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” आज का श्रीमद् भागवत भाव “
= = = = = = = = ( 13 – 3 – 25)

  • हम सभी संसारी जीव और यह संसार विनाशी और अनित्य हैं , लेकिन हम अज्ञानवश इस अनित्य जगत व स्वयं को नित्य मान बैठे हैं ।
  • बृह्म सत्यं जगन्मिथ्या , जीवो बृह्म केवलम् ।
    इसी कारण हम दुःखी हैं । क्योंकि हम इस संसार के इन्हीं दुख रूप समस्त भोग – विषयों को सुख माने बैठे हैं , जबकि सुख है , अपने आत्मस्वरूप में । चूंकि हम आत्मसुख से वंचित हैं , इसी कारण आनंद से दूर हैं । शास्त्र कहते हैं कि आनंद तो बस एक ईश्वर भक्ति में ही है । क्योंकि एक वही नित्य हैं , अगर हम नित्यानंद चाहते हैं , तो विषयों से नहीं , वल्कि हमें भगवान से प्रेम करना चाहिए । भगवान से प्रेम , यानी भगवान की भक्ति । ध्यान रखें — भक्ति तभी भक्ति कहलाती है , जब वह चौबीसों घंटों हो , Part Time नहीं । कभी – कभी जो होती है , वह तो उपासना हुई । क्योंकि चौबीसों घंटों में से जब भी कभी भक्ति नहीं हो रही होती है , तब निश्चित मानिये , अभक्ति ही तो हो रही होगी । फिर वह अखंड भक्ति कहाँ हुई ? फिर तो वह भक्त आंशिक भक्त ही तो कहलाएगा । और यह भी सत्य है , कि आंशिक भक्त का हृदय द्रवित नहीं हो पाता , इसलिये तब तक तो यही समझना चाहिये , कि अभी कसरत ही चल रही है । सच्चे भक्त की परिभाषा स्वामी श्रीरामसुखदास जी महाराज बताते थे —
  • सततं कीर्त यन्तो मां , यतन् तश्च दृढ व्रताः ।
    नमस् यन्तश्च मां भक्त्या,नित्य युक्ता उपासते।। ( गीता 9/14 )
    ( प्रमाणिक भक्त जो कुछ भी करता है , वह सब भगवान का ही कीर्तन होता है , उसकी हर क्रिया भगवान की सेवा के लिए ही होती है । उसकी सम्पूर्ण लौकिक और पारमार्थिक क्रियाएं केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए होती हैं ) यानी भक्त और भगवान एक हो जाते हैं । उनमें न भेद रह जाता है , न दूरी ।
  • एक और एक मिलकर दो हुए, यह कहलाता है गणित । लेकिन एक और एक मिलकर एक ही रहे , यह कहलाता है प्रेम । सद्संत कहते हैं —- कि आनंद की परिभाषा है — अखंड , असीम और स्वाधीन सुख । तथा आनंद की अनुभूति अखंडता में ही संभव है । इसलिये हमारी आनंद की खोज कस्तूरी मृग के समान है । कस्तूरी कंद उसी मृग के अंदर है , लेकिन वह ढूंढ रहा है , बाहर । उसी तरह हम भी आनंद इस अनित्य संसार में , इस अनित्य शरीर के द्वारा क्षणिक विषय – भोगों में ढूँढ़ रहे हैं , जबकि आनंद हमारा स्वरूप है । आनंदकंद परमात्मा , आत्मा के रूप में हमारे ही अंदर विराजमान हैं ।
  • भैयाजी ! पत्थर में भगवान है , हमको यह समझाने में तो धर्म सफल हो गया है , लेकिन हम इंसानों में ही भगवान बैठा है , यह समझाने में धर्म को अभी तक बहुत अधिक सफलता नहीं मिली है । इसीलिये तो शास्त्रों की दृष्टि में हम मूर्ख हैं ।।
    उद्धवजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा — सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ? उत्तर में भगवान ने कालीदास का नाम नहीं लिया है , बल्कि कहा —–
  • मूर्खो देहाद् अहं बुद्धिः,पन्था मन्नि गमः स्मृतः।
    उत् पतिश् चित्त विक्षेपः ,स्वर्गः सत्व गुणोदयः।(11/19/42) जो यह सब जानते हुए भी , कि मेरे अंदर ही ‌ वह परमात्मा बैठा है , जिसके कि बल पर मैं चल रहा हूँ , फिर रहा हूँ , देख रहा हूँ , सुन रहा हूँ , सूँघ रहा हूँ , स्पर्श कर रहा हूँ , जान रहा हूँ , मान रहा हूँ , फिर भी अपने आपको , आत्मा न मानकर देह मानता है , और सांसारिक कर्मों में उलझा रहने के कारण , बार – बार गर्भों में लटक रहा है।
    (क्रमशः )
    ( भाई रामगोपालानन्द गोयल ” रोटीराम ” )
    ऋषिकेश 9412588877, 9118321832
    Mail – ramgopalgoyal11@gmail.com

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