“कठिन समय में आदमी को प्रेम की जरूरत है,न कि सलाह की।”
हमारा अनुभव क्या है?हम अपने कठिन समय में सहयोग चाहते हैं या परामर्श?
एक सत्परामर्श भी होता है।ऐसा कोई अनुभवी ज्ञानी जो हमारे हृदय से जुड़कर सत्परामर्श देता है।
कृष्ण अर्जुन को सत्परामर्श दे रहे हैं,स्वयं तो जुडे हुए हैं ही परम सहयोग के रुप में।
अर्जुन कृष्ण पर निर्भर है। कृष्ण अर्जुन को स्वयं पर निर्भर होने के लिए कह रहे हैं।
एक तो है आत्मनिर्भरता, अपने होने पर, अपने अस्तित्व बोध पर निर्भर होना।
बीच में शरीर आता है।इसके लिए विपश्यना आदि साधनाएं हैं।अपनी सांसों को देखना, अपने शरीर पर घटने वाली संवेदनाओं को देखना।
इससे चित्त स्वमुखी होने लगता है बजात परमुखी होने के।
जो परमुखी है वह परमुखापेक्षी हो ही जाता है। दूसरे की अनुकूलता महत्वपूर्ण हो जाती है। स्वावलंबन के सारे लाभ खो जाते हैं।
एक मित्र पूछते हैं -स्थायी सुख-शांति के क्या उपाय हैं?
एक ही उपाय है-बाहर सुख-शांति खोजना,मांगना बंद करें।तब ध्यान भीतर आयेगा।
भीतरी शांति ही वास्तविक शांति है। बाहरी शांति धोखा है।
उसके लिए लोगों की अनुकूलता पर निर्भर होना पड़ता है। उनका भरोसा नहीं।वे कभी भी बदल जाते हैं।उनके अपने स्वार्थ हैं।
सिर्फ अपनी शांति, अपने अनुभव पर ही भरोसा किया जा सकता है।
शरीर की संवेदनाओं का अवलोकन करने के लिए शरीर पर निर्भर होना स्वाभाविक है।
भीतर अंत:करण भी है।
सीधे आत्मा में,स्व में स्थित होना इतना आसान तो नहीं है।
अंत:करण पर भी निर्भर होने की आवश्यकता उत्पन्न होती है अंतर्मुखी होने के प्रयास में।
और नहीं भी।
जैसा कि कहते हैं –
“आप एक शल्यचिकित्सक पर,एक डाक्टर पर निर्भर होते हैं। परंतु आंतरिक रुप से, मनोवैज्ञानिक रुप से स्पष्टतापूर्वक सोचने, अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया का अवलोकन करने के लिए निर्भर नहीं होना होता है यदि व्यक्ति पूरी तरह से स्वयं के लिए प्रकाश हो।
दूसरों पर निर्भर होना ऊर्जा नाशक है।”
अंत:करण को देखने पर अनेक नकारात्मक चीजें दिखाई पड सकती हैं, उनसे संघर्ष की संभावना भी होती है।
बाहर किसीसे संघर्ष हो तो समझा जा सकता है पर अपने अंत:करण से संघर्ष का क्या औचित्य है?
यह समझने की बात है फिर भी आदतवश संघर्ष हो सकता है। अभी राग-द्वेष की अधीनता बनी हुई है। इसलिए हम आदतन अपने किसी अनुभव को पसंद करते हैं,किसी अनुभव को नापसंद करते हैं।
क्या यह संभव है कि जब हमें कुछ अच्छा लगे तब शांत रहें,ठहरें, भोक्ता भाव से आक्रामक न हों?
कुंजी यही है।सुखद अनुभव में धैर्य रखना आसान भी है।
बात इतनी ही है कि बाहर कोई सुखद व्यक्ति -घटना-परिस्थिति आदि के रूप में कुछ भी नहीं देखना है।
बाहरी कारण अवास्तविक हैं, आंतरिक कारण वास्तविक हैं।
बाहरी कारण को वास्तविक मानने से बाहरी खेल शुरू हो जाता है,भीतर जो असली कारण है उससे ध्यान हट जाता है।
जब कोई साधक भीतर वास्तविक कारण को देखना शुरू करता है तब भ्रम से बार-बार उसे बाहरी कारण वास्तविक लग सकते हैं जो कि वास्तविक होते नहीं, वास्तविक अपने भीतर के कारण ही होते हैं।
यह समय कठिन होता है पर कठिनाई को एक चुनौती की तरह लेना चाहिए,न कि एक दुश्मन की तरह।
एक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ी को हरा देता है तो हारे हुए के लिए वह एक चुनौती की तरह है,एक शत्रु की तरह नहीं है।अगली बार वह बेहतर तैयारी करके आता है।
जहां तक प्रकृति को देखने की बात है तो शत्रुता का भाव रखना व्यर्थ ही है।एक आदमी भी कभी क्रोध करता है, कभी शांत हो जाता है, कभी द्वेष करता है, कभी प्रेम से बात करता है।दिन में कितने ही रंग आते और जाते हैं।
वह व्यक्ति स्वयं ऐसा नहीं करता,बदलती प्रकृति इस तरह अपना कार्य करती रहती है।
वह व्यक्ति कर्ता नहीं है।
यद्यपि वह खुद को कर्ता मान सकता है।
वह कर्ता है नहीं, अहंकार मूर्छा से मूर्छित होने के कारण उसे लगता है वह कर्ता है।
जैसे क्रोध आया यह प्रकृति का काम है,उस व्यक्ति का काम नहीं मगर अहंकार मूर्छा से उसे लगता है वह स्वयं क्रोध कर रहा है।
वह कर्ता बन जाता है और सारे झूठे बाहरी कारण खोज लेता है।
सम्मोहित व्यक्ति की तरह वह बाहर ही बाहर देखता रहता है,बिना यह जाने कि खुद उसके भीतर क्या चल रहा है,भीतर प्रकृति क्या खेल कर रही है?
स्वरुप से वह चेतन है।इस पर अहंकार रुपी मूर्छा छा जाती है।
अहंकार कोई चीज नहीं है प्रतिकूल या दुश्मन की हैसियत रखने वाली।
आदमी कल्पना में अहंकार को दुश्मन बनाकर उससे लड़ने लगता है जबकि वास्तव में ऐसी कोई चीज है ही नहीं।
अहंकार मूर्छा है जो चेतन को ढंक लेती है।
‘अहंकार’ शब्द का प्रयोग करने से ज्यादा अच्छा है ‘अहंकार मूर्छा’ शब्द का प्रयोग करना।
अहंकार कहने से ऐसा लगता है जैसे कोई हो जबकि अहंकार मूर्छा में कोई नहीं है सिवाय भ्रमपूर्ण स्थिति के।
मैं का भ्रम है।
उसे माया कहा –
‘मैं अरु मोर तोर तें माया। जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया।।’
इसलिए चेतन को चाहिए वह होश में रहे,होशपूर्वक सभी कार्य करे।
शरीर चल रहा है तो यह न सोचे कि ‘मैं चल रहा हूं ‘ अपितु होशपूर्वक देखे कि शरीर चल रहा है।
मन सोच रहा है तो यह न माने कि ‘मैं सोच रहा हूं ‘ इसकी जगह होश में रहकर देखे कि मन सोच रहा है।
इस तरह चित्त राग-द्वेष करे तो ऐसा न माने कि ‘मैं राग-द्वेष कर रहा हूं ‘ अपितु यह जाने कि चित्त राग-द्वेष कर रहा है।
स्वयं का राग-द्वेष, पसंद-नापसंद करना खतरनाक है।
गीता इसी से सावधान रहने के लिए कहती है।
फिर भी स्वयं(चेतन) इसमें खोता ही है,स्वयं को कर्ता मानता ही है, रागकर्ता,द्वेषकर्ता बन जाता है और उसके फल भी भोगता है।
जो स्वयं को कर्ता मानता है उसे भोक्ता होना ही पड़ता है।
चेतन सदा निर्दोष है।गलत मान्यता के सारे दुष्परिणाम है।
बात इतनी सी है सही मानें सही होगा।होश न खोयें।
जो होश में है,जो स्वयं को कर्ता नहीं जान रहा अपितु प्रकृति उसका कार्य कर रही है इसे जानता है वह भोगता नहीं।
ठीक है प्रकृति के तन मन को प्रकृति के अनुकूल प्रतिकूल अनुभव होते हैं।
यह भाषा जाननेवाले की न होगी। गर्मी में तन मन को गर्मी होती ही है, सर्दी में सर्दी होती ही है इसमें अनुकूल प्रतिकूल की क्या बात है?
इसलिए कहते हैं -सुखदुख हमारे हाथ में नहीं हैं,मगर सुखी दुखी होना हमारे हाथ में हैं।’
हम बेहोश हैं तो सुखी दुखी होंगे,होश में हैं तो स्वयं सुखी दुखी नहीं होंगे बल्कि प्रकृति में प्रकृति के प्रभावों को जानते रहेंगे।
शरीर,मन, बुद्धि चित्त अहंकार सब प्रकृति है।गुण गुणों में बरतते हैं।स्वयं उनको जाननेवाला द्रष्टा है जो स्वत: अपने मूलस्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
यह स्थिति होशपूर्ण है।
यदि स्वयं ही अहंकार मूर्छा से मूर्छित हुआ, मैं की माया से मोहित होकर अपने मूलस्वरूप को भूलकर मैं मैं करने लगा तो उसे भटकना ही है,सुखदुख झेलना ही है।
यह सब सत्संग है, सत्परामर्श है।
कोरी सलाह नहीं जिससे ज्यादा जरूरी सहयोग होता है किसी भी कठिन परिस्थिति में।
अर्जुन की कितनी हिम्मत बढ जाती है जब वह देखता है कि ऐसी कठिन परिस्थिति में स्वयं कृष्ण उसके साथ हैं।
यह बात और है कि कृष्ण उसे दूसरा कृष्ण बना देने के लिए ये सब गीतोपदेश कर रहे हैं।
अर्जुन स्वयं समझे और कल किसी दूसरे अर्जुन को इस ज्ञान की जरूरत पडे तो उसे समझा सके।यह सच्चा सहयोग है।यह स्थायी सहयोग है बाकी कोई किसीकी कठिनाई में उसे तात्कालिक सहयोग करदे तो वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है।
जो सत्य की समझ देगा ऐसा व्यक्ति कृष्ण का प्रिय कार्य करने वाला होगा ऐसा वे स्वयं कहते हैं श्रीमद्भगवद्गीता में। बल्कि यहां तक कहा है कि उससे बढ़कर प्रिय कार्य करने वाला कोई नहीं है,होगा भी नहीं।
“न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि।।”
स्वयं अध्ययन करने वाला भी कृतकृत्य हो सकता है –
‘अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति:।।”
।। जय सियाराम जी।।
।। ॐ नमः शिवाय।।