मेरी प्रयास है कि मैं जिंदगी मे हमेशा सबकी "कमी" बनूँ , पर कभी किसी की "जरुरत" नहीं, क्यूंकि "जरुरते" तो हर कोई पूरी कर सकता हैं, पर किसी की "कमी" कोई पूरी नहीं कर सकता।
परिवार के पुरुष को दुख तब नहीं होता है जब वह मेहनत करके अपने घर को चलाने की कोशिश करता है। उस पुरुष को दर्द तो तब होता है,
जब उसे पता चलता है कि जिसके लिए वह दिन रात संघर्ष करके मेहनत कर रहा है वही लोग उसे दो कौड़ी के बराबर समझते हैं।
सच्चा सहभागी (पति के लिए पत्नी और पत्नी के पति) वही होता है जो अपने पार्टनर की बुराई तीसरे इंसान से ना करें,
अगर दूसरे ने गलती की भी है तो उसे अकेले में समझाएं क्योंकि तीसरा इंसान सबको बताया और फिर लोग उस दंपति के टूटते रिश्ते में घी डालकर हवन कर देते हैं।
ईश्वर न्यायकारी है। न्यायकारी का अर्थ होता है न्याय करने वाला। न्याय का अर्थ होता है, “कर्म करने पर ठीक-ठीक फल दिया जाए। यदि कोई व्यक्ति कर्म न करे, तो उसे फल न दिया जाए। यदि अच्छा कर्म करे, तो अच्छा फल दिया जाए। यदि बुरा कर्म करे, तो बुरा फल दिया जाए। जितना कर्म करे, उतना फल दिया जाए। जो व्यक्ति कर्म करे, उसी को फल दिया जाए, आदि आदि।” इस प्रकार के नियमों का पालन करने को ‘न्याय’ कहते हैं।
अब लोग इन नियमों को मोटा-मोटा जानते भी हैं, फिर भी वे इनका उल्लंघन करना चाहते हैं। और “बिना कर्म किए ही फल प्राप्त करना चाहते हैं। अथवा बुरे कर्म करके अर्थात दूसरों को दुख देकर सुखी होना चाहते हैं। ऐसा नहीं होगा, क्योंकि यह तो अन्याय है।”
संसार में तो न्याय और अन्याय दोनों चलते हैं। “यहां तो द्वेष आदि के कारण जो योग्य पात्र है, उसको प्रायः अवसर धन सम्मान सुविधा आदि नहीं दिया जाता। और जो वास्तव में योग्य पात्र नहीं है, उसको राग आदि दोषों के कारण अवसर धन सम्मान सुविधाएं आदि दे दी जाती हैं। यह अन्याय है। ऐसा अन्याय मनुष्यों की व्यवस्था में होता रहता है।” “ईश्वर के न्यायालय में तो सदा और पूरा-पूरा न्याय ही होता है।” “कम से कम ऊपर बताए ईश्वर के न्याय के नियमों को तो ध्यान में रखें। वहां कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलेगा अर्थात् बिना कर्म किए कुछ (सुख आदि) नहीं मिलेगा।”
“अब लोग सुख तो पाना चाहते हैं। परंतु सुख प्राप्त करने के लिए कर्म नहीं करना चाहते। अर्थात सुख देना नहीं चाहते।” यह तो न्याय नहीं है। ईश्वर के न्यायालय में तो ऐसा नहीं होगा।”
यदि आप सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो उसका अनिवार्य नियम है कि “दूसरों के लिए आप को सुख देना ही होगा, तभी आपको ईश्वर की न्याय व्यवस्था से सुख मिलेगा।” “और जो लोग झूठ छल कपट चालाकी बेईमानी धोखाधड़ी आदि से तात्कालिक रूप से थोड़ा बहुत धन सम्मान सुख सुविधा आदि प्राप्त कर भी लेते हैं, तो ऐसी सुविधाएं उन्हें सच्चा सुख नहीं देती। बल्कि ऐसे अन्यायपूर्ण कर्मों को करने से ईश्वर उनके मन में आत्मा में चिंता तनाव भय शंका लज्जा आदि स्थितियों को उत्पन्न कर देता है, जिससे कि वे लोग उन प्राप्त सुविधाओं का भी सुख नहीं ले पाते।”
इसलिए यह बुद्धिमत्ता नहीं है कि “पाप कर्म कर कर के दूसरे लोगों को दुख दिए जाएं।” बल्कि बुद्धिमत्ता इसी बात में है कि “आप ईश्वर के संविधान का पालन करें। ईमानदारी और बुद्धिमत्ता से मेहनत करें, दूसरों को सुख देवें। तभी सुख फल प्राप्त करने की आशा रखें। तभी आपको ईश्वर की न्याय व्यवस्था से सुख मिलेगा, अन्यथा नहीं।”
—– “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।”