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॥ श्रीहरिः ॥

       *भगवान्‌की सेवा*

जगत्में जो कुछ है, सब भगवान्‌की ही मूर्ति है, यह समझकर सबसे प्रेम करो, सबकी पूजा करो, अपना जीवन सबके लाभके लिये समर्पण कर दो।

भूलकर भी ऐसा काम न करो, जिससे सबमेंसे किसी एकका भी अहित हो, एकके भी कल्याणमें बाधा पहुँचे।

दीन-हीन, सरल, असहाय बच्चे माँको ज्यादा प्यारे हुआ करते हैं, भगवात्रूपी जगज्जननीको भी उसके गरीब बच्चे अधिक प्रिय हैं, इसलिये यदि तुम माताका प्यार पाना चाहते हो तो माताके उन प्यारे बच्चोंसे प्रेम करो, उन्हें सुख पहुँचाओ, माता आप ही प्रसन्न होकर अपना वरद हस्त तुम्हारे मस्तकपर रख देंगी, तुम सहज ही कृतार्थ हो जाओगे।

धरतीका धन ही धन नहीं है, सच्चा धन हृदयमें रहता है, उत्तम विचार और महान् चरित्र-बल ही परम धन है।

यह धन-ऐश्वर्य और सौन्दर्यका खजाना, एक टूटी झोंपड़ीमें रहनेवाले अन्न-वस्त्ररहित आडम्बर-शून्य हड्डियोंके ढाँचेके अंदर भी गड़ा मिल सकता है। राजमहलका राजवेष ही इसका निवासस्थान नहीं है; बल्कि उसमें तो यह धन भूले-भटके ही कहीं मिलता है।

– श्रद्धेय श्री हनुमानप्रसादजी पोद्दार (भाईजी)
–कल्याण कुंज भाग -१ गीताप्रेस गोरखपुर की पुस्तकसे साभार

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