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मधु और कैटभ की कथा और भी रहस्यमय और प्रतीकात्मक है। यह केवल युद्ध की एक गाथा नहीं है, बल्कि यह सृष्टि के आरंभ, ब्रह्मांड की रचना, और अधर्म के अंत की एक अद्भुत कहानी है।

जब सृष्टि का आरंभ हुआ, चारों ओर केवल अनंत जल था। ब्रह्मा जी, जो भगवान विष्णु की नाभि से प्रकट हुए थे, वे सृष्टि रचना में व्यस्त थे। इसी बीच मधु और कैटभ नामक असुर उत्पन्न हुए, जो भगवान विष्णु के कान के मैल से जन्मे थे। वे असुर अपनी अद्भुत शक्ति और मायावी प्रकृति के कारण पूरे ब्रह्मांड को चुनौती देने लगे।

उन्होंने अपनी शक्ति का उपयोग कर वेदों को चुरा लिया और उन्हें आदिम महासागर के जल में छिपा दिया। वेद सृष्टि का आधार थे, और उनके बिना ब्रह्मा जी सृष्टि रचना करने में असमर्थ हो गए। वे घबराकर भगवान विष्णु की शरण में गए और उनसे सहायता मांगी।

भगवान विष्णु उस समय योगनिद्रा में लीन थे। ब्रह्मा जी की करुण पुकार सुनकर, योगमाया ने विष्णु को जागृत किया। भगवान विष्णु ने जैसे ही इस संकट को समझा, उन्होंने तुरंत अपने दिव्य रूप में महासागर के भीतर प्रवेश किया और मधु और कैटभ को चुनौती दी।

मधु और कैटभ अत्यंत अहंकारी थे। उन्होंने भगवान विष्णु को देखकर हँसते हुए कहा, “हमारा पराक्रम अमर है। हमसे कोई भी नहीं जीत सकता। यदि तुममें साहस है, तो आओ और हमें हराकर दिखाओ!”

यह युद्ध पांच हजार वर्षों तक चला। महासागर की लहरें इस महायुद्ध की तीव्रता से कांप उठीं। मधु और कैटभ अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए अपने शरीर को हजार योजन तक बढ़ा लेते, लेकिन भगवान विष्णु ने अपनी दिव्य माया से उनकी हर चाल को विफल कर दिया।

अंततः, भगवान विष्णु ने अपनी चतुराई का सहारा लिया। उन्होंने मधु और कैटभ से कहा, “तुम दोनों वास्तव में महान योद्धा हो। मैं तुम्हारे पराक्रम से प्रभावित हूँ। तुम्हारी इच्छानुसार, मैं तुम्हें वध करने के लिए केवल वहीं वार करूंगा, जहाँ तुम अनुमति दोगे।”

अपने अहंकार में चूर मधु और कैटभ ने कहा, “हम चाहते हैं कि हमारी मृत्यु केवल उस स्थान पर हो, जहाँ जल न हो।”

भगवान विष्णु मुस्कुराए। उन्होंने अपनी विशाल जांघों को पानी से ऊपर उठाकर ठोस भूमि का रूप दे दिया। जैसे ही मधु और कैटभ ने अपनी विशाल काया को और बड़ा किया, भगवान विष्णु ने अपनी जांघों पर उन्हें गिरा लिया। इसके बाद, अपने सुदर्शन चक्र का उपयोग करते हुए, उन्होंने दोनों असुरों के सिर काट दिए।

कहते हैं कि मधु और कैटभ के शरीर के टुकड़े बारह भागों में विभाजित होकर पृथ्वी पर फैल गए। इन्हें पृथ्वी की बारह भूकंपीय प्लेटों का प्रतीक माना जाता है।

इस महायुद्ध के बाद भगवान विष्णु को मधुसूदन (मधु का संहारक) और कैटभजित (कैटभ का विजेता) की उपाधियाँ मिलीं। यह कथा हमें सिखाती है कि अहंकार और अधर्म चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, उसका अंत निश्चित है, और भगवान विष्णु जैसे रक्षक सदा धर्म की स्थापना के लिए तत्पर रहते हैं।

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