संगठन की आड़ में वसूली का संगठित कारोबार
पत्रकारिता के नाम पर धंधा, साख पर सुनियोजित हमला
आकाश बाबू जनपद औरैया
आज पत्रकारिता जिस सबसे बड़े संकट से जूझ रही है, वह बाहर से नहीं बल्कि भीतर से पनपा हुआ है। पत्रकारों के नाम पर बनाए गए कथित संगठनों की आड़ में अब वसूली का एक संगठित, सुनियोजित और बेलगाम कारोबार सक्रिय हो चुका है। यह ऐसा कारोबार है जिसने न सिर्फ पत्रकारिता की गरिमा को तार-तार किया है, बल्कि समाज की नजरों में सच्चे और ईमानदार पत्रकारों को भी संदेह के कटघरे में खड़ा कर दिया है।
इन संगठनों में ऐसे-ऐसे लोगों को जोड़ दिया गया है, जिनका पत्रकारिता से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं है। न कलम से रिश्ता, न ज़मीनी रिपोर्टिंग का अनुभव, न ही किसी समाचार संस्थान से कोई प्रमाणिक जुड़ाव। इसके बावजूद, इन्हें पत्रकार का तमगा थमा दिया जाता है। जब कहीं धौंस जमानी होती है, किसी कार्यालय पर दबाव बनाना होता है या किसी अधिकारी-कर्मचारी से अवैध लाभ लेना होता है, तब यही भीड़ एक साथ जुटकर “मीडिया” के नाम पर रौब झाड़ती दिखाई देती है।
स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि सड़कों पर खुलेआम “प्रेस” और “मीडिया” लिखी गाड़ियों में घूमते लोग दिखाई देते हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य खबर नहीं बल्कि सौदेबाज़ी होता है। ये तथाकथित क्षेत्रीय संगठन वास्तव में सिर्फ व्हाट्सएप ग्रुपों और सोशल मीडिया के सहारे सक्रिय हैं। कुछ प्रोफाइल फोटो, एक आईडी कार्ड और एक स्टिकर बस यही इनकी पत्रकारिता की पूरी पहचान बन चुकी है। इन्हीं माध्यमों के ज़रिए खुद को पत्रकार साबित करने का ढोंग रचा जाता है।
इन नकली संगठनों और फर्जी पत्रकारों के कारण समाज में पत्रकारों की छवि बुरी तरह धूमिल हो चुकी है। आमजन के मन में अब पत्रकारिता सम्मान का नहीं, बल्कि संदेह का विषय बनती जा रही है। नतीजा यह है कि जो पत्रकार वास्तव में निष्पक्ष, श्रमजीवी और ईमानदारी से काम कर रहे हैं, उनकी स्थिति दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही है। हालात ऐसे बन चुके हैं मानो सच्चे पत्रकार किसी विलुप्त होती प्रजाति में बदलते जा रहे हों।
शासन-प्रशासन की उदासीनता बनी सबसे बड़ी वजह
भ्रष्ट सिस्टम का संरक्षण, सच बोलने वालों पर हमला
पत्रकारों के अस्तित्व पर मंडराता खतरा केवल फर्जी संगठनों की देन नहीं है, बल्कि इसके पीछे शासन और प्रशासन की घोर उदासीनता भी एक प्रमुख कारण है। सिस्टम में बैठे कुछ भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारी स्वयं ऐसे दलाल किस्म के तत्वों को संरक्षण देते हैं, बल्कि कई मामलों में उन्हें सक्रिय रूप से आगे बढ़ाते हैं। उद्देश्य साफ है ताकि कोई उनके भ्रष्ट आचरण पर सवाल न उठा सके और डर का माहौल बना रहे।
यदि कोई ईमानदार पत्रकार इन कर्मचारियों की काली करतूतों पर कलम उठाने का साहस करता है, तो उसके खिलाफ तुरंत मोर्चाबंदी शुरू हो जाती है। पहले चरण में इन पालतू “कमाऊपूतों” को सोशल मीडिया पर छोड़ दिया जाता है, जो पत्रकार की पारिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत छवि को दागदार करने का अभियान चलाते हैं। अफवाहें फैलाई जाती हैं, चरित्रहनन किया जाता है, धमकियां दी जाती हैं।
यदि इसके बावजूद भी पत्रकार झुकने से इंकार कर दे, तो अगला कदम और भी खतरनाक होता है। इन्हीं दलालों के माध्यम से कोई तहरीर लिखवाई जाती है और उस पत्रकार के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया जाता है। कानून, जो न्याय का माध्यम होना चाहिए, वही कानून दबाव और प्रतिशोध का हथियार बना दिया जाता है।
इन हालातों में निष्पक्ष पत्रकारिता आम जनमानस से धीरे-धीरे दूर होती जा रही है। सच लिखने की कीमत अब इतनी भारी हो चुकी है कि कई ईमानदार पत्रकार या तो खामोश हो जाते हैं या इस पेशे को छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। सवाल यह है कि जब प्रहरी ही असुरक्षित होगा, तो लोकतंत्र की रखवाली कौन करेगा?
अब ज़रूरत है सख्त कार्रवाई की
जब तक फर्जी संगठनों की पहचान कर उन पर कठोर कार्रवाई नहीं होगी, जब तक पत्रकारिता के नाम पर चल रहे इस अवैध कारोबार पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक सच्ची पत्रकारिता दम तोड़ती रहेगी। यह केवल पत्रकारों की लड़ाई नहीं, बल्कि समाज और लोकतंत्र की लड़ाई है जिसे अब और नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।












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