जिस प्रकार वर्षा ऋतु में संध्या समय वृक्षों की चोटी पर इधर-उधर अनेक जुगुनू (खद्योत) दिखायी देते हैं जो दीपको की भाँति टिमटिमाते हैं, किन्तु आकाश के ज्योतिष्क – सूर्य,चन्द्रमा,एवं तारे नहीं दिखायी पड़ते, उसी प्रकार कलियुग में नास्तिक या दुष्ट लोग सर्वत्र दिखायी देते हैं। किन्तु वास्तविक आध्यात्मिक उत्थान हेतु वैदिक नियमों का पालन करने वालों का अभाव हो जाता है।
कलियुग की तुलना जीवों की मेघाच्छादित ऋतु से की गयी है, इस युग में वास्तविक ज्ञान तो सभ्यता की भौतिक उन्नति के द्वारा आच्छादित रहता है , किन्तु शुष्क चिन्तक , नास्तिक एवं तथाकथित धर्म निर्माता जुगुनुओ की भाँति प्रगट होते रहते हैं , जबकि वैदिक नियमों या शाष्त्रों का पालन करने वाले व्यक्ति इस युग के बादलों से प्रच्छन्न हो जाते हैं, लोगों को आकाश के असली ज्योतिष्कों सूर्य,चन्द्र एवं नक्षत्रों से प्रकाश ग्रहण करना सीखना चाहिए , न कि जुगुनुओं से, वस्तुतः जुगुनू रात्रि के अंधकार में प्रकाश नहीं दे सकता। जिस प्रकार वर्षा ऋतु में कभी कभी सूर्य,चन्द्र तथा तारे दिखायी पड़ जाते है, उसी प्रकार कलियुग में भी यत्र तत्र भगवान के नामों का संकीर्तन करने वाले सच्चे भक्त दिखायी पड़ जाते हैं।
अतः जो वास्तविक प्रकाश की खोज मे हैं, उन्हें शुष्क चिन्तकों एवं नास्तिकों के प्रकाश की बाट न जोह कर नाम संकीर्तन यज्ञ का आश्रय लेना चाहिए—
“हरे कृष्ण,हरे कृष्ण,कृष्ण कृष्ण,हरे हरे।
हरे राम , हरे राम , राम राम , हरे हरे।।”
