पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः।
न चैव तु पृथग्भावमधिकेन ततो विदुः।।63
एतदेवं च नैवं च न चोभे नानुभे न च।
स्वकर्मविषयं ब्रूयु: सत्त्वस्था: समदर्शिनः।।64
मनुष्य को मिलने वाला सुख दुःख लाभ हानि यश अपयश कीर्ति अपकीर्ति सफलता और असफलता उसके पौरुष अर्थात कर्म और दैव अर्थात भाग्य के संयोग से व्यवहारिक और स्वभावतः फलित होने के परिणाम स्वरूप होता है पौरुष (कर्म) और दैव(भाग्य) को कभी भी पृथक पृथक और न्यूनाधिक नही मानना चाहिए अर्थात न तो केवल कर्म और न ही केवल भाग्य फल प्राप्ति का साधन है सब कुछ पूर्व में और पूर्व के जन्मों में किये गये कर्म अकर्म धर्म अधर्म नीति अनीति न्याय अन्याय यश अपयश और पाप पुण्य के द्वारा अर्जित प्रारब्ध (संचित कर्म फल ) अनुसार पूर्व निर्धारित फल भोग के अनुसार विधि द्वारा निर्धारित भाग्य और तदनुसार दैव प्रेरित पौरुष (दैवीय प्रेरणा से कर्म करने का भाव ) के अनुसार अच्छे बुरे पाप और पुण्यमय कार्य और कर्म करने और तदनुसार कर्म करने में लिप्त होने का भाव और कर्म की सफलता और संपन्नता की मात्रा के अनुसार किसी भी मनुष्य को उसके द्वारा किए गए पौरुष अनुसार फल के परिमाण (मात्रा) और परिणाम की प्राप्ति होती है और उसके आधार पर ही दैव अर्थात ईश्वर मनुष्य या किसी भी जीव के भाग्य का सृजन करता है और पुनः इस जीवन पौरुष रूपी कर्म और भाग्य वर्तमान जीवन के लिए आचरण स्वभाव और कर्म के भाव का निर्धारण होता है।
श्रीब्रह्माण्डपुराण,पूर्वभाग
2-अनुषंगपाद,अध्याय-8
श्लोक-63,64
सादर नमस्कार
देवब्रत चतुर्वेदी-पन्ना(मप्र)
(पुनरावृत्ति)