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भगवत गीता – एक समग्र अध्ययन


आइये जीवन संग्राम में विजय के लिए गीता रूपी अमृत का पान करें


अध्याय छः श्लोक संख्या (30)


यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति,
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।
अर्थ:–


जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में, सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्याप्त देखता है, और सम्पूर्ण भूतों को, मुझ वासुदेव के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूँ, और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है– क्योंकि वह मेरे में एकी भाव से स्थित है।
English:–


He who sees me everywhere, and sees everything in me, he never gets separated from me, nor do i get separated from him.
विवेचना:–


भगवद्गीता का यह श्लोक योग साधकों के लिए सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शन है। भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो भी साधक या भक्त, सभी चर अचर प्राणियों में मुझ वासुदेव को ही देखता, अनुभव करता है वह सदैव, सर्वत्र मेरा ही दर्शन करता है, मैं उसके लिए कभी अदृश्य नहीं हूँ और न ही वह कभी मेरे लिए अदृश्य होता है।
आध्यात्मिक रहस्य:–


गणित में बहुत से प्रश्नों को हल करने के लिए, किसी वस्तु या संख्या का मान एक्स (x) मानना पड़ता है तब गणित का प्रश्न आसानी से हल हो जाता है।
ईश्वर दर्शन के लिए भी, उच्चस्तरीय योग साधना की अवस्था आत्म साक्षात्कार, या ब्रह्म दर्शन के प्रश्न को हल करने के लिए यह मानकर चलना होगा कि ‘ ईश्वर सर्वव्यापी है ‘।
जब दिल से यह मानकर, कि–
सियाराम मय सब जग जानी,
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।
आप सब से आत्मीय व्यवहार करने लगेंगे तो आपके लिए ये आत्म साक्षात्कार, ब्रह्मदर्शन सहज,सरल हो जायेगा।
यदि ऐसा किया तो यदि चोरी की तो राम से चोरी की, किसी को गाली दिया तो राम को गाली दिया, किसी से छल किया तो राम से छल किया। इसी तरह जन जन के लिए, पेड़,पौधे, पशु पक्षी सभी प्राणियों के प्रति जो भी सेवा,दया, करुणा, उदारता, आत्मीयता का व्यवहार आप करेंगे तो आप का वह व्यवहार राम के प्रति ही तो होगा।
इस तरह आप का मन, अंतःकरण निर्मल होता चला जायेगा और आप उस भूमिका में पहुँच जायेंगे जैसा कि भगवान श्री कृष्ण ने कहा है—
यो मां पश्यति सर्वत्र……….
और यह योग साधना, गणित के प्रश्न की तरह आसानी से हल हो जायेगी।ईश्वर तो निर्गुण, निराकार है, उसे हर रूप में, हर जगह, हर समय देखने और उसके प्रति सेवा, समर्पण के भाव को जगा लीजिये।इसी को अनन्य भक्ति कहा गया है।
हनुमान जी को भगवान श्री राम ने यही तो गुरुमंत्र दिया था—
समदर्शी मोहिं कह सब कोई,
सेवक प्रिय अनन्य गति सोई।
सो अनन्य जाकी असि मति न टरई हनुमंत,
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत।
अर्थात हे हनुमान लोग मुझे समदर्शी(सब को समान भाव से देखने वाला) कहते हैं, पर मुझे अनन्य भाव से भजने वाला (सेवा करने वाला) सेवक प्रिय है।
अनन्य भाव से सेवा करने वाला सेवक या भक्त वह है जो समस्त चर अचर सृष्टि के सभी प्राणियों में, कण कण में, व्याप्त परमात्म चेतना का स्वयं को सेवक मानता है, सभी प्राणियों की सेवा अर्थात कल्याण में सदैव लगा रहता है।
यही भगवान श्री कृष्ण के कथन का अभिप्राय है— सिया राम मय सब जग जानी।
जय श्री कृष्ण

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