ब्रह्माण्ड के चौदह भुवन, स्वर्ग और नर्क आदि अन्यान्य लोकों का वर्णन
भारतीय पौराणिक ग्रंथों में बहुत सारे अंश प्रक्षिप्त हैं। उन्हें बाद के समयों में अर्थलोलुप और परान्न्भोजी विद्वानों ने कुटिलता पूर्वक (कही-कहीं कथा के रूप में) अलग से लिखा है। इससे धर्म की महती हानि हुई है।
आधुनिक विद्वानों का ये कर्तव्य है कि वे धार्मिक ग्रंथों में आई उन विसंगतियों को दूर करें जिनसे भ्रम या भ्रान्ति की स्थिति बनती है। ज्ञान से ही श्रेष्ठता और विनम्रता आती है। धर्मान्ध आक्रमणकारियों ने मध्ययुग में अत्यधिक मात्रा में प्राचीन भारतीय ग्रंथों को अग्नि में भास्मिसात कर दिया जिनमे बहुमूल्य जाकारियां थी।
फिर भी तत्कालीन कुछ विद्वानों के अतुलनीय बलिदानों से कई सारे ग्रन्थ सुरक्षित रह गए जिनमे बौद्ध और जैन धर्म के ग्रन्थ भी थे। इन बौद्ध और जैन धर्मग्रंथों में वर्णित ब्रह्माण्ड की संरचना, विभिन्न लोकों, उन लोकों में रहने वाले प्राणियों और वहाँ के नियमों की जानकारियाँ सनातन धर्मग्रंथों से प्रेरित हैं।
उनका कहना है कि समस्त संसारी जीवों का अस्तित्व नारकी, देव, तिर्यक (पशु, पक्षी, कीड़े,) और मनुष्य इन भेदो में पाया जाता है । इन्हें ही चार गतियां कहते हैं। अर्थात संसारी जीवो का आवागमन सदा इन चार स्थानों में होता रहता है।
हर एक गति के जीवो की अपनी अलग़ अलग़ आयु होती है। जितनी जिसकी आयु होती है उतने ही काल तक वह उस गति में रहता है। तिर्यक और मनुष्य, कारण वश अपनी निर्धारित आयु से पहले भी मर जाते हैं जिसे अकाल मरण कहते हैं।
नर्क और देवगति में अकाल मरण नहीं होता। मरने के बाद वह जीव अपनी अच्छी बुरी करनी के फल से या तो उसी गति में जिसमे कि वह मरा है, फिर से जन्म लेता है या अन्यान्य गतियो में जन्म लेता है किंतु नर्क और देव गति के जीव लौट कर पुनः अपनी उसी गति में जन्म नहीं लेते हैं, यद्यपि अन्य गतियों में जाने के बाद जीव नर्क और देव गति को प्राप्त हो सकते हैं।
ब्रह्माण्डीय नियमों के अनुसार देव और नरक दोनों ही गति के जीव, प्रायः तिर्यक और मनुष्य गति में जन्म लेते हैं । देवों और नरक वासियों की सामान्यतः आयु 10,000 वर्ष (किन्तु यह गणना यहाँ के समय के सापेक्ष है) होती है।
किसी भी गति से मरे हुए जीव को अन्य लोक में जन्म लेने में पलक झपकने मात्र के समय से भी कम समय लगता है। मृत्यु के बाद शरीर में से निकल कर कोई जीव, जब लोकान्तर में जाता है तब रास्ते में उसका आकार पूर्व आकार की तरह रहता है। जब वह जन्मान्तर या अन्य लोक में जाकर दूसरा नया शरीर ग्रहण करता है तब उसका आकार नए शरीर की तरह हो जाता है।
जैन धर्म के शास्त्रों में लिखा है कि जब देवों और नरक के वासियों के वर्तमान जन्म की आयु के समाप्त होने में 6 मास का समय शेष रह जाता है तब उनके अगले जन्म की आयु का निर्माण होता है अर्थात उनके अगले जन्म की आयु (कर्म) का बंधन होता है और उस आयु-कर्म के फल से जितनी आयु उस ने बांधी है उतने समय तक उसे अगले जन्म (योनि) में रहना पड़ता है।
इसी तरह मनुष्य और तिर्यकों के अपने वर्तमान जन्म की आयु के तीन भागों में दो भागों के व्यतीत हो जाने के बाद तीसरे भाग में अगले जन्म की आयु का निर्धारण होता है।
लेकिन इन्हें यह पता नहीं लगता है कि इनकी आयु कितनी है और अगले जन्म की आयु-बंध के निर्धारित होने का कौन सा समय है? आयु बनने के समय उत्तम परिणाम होने से अगले जन्म में अच्छी गति मिलती है। इसलिए मनुष्यों को हमेशा ही अपना आचार विचार श्रेष्ठ रखना चाहिए। पता नहीं कब आयु-बंध (या अगले जन्म की आयु बनने) का समय आ जाए।
ऊपर वर्णित चार प्रकार की गतियों में से मनुष्य और तिर्यकों (पशु, पक्षी, कीड़े, मकौड़े) की गति को प्राप्त हुए जीव इसी प्रकार से जन्म-जन्मान्तर तक घूमते रहते हैं, जब तक की उनमे ‘ज्ञान’ का अभ्युदय ना हो।
अगर हम बात करें मानवेतर लोकों की तो विभिन्न प्रकार के उच्च और निम्न लोकों के भुवन हमारे सामने दृश्यमान होते हैं। सबसे पहले प्रारम्भ करते हैं निम्न लोकों से पृथ्वी (भू-लोक) से नीचे के लगभग सभी भुवनों (लोकों) में नर्क ‘भी’ होते हैं। नर्क का शाब्दिक अर्थ ‘नीचे’ होता है।
नर्क में प्रवेश करने का मतलब है ‘जीवात्मा की चेतना का अधोगमन’। निम्न लोकों में कालचक्र तेजी से घूमता है। हमारे यहाँ (मनुष्य लोक में) बिताया गया एक दिन वहाँ के पन्द्रह दिन से लेकर एक वर्ष तक के बराबर हो सकता है।
कुल सात प्रकार के नर्क हैं। नर्कों का जैसा वर्णन सनातन धर्म के ग्रंथों में है उसी से मिलता जुलता लेकिन विचित्र (और दिलचस्प) वर्णन जैन धर्म के ग्रंथों में भी है। जैन धर्मग्रंथों के अनुसार जिस पृथ्वी पर हम रहते है उसका नाम “रत्नप्रभा” है। उसके भीतर कई योजन तक के लम्बे चौड़े अनेक छिद्र हैं।
जमीन के ये छिद्र वास्तव में पूरे लोक हैं जिनमें नारकीय जीव (नर्क के प्राणी) रहते हैं। इस रत्नप्रभा पृथ्वी केनीचे के छिद्रों में जितने नारकीय जीव रहते हैं, वे प्रथम नर्क के प्राणी कहलाते हैं।
इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे (Time-Space Continuum में हमारी पृथ्वी के बाद जिसका क्रम आता है) का जो भुवन है उसका नाम अतल है। इस भुवन में जो पृथ्वी है, जैन धर्मग्रन्थ उसे ‘शर्कराप्रभा’ कहते है। शर्कराप्रभा पृथ्वी के भीतर भी, इसी तरह से कई योजनों तक फैले हुए छिद्र हैं जिनमे नारकीय प्राणी रहते हैं। लेकिन वे ‘दूसरे नर्क के प्राणी हैं’।
इसी प्रकार से अतल के नीचे (Time-Space Continuum के क्रम में) के पाँच भुवनों में क्रमशः पांच पृथ्वियां और हैं जिनके भीतर के छिद्रों में रहने वाले प्राणियों को क्रमशः ‘तीसरे से सातवें नर्क के प्राणी’ कहा जाता है। सनातन धर्म के ग्रंथों के अनुसार ब्रह्माण्ड के सबसे नीचे के भुवन, जिसमे सिर्फ ‘अर्धदैवीय’ प्राणी रहते हैं, को पाताल कहते हैं।
किसी एक नर्क का प्राणी दूसरे नर्क (यानी दूसरी पृथ्वी के नर्क) में प्रवेश नहीं कर सकता यहाँ तक की किसी एक ही नर्क के अलग-अलग छिद्रों में रहने वाले नारकीय प्राणी अपने ही नर्क में अपने छिद्र (या लोक) के सिवा किसी अन्य छिद्र में भी नहीं जा सकते हैं । ऐसा इस वजह से होता है कि इन नर्कगामी प्राणियों की चेतना इतनी पतित हो चुकी होती है कि उनके में इतनी क्षमता ही नहीं होती।
इन सब नारकीय प्राणियों की आयु ऊपर की अपेक्षा नीचे के नर्कों में अधिक है। उसका कारण है, (क्रम से) नीचे के भुवनों में कालचक्र का तेजी से घूमना। प्रत्येक तल (नीचे के भुवन) के प्रत्येक छिद्र में बहुत से नारकीय प्राणी रहते है और अक्सर वह एक दूसरे को मार-काट कर कष्ट देते रहते हैं ।
यहां आने के बाद अपनी पूरी आयु तक यहीं रहकर यहाँ के असहनीय कष्ट सहना पड़ता है। चाहे उनके शरीरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट भी दिया जाए, भयंकर अग्नि में पिघला भी दिया जाय तो भी वह अपनी आयु पूर्ण होने से पहले वहां से निकल नहीं सकते हैं। उनके कटे हुए शरीरों के टुकड़े, या पिघले हुए शरीर का द्रव पारे की तरह मिलकर फिर एक शरीर रूप में बन जाते हैं।
अधिकतर नर्कों में स्त्री और पुरुष जैसी व्यवस्था नहीं होती। वहाँ उनका जन्म उन छिद्रों की छत के अधोभाग में स्थित कुम्भी जैसे स्थान में होता है। प्रवेश के समय वह चमगादड़ों की तरह औंधे मुंह लटकते हुए जन्मते हैं और थोड़े ही समय में (शरीर के विकसित होते ही) नीचे जमीन पर गिरते हैं। जन्म लेने के बाद ही अपना मार काट का काम शुरू कर देते हैं।
सभी नारकीय प्राणियों का रूप बहुत भयंकर होता है। इन नारकियों में आपस की मारकाट का ही दुख नहीं होता, वहाँ अन्य भी भीषण और असहनीय कष्ट होते हैं। वहां कितने ही छिद्रों में ऐसी भयानक गर्मी पड़ती है कि उसमे गर्मी से लोहे का गोला भी गलकर पानी हो जाऐ।
कितने ही छिद्रों में ऐसी प्रचंड ठंड पड़ती है जिससे लौह-खंड भी खंड-खंड हो कर चूर हो जाय। प्यास तो उन प्राणियों को इतनी अधिक लगती है कि मानों सारे समुद्रों का पानी भी पी जाए, तब भी प्यास बुझे नहीं, लेकिन उनको एक बूँद भी जल मिलता नहीं है वहाँ।
भूख उनको इतनी प्रचंड लगती है कि सारे संसार का अनाज खा जाएं परंतु उन्हें अनाज का एक तिनका भी नहीं मिलता। वहां की भूमि का स्पर्श ही इतना दुखदाई है कि जैसे लगता है कि बिच्छू ने डंक मारा हो।
यह सब भयंकर कष्ट उन नारकीय प्राणियों को अपनी (वहाँ की) उम्र भर भोगने पड़ते हैं। वहां पल भर भी चैन नहीं, सुख नहीं है। अपने किये पापो का फल भोगने के लिए प्राणियों को इन नरको में जाना ही पड़ता है, इसका कोई विकल्प नहीं।
इसके विपरीत जो पुण्य आत्मायें होती हैं, वह देव लोक (उच्च लोकों) में जा कर सुख भोगती है। जिस मनुष्य लोक में हम रहते हैं वह ब्रह्माण्ड का मध्य स्थान कहलाता है। उससे नीचे अधो लोक हैं उनमे नर्क है।
मध्यस्थान यानी मनुष्य लोक से ऊपर ऊर्ध्व लोकों में देवों का निवास स्थान है। यहां देव किसी पृथ्वी पर नहीं रहते हैं (नीचे की भुवनों की भांति) वह सब वहाँ ‘विमानों’ में रहते हैं।
पृथ्वी वाले सिस्टम (यानी मनुष्य लोक) से ऊपर कुल सात प्रकार के उच्च लोक हैं जिनके नाम क्रम से- भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक, ब्रह्मलोक और सत्यलोक हैं। क्रमशः उत्तरोत्तर ऊर्ध्व लोकों में, अपने से निम्न ऊर्ध्व लोक की तुलना में उत्कृष्ट देव रहते है।
प्रत्येक ऊर्ध्व लोक में कई प्रकार के स्वर्ग हो सकते हैं। जैन धर्मग्रंथों के अनुसार स्वर्ग सोलह प्रकार के होते हैं। प्रत्येक स्वर्ग के दायरे में बहुत से विमान होते है इन सब विमानों के स्वामी उस स्वर्ग के इंद्र होते हैं।
यहाँ विमानों को केवल, आज के समय के उड़ने वाले हवाई जहाज नहीं समझना चाहिए। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में आये विमान दरअसल इससे बढ़कर कुछ ‘और’ थे। ये विमान देवताओं (या उच्च लोक के प्राणियों) के निवास स्थान थे जिनसे लोक-लोकान्तरों, अन्तर्तारकीय (Interstellar) और कभी-कभी अंतर्ब्रह्मांडीय (Inter-Universe) यात्राएं की जाती थी।
रामायण में वर्णित पुष्पक विमान वास्तव में रावण का राजमहल था जिसमे चौड़ी सड़कें, विभिन्न महल, सरोवर, वाटिकाएं और पर्वत भी थे। यह लंका के शीर्ष पर विराजमान था।
गति करने की स्थिति में पहले मन्त्र द्वारा इसके समस्त द्वार बंद किये जाते , फिर बाकी धरा से इसका सम्बन्ध विच्छेद होता। सम्बन्ध विच्छेद होते ही ब्रह्माण्डीय नियमों के अनुसार यह अपना विस्तार करता या अपने को संकुचित करता (जैसी आवश्यकता होती) और फिर समयान्तराल में गति करता।
इसी वजह से कहा जाता था कि चाहे जितने भी लोग पुष्पक विमान से यात्रा करें, उसमे कुछ रिक्त स्थान हमेशा आरक्षित रहता था, ऐसा उसकी विस्तार और संकुचन की योग्यता की वजह से था।
यहाँ समयान्तराल में गति करने से तात्पर्य काल-खण्ड में गति करने से है। काल-खंड में गति करने की क्षमता की वजह से यह निर्धारित गंतव्य तक पलक झपकते ही पहुँचता था। तो इस प्रकार से पुष्पक विमान एक प्रकार की टाइम मशीन था जो समय ‘में’ गति करता था। अधिक जिज्ञासु पाठकों को रामायण एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए।
भारत वर्ष में स्थित कुछ अतिप्राचीन मंदिर भी वस्तुतः विमान ही हैं लेकिन इन पर अभी शोध होना बचा है। ऊर्ध्व लोकों में स्थित उन सब विमानों के वासी यानी देवता वहाँ के इंद्र की आज्ञा में रहते है।
अलग अलग स्वर्ग के प्रायः अलग अलग इंद्र होते हैं और हर एक स्वर्ग में बहुत से विमान होते है। हर एक स्वर्ग मानो एक देश है (या एक लोक है) और उसमे स्थित अलग-अलग विमान उस देश में अलग अलग प्रदेश या नगर हैं, प्रत्येक विमान में अनेक वापिकायें, महल और उपवन होते है। विमान की लम्बाई और चौड़ाई काफी विस्तृत होती है।
उन देशो के अलग अलग अधिपति अलग अलग इंद्र कहलाते है। वहा के शासक इंद्र कहलाते है और प्रजा देव कहलाती है। इन इन्द्रादि देवो के शरीर लम्बे चौड़े और बहुत सुन्दर होते है। उनके शरीर में हाड़, मांस, रक्त, धातु, मज्जा, मल मूत्र, पसीना नहीं होता है।
उनका शरीर उच्च ऊर्जायुक्त कणों से मिलकर बना होता है। उनको निद्रा नहीं होती, कभी बुढ़ापा भी नहीं आता है, वो हमेशा युवा ही रहते हैं। उनको किसी प्रकार का रोग नहीं होता उनको भूख-प्यास नहीं सताती है सामान्यतः वे कुछ नहीं खाते हैं कभी अगर उन्हें कुछ खाने या पीने की इच्छा उत्पन्न होती है तो वो इच्छा मात्र से उनके सामने उपस्थित हो जाती है उससे वह तृप्त हो जाते हैं।
वहाँ सामान्यतः कोई शारीरिक दुःख नहीं होता है। इसी प्रकार की वहाँ अत्यंत रूपमयी सुन्दर देवियाँ होती है, जो देवताओं के साथ विभिन्न कौतुक और विहार करती हैं। देवताओं के सामान वे भी शक्तिशालिनी, सदा युवा रहने वाली और दिव्य होती हैं वो गर्भ धारण नहीं करती हैं।
देवो और देवियो की उत्पत्ति वहाँ किसी स्थान विशेष (जिसे उपपद-शय्या कहते है) – से होती है और आयु समाप्त होने के बाद इन्द्रादि देवताओं को भी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है।
मनुष्य की तुलना में चूंकि इन देवताओं की चेतना विकसित होती है (लेकिन भोग योनि होने से सामान्यतः वे लोग सांसारिक बंधनों को काटकर आवागमन के बंधन से मुक्त होने के लिए पुरुषार्थ नहीं कर पाते) इसलिए वे अन्यान्य लोकों में ना सिर्फ यात्रा कर लेते हैं बल्कि धरती आदि लोकों पर पुण्यात्माओं की सहायता भी करते हैं।
भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक विशुद्ध रूप से विभिन्न प्रकार के सुखोपभोग के स्वर्गलोक हैं। इन तीनों में भी महर्लोक उच्च कोटि का स्वर्गलोक है जिसके इन्द्रादि देवताओं का वर्णन पुराणों में भी आया है। इनके ऊपर उच्च कोटि के ‘ज्ञानी’ देवताओं का स्वर्गलोक, जनलोक और तपलोक है।
इन लोकों में वे मनुष्य पहुँचते हैं जिन्हें भौतिक या सांसारिक सुखों से वैराग्य उत्पन्न हो चुका होता है और उन्हें ईश्वर और उसकी सृष्टि के ही रहस्यों का अनुसन्धान करने में आनंद आता है। ज्ञान के प्रति जिज्ञासा, उत्कंठा और उनके पुण्य कर्म खींच लाते हैं उन्हें इन उच्च कोटि के स्वर्ग लोकों में।
जैन धर्मग्रंथों में इन्हें ‘अहमिन्द्रलोक’ कहा गया है। इन लोकों के देवताओं की क्षमतायें, महर्लोक आदि स्वर्गलोक के देवताओं की तुलना में काफी अधिक विकसित और विस्तृत होती हैं। यहाँ के देवता भी सदैव युवा, निरोगी, अतीव शक्तिशाली और चैतन्य रहते हैं।
यहाँ देविया नहीं होती है, अतः वे आजीवन ब्रह्मचारी ही रहते है। उनकी गणना अति उत्तम देवो में की जाती है। उनके अनेक विमान होते है उनमे राजा, प्रजा, आदि भेद नहीं होता है सभी इंद्र के समान हैं वहाँ इसी से वे “अहमिन्द्र” कहलाते है।
इन्हे भी समय पूरा होने पर अन्यान्य लोकों (ब्रह्मलोक या अन्य निम्न लोक) या योनियों में जाना पड़ता है (जैसी उनकी चेतना विकसित हुई हो) इन लोकों से ऊपर ब्रह्मलोक और सत्यलोक है।
सत्यलोक में वे ही जीव पहुँचते हैं जिनमे केवल ‘मै’ का भाव शेष रह जाता है वे एक स्वच्छंद और मुक्त की भाँती विचरते हैं इस पूरे ब्रह्माण्ड में दरअसल वो इस लोक में होते ही इसलिए हैं क्योंकि उनमे ‘मै’ शेष रह जाता है। इसका लोप होते वह इस अनित्य सृष्टि से अव्यक्त हो जाते हैं और परमात्मा के साथ एकत्व को प्राप्त होते हैं।
ऐसा नहीं है कि सत्यलोक के उस पार कुछ है ही नही लेकिन सत्यलोक की सीमा पर सभी दिशायें, आयाम, तत्व और तन्मात्राएँ, ‘महत्तत्व’ में विलीन होकर प्रकृति के साथ लय को प्राप्त होती है यहाँ तक की सृष्टि ‘अनित्य’ है इसके बाद ‘नित्य’ यानी परमधाम है वह सीमाओं से परे और गणनातीत है।
वहाँ अगर पहुंचना हो तो ऊपर जिनका उल्लेख हुआ है (दिशायें, आयाम, तत्व और तन्मात्राएँ) उनको भेदना होगा ये अपने शरीर में ही विद्यमान हैं। इनको भेदने से तात्पर्य इनको समझने से है ये स्वयं प्रकाशित हैं। आवश्यकता केवल अपनी चेतना को विकसित करने की है जो इन्हें समझ सके।
इसके बाद सबसे बड़ी बाधा महत्तत्व की है। ये महत्तत्व और कुछ नहीं बल्कि ‘मन’ ही है। यही ‘मै’ के होने की अनुभूति करता है। इसके भेदन की प्रक्रिया अत्यंत कठिन है बल्कि इसके लय की प्रक्रिया अपेक्षाकृत सरल है इसीलिए भक्ति मार्ग से मुक्ति सरल है, अपेक्षाकृत योग और ज्ञान के मार्ग से।
परमेश्वर द्वारा दिया गया एक ऐसा दिव्य वरदान है ‘प्रेम’, जिसकी निर्झरिणी जब बहती है तो बरबस मोह लेती है ‘उसको’ और व्यष्टि रुपी मन (मै) का समष्टि रुपी ब्रह्म में लय हो जाता है। यही समस्त लौकिक और अलौकिक ज्ञान का सार है जो केवल उन्ही को समझ में आ सकता है जिन्हें इसकी अनुभूति हुई हो।।