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परीक्षा
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आचार्य द्रोण ने सोचा था कि इन सारे पांडवों और कौरवों में युधिष्ठिर सबसे ज्यादा बुद्धिमान मालूम होता है। लेकिन थोड़े दिनों के अनुभव से लगा कि वह तो बिलकुल बुद्धू है। दूसरे बच्चे तो आगे जाने लगे, नया-नया पाठ रोज सीखने लगे परन्तु युधिष्ठिर पहले पाठ पर ही रुका रहा। आखिर द्रोण की सीमा-क्षमता भी समाप्त हो गई। द्रोण ने पूछा, “तुम आगे बढ़ोगे कि पहले ही पाठ पर रुके रहोगे?”
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युधिष्ठिर ने कहा, “हे गुरुदेव !! जब तक पहला पाठ समझ में ना आ जाए, तब तक दूसरे पाठ पर जाने से सार भी क्या है?”
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पहला पाठ था सत्य के संबंध में। दूसरे बच्चों ने याद कर लिया, पढ़ लिया और आगे बढ़ गए। युधिष्ठिर ने कहा, “मैं जब तक सत्य बोलने ही ना लगूँ, तब तक दूसरे पाठ पर जाऊँ कैसे? और आप जल्दी मत करें।”
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तब द्रोण को समझ में आया। खुद युधिष्ठिर की इस मनोदशा को देख कर द्रोण को पहली दफा समझ में आया कि सत्य के आगे और पाठ हो भी क्या सकता है !!
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तब उन्होंने कहा, “तू जल्दी मत कर। तू पहला पाठ ही पूरा कर ले तो सब पाठ पूरे हो गए। फिर दूसरा पाठ और है ही कहाँ? यदि सत्य बोलना ही आ गया, सत्य होना आ गया, तो फिर और पाठ की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन यदि पाठ सिर्फ पढ़ने हों, तब एक बात है, पाठ अगर जीने हों, तो बिलकुल दूसरी बात है।”
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अंत में महाभारत में कथा है कि जब सारे भाई स्वर्गारोहण के लिए गए, तो एक-एक गिरने लगा, पिघलने लगा, गलने लगा। स्वर्ग के मार्ग पर धीरे-धीरे एक-एक गिरने लगा, द्वार तक सिर्फ युधिष्ठिर पहुँचे और उनका कुत्ता पहुँचा। सत्य पहुँचा और सत्य का जिसने गहरा सत्संग किया था, वह पहुँचा। वह कुत्ता था उनका। वह सदा उनके साथ रहा था। उसकी निष्ठा अपार थी। भाइयों की भी निष्ठा इतनी अपार ना थी। भाई भी रास्ते में गल गए, कुत्ता ना गला। उसकी श्रद्धा अनन्य थी। उसने कभी संदेह किया ही ना था। उसने युधिष्ठिर के इशारे को ही अपना जीवन समझा था। युधिष्ठिर भी चकित हुए कि भाइयों का भी साथ छूट गया, वे भी मार्ग पर गिर गए, स्वर्ग के द्वार तक नहीं आ सके। आ सका तो सिर्फ एक कुत्ता!
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द्वार खुला, युधिष्ठिर का स्वागत हुआ, लेकिन द्वारपाल ने कहा, “कृपया आप ही भीतर आ सकते हैं, कुत्ता नहीं आ सकेगा। कुत्ता कभी इसके पहले स्वर्ग में प्रवेश भी नहीं पाया। आदमी ही मुश्किल से पाते हैं।”
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युधिष्ठिर ने कहा, “फिर मैं भीतर ना आ सकूँगा। जिस कुत्ते ने मेरा इतनी दूर तक साथ दिया, जहाँ मेरे भाई भी मेरे साथी नहीं हो सके, संगी नहीं हो सके। जिसकी श्रद्धा ऐसी अनन्य है, जो मेरे साथ इतनी दूर आया, उसका साथ मैं नहीं छोड़ सकूँगा। अन्यथा मैं कुत्ते से भी गया-बीता हुआ। जिसने मेरा साथ दिया, उसका साथ मैं दूँगा, तुम द्वार बंद कर लो।”🌷
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तब सारा स्वर्ग प्रफुल्लित हो गया, अनेकानेक देवता एकत्रित हो गए और कहा, “आप भीतर आएं।”
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युधिष्ठिर ने ध्यान से देखा तो वह कुत्ता नहीं था, स्वयं चतुर्भुज भगवान श्रीविष्णु जी थे। वह घटना एक परीक्षा थी। वह परीक्षा थी, प्रेम की, श्रद्धा की और अनन्य भाव की।
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युधिष्ठिर ने एक ही पाठ सीखा सत्य। उतना काफी हुआ, स्वर्ग तक ले जा सका। अर्जुन को सीखने में बड़ी देर लगी। पूरी गीता कृष्ण ने कही, तो भी संदेह उठते चले गए। युधिष्ठिर ने सिर्फ एक पाठ सीखा जीवन में, वह छोटा सा पाठ था सत्य का। गुरु तक को शक हुआ कि यह थोड़ा मंद बुद्धि मालूम होता है, पहले ही पाठ पर अटका है। लेकिन फिर समझ में आया कि पहले पाठ के आगे और पाठ ही कहाँ हैं !! जिसने एक पाठ भी सीख लिया, उसने सब सीख लिया।
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🙏🙏 जय श्री राधेश्याम जी 🙏🙏

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