की कि मैंने नल को अपना पति मान लिया है अतः मुझे स्वयं को पहचानने की दृष्टि प्रदान करें।
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नल के प्रति उसकी निष्ठा देख कर इंद्र सहित सभी देवताओं ने उसे वो दृष्टि दी कि वो नल रुपी देवताओं को पहचान सके।
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दमयन्ती ने देखा कि देवताओं के शरीर पर यात्रा की धूल नहीं है। उनके शरीर से पसीना नहीं निकल रहा और उनकी पलके नहीं झपक रही।
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उनके गले में पड़ी मालाएं भी ताजा हैं। ये लक्षण देख कर दमयन्ती ने असली नल को पहचान लिया और उसके कंठ में वरमाला डाल दी।
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दोनों के विवाह में देवताओं ने उन्हें आशीर्वाद दिए और वापस स्वर्ग की ओर चल दिए।
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मार्ग में उन्हें द्वापर और कलि मिले जिन्होंने बताया कि वे दमयन्ती के स्वयंवर के लिए जा रहे हैं।
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तब इंद्र ने हँसते हुए कहा कि स्वयंवर तो हो गया और दमयन्ती ने नल का वरण कर लिया। ये सुनकर द्वापर तो कुछ नहीं बोले पर कलि ने क्रोध में आकर नल से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा कर ली।
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वो नल के राज्य में बस गया और नल का अहित करने की प्रतीक्षा करने लगा।
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नल और दमयन्ती की दो संताने हुई – पुत्र इन्द्रसेन और पुत्री इंदरसेना। इंदरसेना का विवाह आगे चल कर पांचाल नरेश मुद्गल से हुआ।
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उधर १२ वर्षों तक कलि ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में रहा जिससे वो नल पर अपना प्रभाव डाल सके किन्तु उसे नल में कोई दोष ना दिखा।
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एक दिन नल भूलवश लघुशंका कर बिना आचमन किये ही संध्या वंदन को बैठ गए।
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कलि को अवसर मिल गया और वो नल के मस्तक पर बैठ गया। साथ ही कलि नल के भाई पुष्कर के पास गया जो नल से द्वेष रखता था।
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कलि ने पुष्कर से कहा कि वो नल के साथ चौसर खेल कर उसका सब कुछ जीत ले।
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पुष्कर ने ऐसा ही किया। दोनों चौसर खेलने बैठे किन्तु कलि के प्रभाव से नल सारी बाजी हारने लगे।
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अंत में नल अपना राज-पाठ और सारा धन हार गए। ये देखकर दमयन्ती ने अपने दोनों बच्चों को अपने पिता के पास भेज दिया।
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नल सब कुछ हारकर जब नगर से बाहर निकले तो दमयन्ती भी केवल एक वस्त्र में उन के साथ चल दीं। दोनों की स्थिति बड़ी दीन हो गयी।
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एक बार भूख प्यास से तड़पते पति पत्नी जंगल में जा रहे थे। नल ने देखा कि दो सोने के रंग वाले पक्षी दाना चुग रहे हैं।
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उसने सोचा कि इन्हे पकड़ कर यदि बेचा जाये तो कुछ धन मिल जाएगा। यही सोच कर उसने अपना एक मात्र वस्त्र उन पर फेंका।
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किन्तु दैवयोग से वो पक्षी उस वस्त्र को ले कर उड़ गए। ये देख कर नग्न नल ने अपनी पत्नी के सामने लज्जा से सर झुका लिया।
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अपने पति की ऐसी दशा देख कर दमयन्ती बहुत दुखी हुई और उसे सांत्वना दी।
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उस रात जब दमयन्ती घोर निद्रा में थी तो नल ने उसे देख कर स्वयं को धिक्कारा कि मेरे ही कारण मेरी पत्नी की ये दशा हुई है।
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नल जानते थे कि पतिव्रता दमयन्ती किसी भी स्थिति में उनका साथ नहीं छोड़ेगी इसीलिए उन्होंने उसे छोड़ने का निश्चय किया।
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नल ने सोचा कि यदि मैं चला जाऊँ तो दमयन्ती किसी प्रकार अपने पिता के पास पहुँच ही जाएगी। मेरे साथ रहने पर तो इसे दुःख ही मिलेगा।
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किन्तु जाएँ कैसे? नल तो नग्न अवस्था में थे। तब उन्होंने दमयन्ती की आधी साड़ी फाड़ कर अपने शरीर पर लपेट ली और हृदय पर पत्थर रख कर दमयन्ती को उसी प्रकार सोता छोड़ कर चले गए।
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जब दमयंती उठी तो अपने पति को ना देख कर उन्हें सब जगह खोजने लगी। जब नल उसे नहीं मिले तो वो जोर-जोर से विलाप करने लगी। ऐसे ही भटकती हुई वह एक जंगल में पहुँच गयी।
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उस जंगल में एक अजगर ने उसे अपने पाश में जकड़ लिया और निगलना चाहा। वहीं पास में एक व्याध जा रहा था।
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दमयन्ती की चीख सुन कर उसने अजगर को मारकर उसे बचाया। किन्तु दमयन्ती का रूप देख कर उसके मन में पाप जाग गया।
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उसने बहुत मीठी-मीठी बातें कर कर दमयन्ती को प्रभावित करने का प्रयत्न किया किन्तु दमयन्ती उसका भाव समझ गयी और वहाँ से जाने लगी।
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तब उस व्याध ने बलपूर्वक दमयन्ती को प्राप्त करना चाहा।
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इस पर दमयन्ती ने क्रोध में आकर कहा, “यदि मैंने महाराज नल के अतिरिक्त किसी और का चिंतन ना किया हो तो ये दुष्ट भस्म हो जाये।”
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सती दमयन्ती के ऐसा कहते ही वो व्याध भस्म हो गया।
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इस प्रकार दमयन्ती नल को खोजते हुए बहुत दिनों तक भटकती रही। तब देवता उसका साहस बढ़ाने के लिए ऋषि के वेश में आये और उसे अपने पति को पुनः प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया।
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इससे दमयन्ती को बड़ा सहारा मिला। किसी प्रकार वो भटकती हुई चेदि राज्य में पहुँची। वो भूख प्यास से बेहाल चेदि नरेश सुबाहु के पास पहुँची।
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उसकी दशा देख कर राजा सुबाहु ने उसे अपनी रानी के पास भेज दिया। रानी ने दमयन्ती ने उसकी सारी कथा सुनी और उसे अपने साथ रहने को कहा।
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तब दमयन्ती ने तीन शर्तें रखीं कि वो किसी का जूठा नहीं खायेगी, किसी के पैर नहीं धोएगी और पर-पुरुष से बात नहीं करेगी। रानी ने शर्त मान ली और दमयन्ती वही रहने लगी।
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उधर जब नल, दमयन्ती को छोड़ कर आगे बढे तो तो उन्हें कोई अपना नाम पुकारता दिखा।
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आगे जाकर देखने पर उन्होंने देखा कि वन में आग लगी है और एक विशाल नाग कुंडली बांधे पड़ा था।
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उस नाग ने नल से कहा, “हे महाराज !! मैं महर्षि कश्यप का पुत्र कर्कोटक हूँ। नारद मुनि ने मुझे श्राप दिया था कि जब तक राजा नल तुम्हें ना उठाये, इसी स्थान पर पड़े रहो। इसीलिए आप कृपया मुझे उठा लें।” ऐसा कहकर उसने अपना आकार छोटा कर लिया।
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जब नल उसे दावानल से बाहर लाये तो कर्कोटक बोला कि तुम मुझे कुछ दूरी तक छोड़ दो। बस भूमि पर कदम गिन कर चलो किन्तु भूल कर भी अपने मुख से “दश” शब्द ना बोलना अन्यथा मैं तुम्हे डस लूँगा।
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तब नल अपने कदम गिनते हुए बढ़ने लगे और दसवाँ कदम पड़ते हुए उनके मुख से “दश” शब्द निकल गया।
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उसे सुनते ही कर्कोटक ने तत्काल उन्हें डस लिया। उसके विष से नल का रूप बहुत भयानक हो गया।
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तब नल ने दुःख से कहा, “मैंने तुम्हारे प्राणों की रक्षा की और तुमने मुझे ही डस लिया।”
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ये सुनकर कर्कोटक बोला कि तुम इतना दुःख कलि के कारण ही भोग रहे हो।
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वो सदैव तुम्हे खोजता रहता है। मेरे विष से तुम्हारा रूप बदल गया है इसीलिए अब कलि तुम्हे नहीं पहचान पायेगा।
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तुम अब अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण के पास जाओ और कुछ काल तक वही रहो। ये कहकर कर्कोटक ने नल को दो दिव्य वस्त्र दिए और अंतर्धान हो गया।
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नल अयोध्या पहुँचे और वहाँ के नरेश ऋतुपर्ण के यहाँ बाहुक के नाम से नौकरी करने लगे।
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उसके कौशल से प्रसन्न होकर ऋतुपर्ण उसे हर महीने १०००० स्वर्ण मुद्राएं दिया करते थे। रूप बदला होने के कारण उन्हें कोई पहचान ना सका।
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उधर जब दमयन्ती के पिता भीमक को अपनी पुत्री और जमाता के बारे में पता चला तो वे बड़े दुखी हुए।
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उन्होंने सुदेव नामक एक ब्राह्मण को चेदि देश अपनी पुत्री को खोजने भेजा। सुदेव ने वहाँ दमयन्ती को खोज लिया और उसे लेकर विदर्भ लौट आया।
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अपने पिता के पास आ कर दमयन्ती ने उन्हें किसी भी प्रकार अपने पति को खोजने को कहा। ये सुनकर राजा ने फिर सुदेव को नल की खोज में भेजा।
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सुदेव सारे राज्यों में गया किन्तु उसे नल ना मिले। अंत में सुदेव अयोध्या नरेश राजा ऋतुपर्ण से मिला। नल ने उसे पहचान लिया किन्तु उसकी कुरूप वेश-भूषा देख कर सुदेव उसे ना पहचान पाया।
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तब नल ने उसे सारी कथा बताई और कहा कि दमयन्ती को ये कथा सुनाना।
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सुदेव विदर्भ लौट आया और दमयन्ती को वो कथा सुनाई। ये सुनकर दमयन्ती समझ गयी कि बाहुक ही उसके पति नल हैं।
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तब उसने सुदेव से पुनः अयोध्या जाने को कहा और कहा कि राजा को सूचित करें कि दमयन्ती का पुनः स्वयंवर हो रहा है।
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जब ऋतुपर्ण को इसकी खबर लगी तो वो दमयन्ती को पाने की आशा में बाहुक को सारथि बना कर विदर्भ पहुँचे।
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मार्ग में उन्होंने बाहुक रूपी नल को चौसर वशीकरण विद्या दी जिससे कलि उनके शरीर से निकल गया किन्तु उनका रूप नहीं बदला।
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जब ऋतुपर्ण विदर्भ पहुँचे तो उन्हें स्वयंवर जैसा कोई माहौल नहीं दिखा। उन्होंने राजा भीमक से कहा कि वे ऐसे ही भ्रमण के लिए आये हैं।
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दमयन्ती ने बाहुक के हाव-भाव से समझ लिया कि वही नल हैं। उसने पुनः वरमाला बाहुक रूपी नल के कंठ में डाल दी।
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इससे राजा ऋतुपर्ण आश्चर्यचकित रह गए। तब बाहुक ने उन्हें सत्य बताया। चूँकि कलि उन्हें छोड़ कर चला गया था, वे नागराज कर्कोटक के उन दिव्य वस्त्रों की सहायता से अपने वास्तविक रूप में आ गए।
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महाराज भीमक और ऋतुपर्ण ने दोनों को अनेकानेक उपहार और धन-संपत्ति दी।
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उसे लेकर राजा नल पुनः अपने भाई पुष्कर के पास पहुँचे और उसे द्युत की चुनौती दी।
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फिर उन्होंने पुष्कर का सारा धन और साम्राज्य जीत लिया किन्तु दमयन्ती के कहने पर उन्होंने केवल अपना भाग रख कर बांकी संपत्ति पुष्कर को लौटा दी।
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बाद में वे दोनों बहुत काल तक साथ सुख पूर्वक रहे।
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जय श्री राधेश्याम जी

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