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ईश्वर की उपासना के आठ अंग
इन के अनुष्ठान से अविद्यादि दोषों का क्षय और ज्ञान के प्रकाश की वृद्धि होने से जीव यथावत् मोक्ष को प्राप्त हो जाता है |
यम , नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि |
१) यम पांच होते हैं :–
अहिंसा वैर भाव छोड़कर सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करना और किसी को भी अपने व्यवहार से मानसिक अथवा शारीरिक दुख नहीं देना |
सत्य जैसे मन मे ज्ञान हो वैसा ही बाहर बोले और वैसा ही व्यावहार करे और वह कल्याणकारी हो ।
अस्तेय किसी के पदार्थ को उसकी आज्ञा के बिना न लेवे |
ब्रह्मचर्य विद्यार्थी सिर्फ विद्यार्जन में चित लगायें और गृहस्थ ऋतुगामी हो संयम के साथ सुखपूर्वक वर्ते । अति विषयवासना से दूर रहे ।
अपरिग्रह अभिमान, ईर्ष्या, कामक्रोध आदि दोषों से दूर रहे।
२) उपासना के पांच नियम हैं :–
शौच अर्थात् पवित्रता करनी चाहिए, एक भीतर की और
दूसरी बाहर की ।
भीतर की शुद्धि धर्माचरण, सत्यभाषण, विद्याभ्यास, सत्सङ्ग आदि शुभगुणों के आचरण से होती है, और बाहर की पवित्रता जल आदि से शरीर, स्थान, मार्ग, वस्त्र, खाना, पीना आदि शुद्ध करने से होती है।
सन्तोष सदा धर्मानुष्ठान से अत्यन्त पुरुषार्थ करके प्रसन्न रहना और दुःख में शोकातुर न होना ।
तपः जैसे अग्नि सोने को तपा के निर्मल कर देते हैं, वैसे ही आत्मा और मन को धर्माचरण और शुभगुणों के आचरणरूप तप से निर्मल कर देता है ।
स्वाध्याय अर्थात् वेद शास्त्र का पढ़ना पढ़ाना और ओङ्कार के विचार से ईश्वर का निश्चय करना और कराना |
ईश्वरप्रणिधानम् अर्थात् सब सामर्थ्य, सब गुण, प्राण, आत्मा और मन के प्रेमभाव से आत्मादि सत्य द्रव्यों का ईश्वर के लिए समर्पण करना ।
३) आसन अर्थात् जिस में सुखपूर्वक शरीर और आत्मा स्थिर हो, उस को आसन कहते हैं अथवा जैसी रुचि हो वैसा आसन करे |
जब आसन दृढ़ होता है, तब उपासना करने में कुछ परिश्रम करना नहीं पड़ता है और न सर्दी गर्मी अधिक बाधा करती है |
४) प्राणायाम जो वायु बाहर से भीतर को आता है, उसको श्वास और जो भीतर से बाहर जाता है, उस को प्रश्वास कहते हैं । उन दोनों के जाने आने को विचार से रोके। नासिका को हाथ से कभी न पकड़े किन्तु ज्ञान से ही उन के रोकने को प्राणायाम कहते हैं |
५) प्रत्याहार जब पुरुष अपने मन को जीत लेता है, तब इन्द्रियों का जीतना अपने आप हो जाता है क्योंकि मन ही इन्द्रियों का चलानेवाला है |
तब वह मनुष्य जितेन्द्रिय हो के जहां अपने मन को ठहराना व चलाना चाहे, उसी में ठहरा और चला सकता है । फिर उस को ज्ञान हो जाने से सदा सत्य में ही प्रीति हो जाती है, असत्य में कभी नहीं |
६) धारणा जब उपासनायोग के पूर्वोक्त पांचों अङ्ग सिद्ध हो जाते हैं, तब धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है । मन को चञ्चलता से छुड़ा के नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि स्थानों में स्थिर करके ओङ्कार का जप और उस का अर्थ, जो परमेश्वर है, उस का विचार करना ही धारणा कहलाता है |
७) ध्यान धारणा के पीछे उसी देश में ध्यान करने और आश्रय लेने के योग्य जो अन्तर्यामी व्यापक परमेश्वर है, उस के प्रकाश और आनन्द में, अत्यन्त विचार और प्रेम भक्ति के साथ इस प्रकार प्रवेश करना कि जैसे समुद्र के बीच में नदी प्रवेश करती है। उस समय में ईश्वर को छोड़ किसी अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना, किन्तु उसी अन्तर्यामी के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना। इसी का नाम ध्यान है।
८) समाधि परमेश्वर के ज्ञान में प्रकाशमय होके, अपने शरीर को भी भूले हुए के समान जान के आत्मा को परमेश्वर के प्रकाशस्वरूप आनन्द और ज्ञान से परिपूर्ण करने को समाधि कहते हैं। ध्यान और समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला, जिस मन से, जिस चीज का ध्यान करता है, वे तीनों विद्यमान रहते हैं। परन्तु समाधि में केवल परमेश्वर ही के आनन्दस्वरूप ज्ञान में आत्मा मग्न हो जाता है। वहां तीनों का भेदभाव नहीं रहता। जैसे मनुष्य जल में डुबकी मारके थोड़ा समय भीतर ही रुका रहता है, वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के बीच में मग्न हो के फिर बाहर को आ जाता है |
संयम जिस देश में धारणा की जाय, उसी में ध्यान और उसी में समाधि अर्थात् ध्यान करने के योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं। जो एक ही काल में तीनों का मेल होना है अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है, उन में बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है। परन्तु जब समाधि होती है, तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है |
जो लोग अधर्म के छोड़ने और धर्म के करने में दृढ़ तथा वेदादि सत्य विद्याओं में विद्वान् हैं, जो भिक्षाचर्य्य आदि कर्म करके संन्यास वा किसी अन्य आश्रम में हैं, इस प्रकार के गुणवाले मनुष्य प्राण द्वार से परमेश्वर के सत्य राज्य में प्रवेश करके सब दोषों से
छूट के परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जहां कि पूर्ण पुरुष, सब में भरपूर, सब से सूक्ष्म, अविनाशी और जिस में हानि लाभ कभी नहीं होता, ऐसे परमेश्वर को प्राप्त होके, सदा आनन्द में रहते हैं |
…….. (वैदिक विचार)