आज पाँच जनवरी को गुरुदेव श्री श्री परमहंस योगानन्द जी महाराज का जन्मदिवस है।
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ॐ श्रीगुरवे नमः ….
“ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्
एकं नित्यं विमलंचलं सर्वधीसाक्षीभूतम्
भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि”
“गुरु” कोई देह नहीं हो सकती
उनकी देह तो एक वाहन है जिस पर वे यह लोकयात्रा करते हैं| देह का विग्रह तो एक प्रतीक मात्र है| देह तो समय के साथ नष्ट हो जाती है पर गुरु तो अमर हैं, वे परमात्मा के साथ एक हैं| वे सब प्रकार के आकार और देश-काल से परे हैं| जब तक वे देह पर आरूढ़ हैं तब तक तो वे देहरूप में हैं, पर वास्तव में वे देह नहीं, देहातीत हैं| जब तक उनसे पृथकता का बोध है तब तक तो उन की देह को ही गुरु मानना चाहिए पर जब कोई भेद नहीं रहे तब गुरु और शिष्य एक ही हैं| आध्यात्मिक दृष्टी से आत्म-तत्व ही गुरु है| गहराई से विचार करें तो गुरु, शिष्य और परमात्मा में कोई भेद नहीं है| सभी एक हैं|
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गुरु पूजा : …..
प्रतीकात्मक रूप से गुरु-पूजा उनकी चरण-पादुका की ही होती है, उनके विग्रह की नहीं| जो मेरे विचारों से असहमत हैं वे मुझे क्षमा करें, मेरे इस विचार के लिए कि गुरु के विग्रह की पूजा गलत है|
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गुरु का ध्यान : ….
जब तक कूटस्थ का बोध नहीं होता तब तक गुरु के विग्रह का ही ध्यान करना चाहिए| पर जब ज्योतिर्मय कूटस्थ ब्रह्म और कूटस्थ अक्षर का बोध हो जाए तब से कूटस्थ ही गुरु है| उसी की ज्योतिर्मय अनंतता का ध्यान करना चाहिए| कूटस्थ ब्रह्म ही गुरु हैं, वे ही शिष्य हैं, वे ही परमात्मा हैं, वे ही उपासक हैं, वे ही उपास्य हैं और वे ही उपासना हैं| सहस्त्रार ही गुरु के चरण हैं, व सहस्त्रार में स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय है| गुरु के ध्यान में गुरु महाराज एक विराट ज्योति का रूप ले लेते हैं, जिसकी अनंतता में समस्त ब्रह्मांड समा जाता है, जिस से परे अन्य कुछ भी नहीं है| कहीं पर भी कोई पृथकता नहीं होती| वे ही सब कुछ हैं, कोई अन्य नहीं है| उस अनन्यता से एकाकार होकर ही हम कह सकते हैं …
“एकोहम् द्वितीयो नास्ति”|
उस चेतना में ही कोई “शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि” का उद्घोष कर सकता है|
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गुरु को नमन : ….
गीता में अर्जुन ने जिन शब्दों में नमन किया उन्हीं शब्दों में गुरु महाराज को मैं नमन करता हूँ ….
“वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||”
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हे परात्पर गुरु महाराज, आप ही सम्पूर्ण अस्तित्व हो, आप ही यह सारी अनंतता, व अनन्यता हो| यह सम्पूर्ण समष्टि आपका ही घनीभूत रूप है और आप ही यह “मैं” हूँ| आप ही इन हवाओं में बह रहे हो, आप ही इन झोंकों में मुस्करा रहे हो, आप ही इन सितारों में चमक रहे हो, आप ही हम सब के विचारों में नृत्य कर रहे हो, आप ही यह समस्त जीवन हो| हे परमात्मा, हे गुरु रूप परब्रह्म परमशिव, आपकी जय हो|
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम|
तस्मात कारुण्य भावेन रक्षस्व परमेश्वरः||
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ॐ श्री गुरवे नमः
ॐ तत्सत्
ॐ ॐ ॐ