अग्नियों द्वारा उपदेश
कमल का पुत्र उपकोसल सत्यकाम जाबाल के यहाँ ब्रह्मचर्य ग्रहण करके अध्ययन करता था। बाहर वर्षों तक उसने आचार्य एवं अग्नियों को उपासना की। आचार्य ने अन्य सभी ब्रह्मचारियों का समावर्तन-संस्कार कर दिया और उन्हें घर जाने की आज्ञा दे दी। केवल उपकोसल को ऐसा नहीं किया।
उपकोसल के मन में दुःख हुआ। गुरु पत्नी को उस पर दया आ गयी। उसने अपने पति से कहा- ‘इस ब्रह्मचारी ने बड़ी तपस्या की है, ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुए विद्याध्ययन किया है। साथ ही आपकी तथा अग्नियों की विधिपूर्वक सेवा की है।
अतएव कृपया इसको उपदेश देकर इसका भी समावर्तन कर दीजिए अन्यथा अग्नि आपको उलाहना देंगे। पर सत्यकाम ने बात अनुसनी कर दी और बिना कुछ कहे ही वे कहीं अन्यत्र यात्रा में चले गये।
उपकोसल को इससे बड़ा क्लेश हुआ। उसने अनशन आरम्भ किया। आचार्य पत्नी ने कहा- ‘ब्रह्मचारी ! तुम भोजन क्यों नहीं करते ?’ उसने कहा-‘माँ, मुझे बड़ा मानसिक क्लेश है, इसलिए भोजन नहीं करूँगा।’
अग्नियों ने सोचा- ‘इस तपस्वी ब्रह्मचारी ने मन लगाकर हमारी बहुत सेवा की है। अतएव उपदेश करके इसके मानसिक क्लेश को मिटा दिया जाय।’ ऐसा विचार करके उन्होंने उपकोसल को ब्रह्मविद्या का यथोचित उपदेश दे दिया। तदनन्तर कुछ दिनों बाद उसके आचार्य सत्यकाम यात्रा से
लौटे। इधर उपकोसल का मुखमण्डल ब्रह्मतेज से देदीप्यमान हो रहा था। आचार्य ने पूछा- ‘सौम्य ! तेरा मुख ब्रह्मवेत्ता जैसा दीख रहा है, बता, तुझे किसने ब्रह्म का उपदेश किया?’
उपकोसल ने बड़े संकोच से सारा समाचार सुनाया। इस पर आचार्य ने कहा- ‘यह सब उपदेश तो अलौकिक नहीं है। अब मुझसे उस अलौकिक ब्रह्मतत्त्व का उपदेश सुन, जिसे भली प्रकार जान लेने पर साक्षात् कर लेने पर पाप-ताप प्राणी को उसी प्रकार स्पर्श नहीं कर पाते, जैसे कमल के पत्ते को जल।’
इतना कहकर आचार्य ने उपकोसल को ब्रह्मतत्त्व का रहस्यमय उपदेश किया और समावर्तन-संस्कार करके उसे घर जाने की आज्ञा दे दी।