महाकाली की उत्पत्ति कथा
श्रीमार्कण्डेय पुराण एवं श्रीदुर्गा सप्तशती के अनुसार काली मां की उत्पत्ति जगत
जननी मां अम्बा के ललाट से हुई थी।
कथा के अनुसार शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों के आतंक का प्रकोप इस कदर बढ़ चुका था कि
उन्होंने अपने बल,छल एवं महाबली असुरों द्वारा देवराज इन्द्र सहित अन्य समस्त
देवतागणों को निष्कासित कर स्वयं उनके स्थान पर आकर उन्हें प्राणरक्षा हेतु भटकने
के लिए छोड़ दिया।
दैत्यों द्वारा आतंकित देवों को ध्यान आया कि महिषासुर के इन्द्रपुरी पर अधिकार
कर लिया है,तब दुर्गा ने ही उनकी मदद की थी।
तब वे सभी दुर्गा का आह्वान करने लगे।
उनके इस प्रकार आह्वान से देवी प्रकट हुईं एवं शुम्भ-निशुम्भ के अति शक्तिशाली
असुर चंड तथा मुंड दोनों का एक घमासान युद्ध में नाश कर दिया।
चंड-मुंड के इस प्रकार मारे जाने एवं अपनी बहुत सारी सेना का संहार हो जाने पर
दैत्यराज शुम्भ ने अत्यधिक क्रोधित होकर अपनी संपूर्ण सेना को युद्ध में जाने की
आज्ञा दी तथा कहा कि आज छियासी उदायुद्ध नामक दैत्य सेनापति एवं कम्बु दैत्य
के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे युद्ध के लिए प्रस्थान करें।
कोटिवीर्य कुल के पचास,धौम्र कुल के सौ असुर सेनापति मेरे आदेश पर सेना एवं
कालक,दौर्हृद,मौर्य व कालकेय असुरों सहित युद्ध के लिए कूच करें।
अत्यंत क्रूर दुष्टाचारी असुर राज शुंभ अपने साथ सहस्र असुरों वाली महासेना लेकर
चल पड़ा।
उसकी भयानक दैत्यसेना को युद्धस्थल में आता देखकर देवी ने अपने धनुष से ऐसी
टंकार दी कि उसकी आवाज से आकाश व समस्त पृथ्वी गूंज उठी।
पहाड़ों में दरारें पड़ गईं।
देवी के सिंह ने भी दहाड़ना प्रारंभ किया,फिर जगदम्बिका ने घंटे के स्वर से उस आवाज
को दुगना बढ़ा दिया।
धनुष,सिंह एवं घंटे की ध्वनि से समस्त दिशाएं गूंज उठीं।
भयंकर नाद को सुनकर असुर सेना ने देवी के सिंह को और मां काली को चारों ओर
से घेर लिया।
तदनंतर असुरों के संहार एवं देवगणों के कष्ट निवारण हेतु परमपिता ब्रह्माजी,
विष्णु, महेश, कार्तिकेय, इन्द्रादि देवों की शक्तियों ने रूप धारण कर लिए एवं
समस्त देवों के शरीर से अनंत शक्तियां निकलकर अपने पराक्रम एवं बल के साथ
मां दुर्गा के पास पहुंचीं।
तत्पश्चात समस्त शक्तियों से घिरे शिवजी ने देवी जगदम्बा से कहा-
‘मेरी प्रसन्नता हेतु तुम इस समस्त दानव दलों का सर्वनाश करो।’
तब देवी जगदम्बा के शरीर से भयानक उग्र रूप धारण किए चंडिका देवी शक्ति रूप
में प्रकट हुईं।
उनके स्वर में सैकड़ों गीदड़ों की भांति आवाज आती थी।
असुरराज शुम्भ-निशुम्भ क्रोध से भर उठे।
वे देवी कात्यायनी की ओर युद्ध हेतु बढ़े।
अत्यंत क्रोध में चूर उन्होंने देवी पर बाण,शक्ति,शूल,फरसा,ऋषि आदि अस्त्रों-शस्त्रों
द्वारा प्रहार प्रारंभ किया।
देवी ने अपने धनुष से टंकार की एवं अपने बाणों द्वारा उनके समस्त अस्त्रों-शस्त्रों को
काट डाला,जो उनकी ओर बढ़ रहे थे।

मां काली फिर उनके आगे-आगे शत्रुओं को अपने शूलादि के प्रहार द्वारा विदीर्ण करती
हुई व खट्वांग से कुचलती हुईं समस्त युद्धभूमि में विचरने लगीं।
सभी राक्षसों चंड मुंडादि को मारने के बाद उसने रक्तबीज को भी मार दिया।
शक्ति का यह अवतार एक रक्तबीज नामक राक्षस को मारने के लिए हुआ था।
फिर शुम्भ-निशुंभ का वध करने के बाद बाद भी जब काली मां का गुस्सा शांत नहीं हुआ,
तब उनके गुस्से को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्ते में लेट गए और काली
मां का पैर उनके सीने पर पड़ गया।
शिव पर पैर रखते ही माता का क्रोध शांत होने लगा।
शवारुढा महाभीमां घोरद्रंष्टां हसन्मुखीम ।
चतुर्भुजां खडगमुण्डवराभय करां शिवाम।।
मुण्डमालाधरां देवीं ललजिह्वां दिगम्बराम।
एवं संचिन्तयेत कालीं श्मशानालयवासिनी
म ।।
अर्थात “महाकाली शव पर बैठी है,शरीर की आकृति डरावनी है,देवी के दांत तीखे और
महाभयावह है,ऎसे में महाभयानक रुप वाली,हंसती हुई मुद्रा में है.उनकी चार भुजाएं है.
एक हाथ में खडग,एक में वर,एक अभयमुद्रा मेम है,गले में मुण्डवाला है,जिह्वा बाहर
निकली है,वह सर्वथा नग्न है,वह श्मशान वासिनी हैं.श्मशान ही उनकी आवासभूमि है ।
उनकी उपासना में सम्प्रदायगत भेद हैं,श्मशानकाली की उपासना दीक्षागम्य है,
जो किसी अनुभवी गुरु से दीक्षा लेकर करनी चाहिए। देवी कि साधना दुर्लभ है।
!जय माँ आदिशक्ति काली माँ!
काली–सहस्रनाम स्तोत्रं
कालिका सहस्रनाम का पाठ करने की अनेक गुप्त विधियाँ हैं, जो विभिन्न कामनाओं के अनुसार पृथक पृथक हैं और गुरु-परम्परा प्राप्त हैं । इस चमत्कारी एवं स्वयंसिद्ध कालीका सहस्त्रनाम का पाठ सिर्फ रात्रि मे ही करना अनुकुल माना जाता है। क्युके रात्रि मे महाविद्याओ कि समस्त शक्तियाँ जाग्रत होती है और उन्हे साधक प्रसन्न करके मनचाहा वरदान प्राप्त कर सकता है। यहा एक गोपनीय विधान दे रहा हू,जो आसान है और फलदायी है। सर्वप्रथम लाल रंग के कपडे पर महाकाली जी का चित्र स्थापित करें। साधक स्वयं लाल वस्त्र धारण करे और लाल आसन का ही प्रयोग करे । हाथ मे किसी भी प्रकार का लाल पुष्प लेकर अपना कामना बोलकर पुष्प को मातारानी के चरणों मे समर्पित करें। रुद्राक्ष माला से “क्रीं कालिके स्वाहा” मंत्र का एक माला जाप सहस्त्रनाम पाठ से पुर्व और अंत मे करे तो शीघ्र सफलता प्राप्त होता है। जब भी यह साधना करना हो तो मंगलवार या शनिवार से प्रारंभ करें। दक्षिण दिशा मे मुख करके पढ़ने से समस्त प्रकार के लाभ प्राप्त होते है,पश्चिम दिशा मे मुख करके पढ़ने से दारिद्रता नष्ट हो जाती है,पुर्व दिशा मे मुख करके पढ़ने से वाचन सिद्धि प्राप्त होती है और उत्तर दिशा मे मुख करके पढ़ने से मातारानी के दर्शन करना सम्भव है।
विनियोग

ॐ अस्य श्री श्मशानकालिका सहस्त्रनाम स्तोत्रस्य महाकाल भैरव ऋषिस्त्रिष्टुप छन्दः श्मशानजाली देवता ,धर्मार्थ–काम–मोक्षार्थे ,अर्थ संतान सुख प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः|
[हाथ में जल लें और उपरोक्त विनियोग बोलकर उसे जमीन पर छोड़ दें ]
काली–सहस्रनाम
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श्मशान–कालिका काली भद्रकाली कपालिनी ।
गुह्य–काली महाकाली कुरु–कुल्ला विरोधिनी ।।१।।
कालिका काल–रात्रिश्च महा–काल–नितम्बिनी ।
काल–भैरव–भार्या च कुल–वर्त्म–प्रकाशिनी ।।२।।
कामदा कामिनी कन्या कमनीय–स्वरूपिणी ।
कस्तूरी–रस–लिप्ताङ्गी कुञ्जरेश्वर–गामिनी।।३।।
ककार–वर्ण–सर्वाङ्गी कामिनी काम–सुन्दरी ।
कामार्ता काम–रूपा च काम–धेनु: कलावती ।।४।।
कान्ता काम–स्वरूपा च कामाख्या कुल–कामिनी ।
कुलीना कुल–वत्यम्बा दुर्गा दुर्गति–नाशिनी ।।५।।
कौमारी कुलजा कृष्णा कृष्ण–देहा कृशोदरी ।
कृशाङ्गी कुलाशाङ्गी च क्रींकारी कमला कला ।।६।।
करालास्या कराली च कुल–कांतापराजिता ।
उग्रा उग्र–प्रभा दीप्ता विप्र–चित्ता महा–बला ।।७।।
नीला घना मेघ–नादा मात्रा मुद्रा मिताऽमिता ।
ब्राह्मी नारायणी भद्रा सुभद्रा भक्त–वत्सला ।।८।।
माहेश्वरी च चामुण्डा वाराही नारसिंहिका ।
वज्रांगी वज्र–कंकाली नृ–मुण्ड–स्रग्विणी शिवा ।।९।।
मालिनी नर–मुण्डाली–गलद्रक्त–विभूषणा ।
रक्त–चन्दन–सिक्ताङ्गी सिंदूरारुण–मस्तका ।।१०।।
घोर–रूपा घोर–दंष्ट्रा घोरा घोर–तरा शुभा ।
महा–दंष्ट्रा महा–माया सुदन्ती युग–दन्तुरा ।।११।।
सुलोचना विरूपाक्षी विशालाक्षी त्रिलोचना ।
शारदेन्दु–प्रसन्नस्या स्फुरत–स्मेताम्बुजेक्षणा ।।१२।।
अट्टहासा प्रफुल्लास्या स्मेर–वक्त्रा सुभाषिणी ।
प्रफुल्ल–पद्म–वदना स्मितास्या प्रिय–भाषिणी ।।१३।।
कोटराक्षी कुल–श्रेष्ठा महती बहु–भाषिणी ।
सुमति: कुमतिश्चण्डा चण्ड–मुण्डाति–वेगिनी ।।१४।।
प्रचण्डा चण्डिका चण्डी चर्चिका चण्ड–वेगिनी ।
सुकेशी मुक्त–केशी च दीर्घ–केशी महा–कचा ।।१५।।
प्रेत–देहा –कर्ण–पूरा प्रेत–पाणि–सुमेखला ।
प्रेतासना प्रिय–प्रेता प्रेत–भूमि–कृतालया ।।१६।।
श्मशान–वासिनी पुण्या पुण्यदा कुल–पण्डिता ।
पुण्यालया पुण्य–देहा पुण्य–श्लोका च पावनी ।।१७।।
पूता पवित्रा परमा परा पुण्य–विभूषणा ।
पुण्य–नाम्नी भीति–हरा वरदा खङ्ग–पाशिनी ।।१८।।
नृ–मुण्ड–हस्ता शस्त्रा च छिन्नमस्ता सुनासिका ।
दक्षिणा श्यामला श्यामा शांता पीनोन्नत–स्तनी ।।१९।।
दिगम्बरा घोर–रावा सृक्कान्ता–रक्त–वाहिनी ।
महा–रावा शिवा संज्ञा नि:संगा मदनातुरा ।।२०।।
मत्ता प्रमत्ता मदना सुधा–सिन्धु–निवासिनी ।
अति–मत्ता महा–मत्ता सर्वाकर्षण–कारिणी ।।२१।।
गीत–प्रिया वाद्य–रता प्रेत–नृत्य–परायणा ।
चतुर्भुजा दश–भुजा अष्टादश–भुजा तथा ।।२२।।
कात्यायनी जगन्माता जगती–परमेश्वरी ।
जगद्–बन्धुर्जगद्धात्री जगदानन्द–कारिणी ।।२३।।
जगज्जीव–मयी हेम–वती महामाया महा–लया ।
नाग–यज्ञोपवीताङ्गी नागिनी नाग–शायनी ।।२४।।
नाग–कन्या देव–कन्या गान्धारी किन्नरेश्वरी ।
मोह–रात्री महा–रात्री दरुणाभा सुरासुरी ।।२५।।
विद्या–धारी वसु–मती यक्षिणी योगिनी जरा ।
राक्षसी डाकिनी वेद–मयी वेद–विभूषणा ।।२६।।
श्रुति–र्स्मृतिर्महा–विद्या गुह्य–विद्या पुरातनी ।
चिंताऽचिंता स्वधा स्वाहा निद्रा तन्द्रा च पार्वती ।।२७।।
अर्पणा निश्चला लीला सर्व–विद्या–तपस्विनी ।
गङ्गा काशी शची सीता सती सत्य–परायणा ।।२८।।
नीति: सुनीति: सुरुचिस्तुष्टि: पुष्टिर्धृति: क्षमा ।
वाणी बुद्धिर्महा–लक्ष्मी लक्ष्मीर्नील–सरस्वती ।।२९।।
स्रोतस्वती स्रोत–वती मातङ्गी विजया जया ।
नदी सिन्धु:सर्व–मयी तारा शून्य निवासिनी ।।३०।।
शुद्धा तरंगिणी मेधा लाकिनी बहु–रूपिणी ।
सदानन्द–मयी सत्या सर्वानन्द–स्वरूपणि ।।३१।।
स्थूला सूक्ष्मा सूक्ष्म–तरा भगवत्यनुरूपिणी ।
परमार्थ–स्वरूपा च चिदानन्द–स्वरूपिणी ।।३२।।
सुनन्दा नन्दिनी स्तुत्या स्तवनीया स्वभाविनी ।
रंकिणी टंकिणी चित्रा विचित्रा चित्र–रूपिणी ।।३३।।
पद्मा पद्मालया पद्म–मुखी पद्म–विभूषणा ।
शाकिनी हाकिनी क्षान्ता राकिणी रुधिर–प्रिया ।।३४।।
भ्रान्तिर्भवानी रुद्राणी मृडानी शत्रु–मर्दिनी ।
उपेन्द्राणी महेशानी ज्योत्स्ना चन्द्र–स्वरूपिणी ।।३५।।
सुर्य्यात्मिका रुद्र–पत्नी रौद्री स्त्री प्रकृति: पुमान् ।
शक्ति: सूक्तिर्मति–मती भक्तिर्मुक्ति: पति–व्रता ।।३६।।
सर्वेश्वरी सर्व–माता सर्वाणी हर–वल्लभा ।
सर्वज्ञा सिद्धिदा सिद्धा भाव्या भव्या भयापहा ।।३७।।
कर्त्री हर्त्री पालयित्री शर्वरी तामसी दया ।
तमिस्रा यामिनीस्था च स्थिरा धीरा तपस्विनी ।।३८।।
चार्वङ्गी चंचला लोल–जिह्वा चारु–चरित्रिणी ।
त्रपा त्रपा–वती लज्जा निर्लज्जा ह्रीं रजोवती ।।३९।।
सत्व–वती धर्म–निष्ठा श्रेष्ठा निष्ठुर–वादिनी ।
गरिष्ठा दुष्ट–संहर्त्री विशिष्टा श्रेयसी घृणा ।।४०।।
भीमा भयानका भीमा–नादिनी भी: प्रभावती ।
वागीश्वरी श्रीर्यमुना यज्ञ–कर्त्री यजु:-प्रिया ।।४१।।
ऋक्–सामाथर्व–निलया रागिणी शोभन–स्वरा ।
कल–कण्ठी कम्बु–कण्ठी वेणु–वीणा–परायणा ।।४२।।
वंशिनी वैष्णवी स्वच्छा धात्री त्रि–जगदीश्वरी ।
मधुमती कुण्डलिनी शक्ति: ऋद्धि: सिद्धि: शुचि–स्मिता ।।४३।।
रम्भोर्वशी रती रामा रोहिणी रेवती रमा ।
शङ्खिनी चक्रिणी कृष्णा गदिनी पद्मनी तथा ।।४४।।
शूलिनी परिघास्त्रा च पाशिनी शार्न्ग–पाणिनी ।
पिनाक–धारिणी धूम्रा सुरभि वन–मालिनी ।।४५।।
रथिनी समर–प्रीता च वेगिनी रण–पण्डिता ।
जटिनी वज्रिणी नीला लावण्याम्बुधि–चन्द्रिका ।।४६।।
बलि–प्रिया महा–पूज्या पूर्णा दैत्येन्द्र–मन्थिनी ।
महिषासुर–संहन्त्री वासिनी रक्त–दन्तिका ।।४७।।
रक्तपा रुधिराक्ताङ्गी रक्त–खर्पर–हस्तिनी ।
रक्त–प्रिया माँस – रुधिरासवासक्त–मानसा ।।४८।।
गलच्छोणित–मुण्डालि–कण्ठ–माला–विभूषणा ।
शवासना चितान्त:स्था माहेशी वृष–वाहिनी ।।४९।।
व्याघ्र–त्वगम्बरा चीर–चेलिनी सिंह–वाहिनी ।
वाम–देवी महा–देवी गौरी सर्वज्ञ–भाविनी ।।५०।।
बालिका तरुणी वृद्धा वृद्ध–माता जरातुरा ।
सुभ्रुर्विलासिनी ब्रह्म–वादिनि ब्रह्माणी मही ।।५१।।
स्वप्नावती चित्र–लेखा लोपा–मुद्रा सुरेश्वरी ।
अमोघाऽरुन्धती तीक्ष्णा भोगवत्यनुवादिनी ।।५२।।
मन्दाकिनी मन्द–हासा ज्वालामुख्यसुरान्तका ।
मानदा मानिनी मान्या माननीया मदोद्धता ।।५३।।
मदिरा मदिरोन्मादा मेध्या नव्या प्रसादिनी ।
सुमध्यानन्त–गुणिनी सर्व–लोकोत्तमोत्तमा ।।५४।।
जयदा जित्वरा जेत्री जयश्रीर्जय–शालिनी ।
सुखदा शुभदा सत्या सभा–संक्षोभ–कारिणी ।।५५।।
शिव–दूती भूति–मती विभूतिर्भीषणानना ।
कौमारी कुलजा कुन्ती कुल–स्त्री कुल–पालिका ।।५६।।
कीर्तिर्यशस्विनी भूषां भूष्या भूत–पति–प्रिया ।
सगुणा–निर्गुणा धृष्ठा कला–काष्ठा प्रतिष्ठिता ।।५७।।
धनिष्ठा धनदा धन्या वसुधा स्व–प्रकाशिनी ।
उर्वी गुर्वी गुरु–श्रेष्ठा सगुणा त्रिगुणात्मिका ।।५८।।
महा–कुलीना निष्कामा सकामा काम–जीवना ।
काम–देव–कला रामाभिरामा शिव–नर्तकी ।।५९।।
चिन्तामणि: कल्पलता जाग्रती दीन–वत्सला ।
कार्तिकी कृत्तिका कृत्या अयोध्या विषमा समा ।।६०।।
सुमंत्रा मंत्रिणी घूर्णा ह्लादिनी क्लेश–नाशिनी ।
त्रैलोक्य–जननी हृष्टा निर्मांसा मनोरूपिणी ।।६१।।
तडाग–निम्न–जठरा शुष्क–मांसास्थि–मालिनी ।
अवन्ती मथुरा माया त्रैलोक्य–पावनीश्वरी ।।६२।।
व्यक्ताव्यक्तानेक–मूर्ति: शर्वरी भीम–नादिनी ।
क्षेमंकरी शंकरी च सर्व– सम्मोहन–कारिणी ।।६३।।
उर्ध्व–तेजस्विनी क्लिन्न महा–तेजस्विनी तथा ।
अद्वैत भोगिनी पूज्या युवती सर्व–मङ्गला ।।६४।।
सर्व–प्रियंकरी भोग्या धरणी पिशिताशना ।
भयंकरी पाप–हरा निष्कलंका वशंकरी ।।६५।।
आशा तृष्णा चन्द्र–कला निद्रिका वायु–वेगिनी ।
सहस्र–सूर्य संकाशा चन्द्र–कोटि–सम–प्रभा ।।६६।।
वह्नि–मण्डल–मध्यस्था च सर्व–तत्त्व–प्रतिष्ठिता ।
सर्वाचार–वती सर्व–देव – कन्याधिदेवता ।।६७।।
दक्ष–कन्या दक्ष–यज्ञ नाशिनी दुर्ग तारिणी ।
इज्या पूज्या विभीर्भूति: सत्कीर्तिर्ब्रह्म–रूपिणी ।।६८।।
रम्भीरुश्चतुरा राका जयन्ती करुणा कुहु: ।
मनस्विनी देव–माता यशस्या ब्रह्म–चारिणी ।।६९।।
ऋद्धिदा वृद्धिदा वृद्धि: सर्वाद्या सर्व–दायिनी ।
आधार–रूपिणी ध्येया मूलाधार–निवासिनी ।।७०।।
आज्ञा प्रज्ञा–पूर्ण–मनाश्चन्द्र–मुख्यानुकूलिनी ।
वावदूका निम्न–नाभि: सत्या सन्ध्या दृढ़–व्रता ।।७१।।
आन्वीक्षिकी दंड–नीतिस्त्रयी त्रि–दिव–सुन्दरी ।
ज्वलिनी ज्वालिनी शैल–तनया विन्ध्य–वासिनी ।।७२।।
अमेया खेचरी धैर्या तुरीया विमलातुरा ।
प्रगल्भा वारुणीच्छाया शशिनी विस्फुलिङ्गिनी ।।७३।।
भुक्ति सिद्धि सदा प्राप्ति: प्राकाम्या महिमाणिमा ।
इच्छा–सिद्धिर्विसिद्धा च वशित्वीर्ध्व–निवासिनी ।।७४।।
लघिमा चैव गायित्री सावित्री भुवनेश्वरी ।
मनोहरा चिता दिव्या देव्युदारा मनोरमा ।।७५।।
पिंगला कपिला जिह्वा–रसज्ञा रसिका रसा ।
सुषुम्नेडा भोगवती गान्धारी नरकान्तका ।।७६।।
पाञ्चाली रुक्मिणी राधाराध्या भीमाधिराधिका ।
अमृता तुलसी वृन्दा कैटभी कपटेश्वरी ।।७७।।
उग्र–चण्डेश्वरी वीर–जननी वीर–सुन्दरी ।
उग्र–तारा यशोदाख्या देवकी देव–मानिता ।।७८।।
निरन्जना चित्र–देवी क्रोधिनी कुल–दीपिका ।
कुल–वागीश्वरी वाणी मातृका द्राविणी द्रवा ।।७९।।
योगेश्वरी–महा–मारी भ्रामरी विन्दु–रूपिणी ।
दूती प्राणेश्वरी गुप्ता बहुला चामरी–प्रभा ।।८०।।………………………==
कुब्जिका ज्ञानिनी ज्येष्ठा भुशुंडी प्रकटा तिथि: ।
द्रविणी गोपिनी माया काम–बीजेश्वरी क्रिया ।।८१।।
शांभवी केकरा मेना मूषलास्त्रा तिलोत्तमा ।
अमेय–विक्रमा क्रूरा सम्पत्–शाला त्रिलोचना ।।८२।।
सुस्थी हव्य–वहा प्रीतिरुष्मा धूम्रार्चिरङ्गदा ।
तपिनी तापिनी विश्वा भोगदा धारिणी धरा ।।८३।।
त्रिखंडा बोधिनी वश्या सकला शब्द–रूपिणी ।
बीज–रूपा महा–मुद्रा योगिनी योनि–रूपिणी ।।८४।।
अनङ्ग – मदनानङ्ग – लेखनङ्ग – कुशेश्वरी ।
अनङ्ग–मालिनि–कामेशवरी देवि सर्वार्थ–साधिका ।।८५।।
सर्व–मन्त्र–मयी मोहिन्यरुणानङ्ग–मोहिनी ।
अनङ्ग–कुसुमानङ्ग–मेखलानङ्ग – रूपिणी ।।८६।।
वज्रेश्वरी च जयिनी सर्व–द्वन्द –क्षयंकरी ।
षडङ्ग–युवती योग–युक्ता ज्वालांशु–मालिनी ।।८७।।
दुराशया दुराधारा दुर्जया दुर्ग–रूपिणी ।
दुरन्ता दुष्कृति–हरा दुर्ध्येया दुरतिक्रमा ।।८८।।
हंसेश्वरी त्रिकोणस्था शाकम्भर्यनुकम्पिनी ।
त्रिकोण–निलया नित्या परमामृत–रञ्जिता ।।८९।।
महा–विद्येश्वरी श्वेता भेरुण्डा कुल–सुन्दरी ।
त्वरिता भक्त–संसक्ता भक्ति–वश्या सनातनी ।।९०।।
भक्तानन्द–मयी भक्ति–भाविका भक्ति–शंकरी ।
सर्व–सौन्दर्य–निलया सर्व–सौभाग्य–शालिनी ।।९१।।
सर्व–सौभाग्य–भवना सर्व सौख्य–निरूपिणी ।
कुमारी–पूजन–रता कुमारी–व्रत–चारिणी ।।९२।।
कुमारी–भक्ति–सुखिनी कुमारी–रूप–धारिणी ।
कुमारी–पूजक–प्रीता कुमारी प्रीतिदा प्रिया ।।९३।।
कुमारी–सेवकासंगा कुमारी–सेवकालया ।
आनन्द–भैरवी बाला भैरवी वटुक–भैरवी ।।९४।।
श्मशान–भैरवी काल–भैरवी पुर–भैरवी ।
महा–भैरव–पत्नी च परमानन्द–भैरवी ।।९५।।
सुधानन्द–भैरवी च उन्मादानन्द–भैरवी ।
मुक्तानन्द–भैरवी च तथा तरुण–भैरवी ।।९६।।
ज्ञानानन्द–भैरवी च अमृतानन्द–भैरवी ।
महा–भयंकरी तीव्रा तीव्र–वेगा तपस्विनी ।।९७।।
त्रिपुरा परमेशानी सुन्दरी पुर–सुन्दरी ।
त्रिपुरेशी पञ्च–दशी पञ्चमी पुर–वासिनी ।।९८।।
महा–सप्त–दशी चैव षोडशी त्रिपुरेश्वरी ।
महांकुश–स्वरूपा च महा–चक्रेश्वरी तथा ।।९९।।
नव–चक्रेश्वरी चक्रेश्वरी त्रिपुर–मालिनी ।
राज–राजेश्वरी धीरा महा–त्रिपुर–सुन्दरी ।।१००।।
सिन्दूर–पूर–रुचिरा श्रीमत्त्रिपुर–सुन्दरी ।
सर्वांग–सुन्दरी रक्ता रक्त–वस्त्रोत्तरीयिणी ।।१०१।।
जवा–यावक–सिन्दूर –रक्त–चन्दन–धारिणी ।
जवा-यावक-सिन्दूर -रक्त-चन्दन-रूप धृक ||१०२ ||
चामरी बाल–कुटिल–निर्मला–श्याम–केशिनी ।
वज्र–मौक्तिक–रत्नाढ्या–किरीट–मुकुटोज्ज्वला ।।१०३।।
रत्न–कुण्डल–संसक्त–स्फुरद्–गण्ड–मनोरमा ।
कुञ्जरेश्वर–कुम्भोत्थ–मुक्ता–रञ्जित–नासिका ।।१०४।।
मुक्ता–विद्रुम–माणिक्य–हाराढ्य–स्तन–मण्डला ।
सूर्य–कान्तेन्दु–कान्ताढ्य–स्पर्शाश्म–कण्ठ–भूषणा ।।१०५।।
वीजपूर–स्फुरद्–वीज –दन्त – पंक्तिरनुत्तमा ।
काम–कोदण्डकाभुग्न–भ्रू–कटाक्ष–प्रवर्षिणी ।।१०६।।
मातंग–कुम्भ–वक्षोजा लसत्कोक–नदेक्षणा ।
मनोज्ञ–शष्कुली–कर्णा हंसी–गति–विडम्बिनी ।।१०७।।
पद्म–रागांगद–ज्योतिर्दोश्चतुष्क–प्रकाशिनी ।
नाना–मणि–परिस्फूर्जच्दृद्ध–कांचन–कंकणा ।।१०८।।
नागेन्द्र–दन्त–निर्माण–वलयांचित–पाणिनी ।
अंगुरीयक–चित्रांगी विचित्र–क्षुद्र–घण्टिका ।।१०९।।
पट्टाम्बर–परीधाना कल–मञ्जीर–शिंजिनी ।
कर्पूरागरु–कस्तूरी–कुंकुम–द्रव–लेपिता ।।११०।।
विचित्र–रत्न–पृथिवी–कल्प–शाखि–तल–स्थिता ।
रत्न–द्वीप–स्फुरद–रक्त–सिंहासन–विलासिनी ।।१११।।
षट्–चक्र–भेदन–करी परमानन्द–रूपिणी ।
सहस्र–दल – पद्यान्तश्चन्द्र – मण्डल–वर्तिनी ।।११२।।
ब्रह्म–रूप–शिव–क्रोड–नाना–सुख–विलासिनी ।
हर–विष्णु–विरिंचिन्द्र–ग्रह – नायक–सेविता ।।११३।।
शिवा शैवा च रुद्राणी तथैव शिव–वादिनी ।
मातंगिनी श्रीमती च तथैवानन्द–मेखला ।।११४।।
डाकिनी योगिनी चैव तथोपयोगिनी मता ।
माहेश्वरी वैष्णवी च भ्रामरी शिव–रूपिणी ।।११५।।
अलम्बुषा वेग–वती क्रोध–रूपा सु–मेखला ।
गान्धारी हस्ति–जिह्वा च इडा चैव शुभंकरी ।।११६।।
पिंगला ब्रह्म–सूत्री च सुषुम्णा चैव गन्धिनी ।
आत्म–योनिब्र्रह्म–योनिर्जगद–योनिरयोनिजा ।।११७।।
भग–रूपा भग–स्थात्री भगनी भग–रूपिणी ।
भगात्मिका भगाधार–रूपिणी भग–मालिनी ।।११८।।
लिंगाख्या चैव लिंगेशी त्रिपुरा–भैरवी तथा ।
लिंग–गीति: सुगीतिश्च लिंगस्था लिंग–रूप–धृक ।।११९।।
लिंग–माना लिंग–भवा लिंग–लिंगा च पार्वती ।
भगवती कौशिकी च प्रेमा चैव प्रियंवदा ।।१२०।।
गृध्र–रूपा शिवा–रूपा चक्रिणी चक्र–रूप–धृक ।
लिंगाभिधायिनी लिंग–प्रिया लिंग–निवासिनी ।।१२१।।
लिंगस्था लिंगनी लिंग–रूपिणी लिंग–सुन्दरी ।
लिंग–गीतिमहा–प्रीता भग–गीतिर्महा–सुखा ।।१२२।।
लिंग–नाम–सदानंदा भग–नाम सदा–रति: ।
लिंग–माला–कंठ–भूषा भग–माला–विभूषणा ।।१२३।।
भग–लिंगामृत–प्रीता भग–लिंगामृतात्मिका ।
भग–लिंगार्चन–प्रीता भग–लिंग–स्वरूपिणी ।।१२४।।
भग–लिंग–स्वरूपा च भग–लिंग–सुखावहा ।
स्वयम्भू–कुसुम–प्रीता स्वयम्भू–कुसुमार्चिता ।।१२५।।
स्वयम्भू–पुष्प–प्राणा स्वयम्भू–कुसुमोत्थिता ।
स्वयम्भू–कुसुम–स्नाता स्वयम्भू–पुष्प–तर्पिता ।।१२६।।
स्वयम्भू–पुष्प–घटिता स्वयम्भू–पुष्प–धारिणी ।
स्वयम्भू–पुष्प–तिलका स्वयम्भू–पुष्प–चर्चिता ।।१२७।।
स्वयम्भू–पुष्प–निरता स्वयम्भू–कुसुम–ग्रहा ।
स्वयम्भू–पुष्प–यज्ञांगा स्वयम्भूकुसुमात्मिका ।।१२८।।
स्वयम्भू–पुष्प–निचिता स्वयम्भू–कुसुम–प्रिया ।
स्वयम्भू–कुसुमादान–लालसोन्मत्त – मानसा ।।१२९।।
स्वयम्भू–कुसुमानन्द–लहरी–स्निग्ध देहिनी ।
स्वयम्भू–कुसुमाधारा स्वयम्भू–कुसुमा–कला ।।१३०।।
स्वयम्भू–पुष्प–निलया स्वयम्भू–पुष्प–वासिनी ।
स्वयम्भू–कुसुम–स्निग्धा स्वयम्भू–कुसुमात्मिका ।।१३१।।
स्वयम्भू–पुष्प–कारिणी स्वयम्भू–पुष्प–पाणिका ।
स्वयम्भू–कुसुम–ध्याना स्वयम्भू–कुसुम–प्रभा ।।१३२।।
स्वयम्भू–कुसुम–ज्ञाना स्वयम्भू–पुष्प–भोगिनी ।
स्वयम्भू–कुसुमोल्लासा स्वयम्भू–पुष्प–वर्षिणी ।।१३३।।
स्वयम्भू–कुसुमोत्साहा स्वयम्भू–पुष्प–रूपिणी ।
स्वयम्भू–कुसुमोन्मादा स्वयम्भू पुष्प–सुन्दरी ।।१३४।।
स्वयम्भू–कुसुमाराध्या स्वयम्भू–कुसुमोद्भवा ।
स्वयम्भू–कुसुम–व्यग्रा स्वयम्भू–पुष्प–पूर्णिता ।।१३५।।
स्वयम्भू–पूजक–प्रज्ञा स्वयम्भू–होतृ–मातृका ।
स्वयम्भू–दातृ–रक्षित्री स्वयम्भू–रक्त–तारिका ।।१३६।।
स्वयम्भू–पूजक–ग्रस्ता स्वयम्भू–पूजक–प्रिया ।
स्वयम्भू–वन्दकाधारा स्वयम्भू–निन्दकान्तका ।।१३७।।
स्वयम्भू–प्रद–सर्वस्वा स्वयम्भू–प्रद–पुत्रिणी ।
स्वम्भू–प्रद–सस्मेरा स्वयम्भू–प्रद–शरीरिणी ।।१३८।।
सर्व–कालोद्भव–प्रीता सर्व–कालोद्भवात्मिका ।
सर्व–कालोद्भवोद्भावा सर्व–कालोद्भवोद्भवा ।।१३९।।
कुण्ड–पुष्प–सदा–प्रीतिर्गोल–पुष्प–सदा–रति: ।
कुण्ड–गोलोद्भव–प्राणा कुण्ड–गोलोद्भवात्मिका ।।१४०।।
स्वयम्भुवा शिवा धात्री पावनी लोक–पावनी ।
कीर्तिर्यशस्विनी मेधा विमेधा शुक्र–सुन्दरी ।।१४१।।
अश्विनी कृत्तिका पुष्या तैजस्का चन्द्र–मण्डला ।
सूक्ष्माऽसूक्ष्मा वलाका च वरदा भय–नाशिनी ।।१४२।।
वरदाऽभयदा चैव मुक्ति–बन्ध–विनाशिनी ।
कामुका कामदा कान्ता कामाख्या कुल–सुन्दरी ।।१४३।।
दुःखदा सुखदा मोक्षा मोक्षदार्थ–प्रकाशिनी ।
दुष्टादुष्ट–मतिश्चैव सर्व–कार्य–विनाशिनी ।।१४४।।
शुक्राधारा शुक्र–रूपा–शुक्र–सिन्धु–निवासिनी ।
शुक्रालया शुक्र–भोग्या शुक्र–पूजा–सदा–रति:।।१४५।।
शुक्र–पूज्या–शुक्र–होमा–सन्तुष्टा शुक्र–वत्सला ।
शुक्र–मूर्ति: शुक्र–देहा शुक्र–पूजक–पुत्रिणी ।।१४६।।
शुक्रस्था शुक्रिणी शुक्र–संस्पृहा शुक्र–सुन्दरी ।
शुक्र–स्नाता शुक्र–करी शुक्र–सेव्याति–शुक्रिणी ।।१४७।।
महा–शुक्रा शुक्र–भवा शुक्र–वृष्टि–विधायिनी ।
शुक्राभिधेया शुक्रार्हा शुक्र–वन्दक–वन्दिता ।।१४८।।
शुक्रानन्द–करी शुक्र–सदानन्दाभिधायिका ।
शुक्रोत्सवा सदा–शुक्र–पूर्णा शुक्र–मनोरमा ।।१४९।।
शुक्र–पूजक–सर्वस्वा शुक्र–निन्दक–नाशिनी ।
शुक्रात्मिका शुक्र–सम्पत् शुक्राकर्षण–कारिणी ।।१५०।।
शारदा साधक–प्राणा साधकासक्त–मानसा ।
साधकोत्तम सर्वस्वा साधकाअभक्त रक्तपा ||१५१||
साधकानन्द–सन्तोषा साधकानन्द–कारिणी ।
आत्म–विद्या ब्रह्म–विद्या पर ब्रह्म स्वरूपिणी ||१५२||
त्रिकूटस्था पञ्चकूटा सर्व–कूट–शरीरिणी ||
सर्व–वर्ण–मयी देवी जप–माला–विधायिनी ।।१५३||
इसके बाद भूमि पर जल छोडकर, छोड़े हुये जल को तीन बार अपने हाथ से स्पर्श करके तीन बार अपने सर से लगा लें।
काली सहस्त्रनाम का जप करने से सभी दुष्ट ग्रहों का स्तंभन होकर कुप्रभाव नष्ट हो जाता है। सभी प्रकार के भूत,प्रेत, आत्मा, चांडाल, पिशाच, काला जादू का प्रभाव नष्ट हो जाता है। सभी कामनाओं की सिद्धि होती है एवं सभी शत्रु स्वतः ही परास्त हो जाते हैं।
क्यों आये भगवानशिव महाकाली के पैरों के नीचे?
भगवती दुर्गा की दस महाविद्याओं में से एक हैं महाकाली। जिनके काले और डरावने रूप की उत्पति राक्षसों का नाश करने के लिए हुई थी। यह एक मात्र ऐसी शक्ति हैं जिन से स्वयं काल भी भय खाता है।
उनका क्रोध इतना विकराल रूप ले लेता है की संपूर्ण संसार की शक्तियां मिल कर भी उनके गुस्से पर काबू नहीं पा सकती। उनके इस क्रोध को रोकने के लिए स्वयं उनके पति भगवान शंकर उनके चरणों में आ कर लेट गए थे। इस संबंध में शास्त्रों में एक कथा वर्णित हैं जो इस प्रकार है-
दैत्य रक्तबिज ने कठोर तप के बल पर वर पाया था की अगर उसके खून की एक बूंद भी धरती पर गिरेगी तो उस से अनेक दैत्य पैदा हो जाएंगे। उसने अपनी शक्तियों का प्रयोग निर्दोष लोगों पर करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे उसने अपना आतंक तीनों लोकों पर मचा दिया।
देवताओं ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। भयंकर युद्ध का आगाज हुआ। देवता अपनी पूरी शक्ति लगाकर रक्तबिज का नाश करने को तत्पर थे मगर जैसे ही उसके शरीर की एक भी बूंद खून धरती पर गिरती उस एक बूंद से अनेक रक्तबीज पैदा हो जाते।
सभी देवता मिल कर महाकाली की शरण में गए। मां काली असल में सुन्दरी रूप भगवती दुर्गा का काला और डरावना रूप हैं, जिनकी उत्पत्ति राक्षसों को मारने के लिए ही हुई थी।
महाकाली ने देवताओं की रक्षा के लिए विकराल रूप धारण कर युद्ध भूमी में प्रवेश किया। मां काली की प्रतिमा देखें तो देखा जा सकता है की वह विकराल मां हैं।
जिसके हाथ में खप्पर है,लहू टपकता है तो गले में खोपड़ीयों की माला है मगर मां की आंखे और ह्रदय से अपने भक्तों के लिए प्रेम की गंगा बहती है।
महाकाली ने राक्षसों का वध करना आरंभ किया लेकिन रक्तबीज के खून की एक भी बूंद धरती पर गिरती तो उस से अनेक दानवों का जन्म हो जाता जिससे युद्ध भूमी में दैत्यों की संख्या बढ़ने लगी। तब मां ने अपनी जिह्वा का विस्तर किया।
दानवों का एक बूंद खून धरती पर गिरने की बजाय उनकी जिह्वा पर गिरने लगा। वह लाशों के ढेर लगाती गई और उनका खून पीने लगी। इस तरह महाकाली ने रक्तबीज का वध किया लेकिन तब तक महाकाली का गुस्सा इतना विक्राल रूप से चुका था की उनको शांत करना जरुरी था मगर हर कोई उनके समीप जाने से भी डर रहा था
सभी देवता भगवान शिव के पास गए और महाकाली को शांत करने के लिए प्रार्थना करने लगे। भगवान् शिव ने उन्हें बहुत प्रकार से शांत करने की कोशिश करी जब सभी प्रयास विफल हो गए तो वह उनके मार्ग में लेट गए।
जब उनके चरण भगवान शिव पर पड़े तो वह एकदम से ठिठक गई। उनका क्रोध शांत हो गया। आदि शक्ति मां दुर्गा के विविध रूपों का वर्णन मारकण्डेय पुराण में वर्णित है।
जब माता सीता बन गई चण्डी
एक समय की बात है कि भगवान् श्री राम राज सभा में विराज रहे थे उसी समय विभीषण वहाँ पहुंचे। वे बहुत भयभीत और हडबड़ी में लग रहे थे। सभा में प्रवेश करते ही वे कहने लगे – हे राम ! मुझे बचाइये, कुम्भकर्ण का बेटा मूलकासुर आफत ढा रहा है। अब लगता है न लंका बचेगी और न मेरा राज पाठ।
भगवान श्री राम द्वारा ढांढस बंधाये जाने और पूरी बात बताये जाने पर विभीषण ने बताया कि कुम्भकर्ण का एक बेटा मूल नक्षत्र में पैदा हुआ था। इसलिये उस का नाम मूलकासुर रखा गया है। इसे अशुभ जानकर कुंभकर्ण ने जंगल में फिंकवा दिया था।
जंगल में मधुमक्खियों ने मूलकासुर को पाल लिया। मूलकासुर बड़ा हुआ तो उसने कठोर तपस्या कर के ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया, अब उनके दिये वर और बल के घमंड में भयानक उत्पात मचा रखा है। जब जंगल में उसे पता चला कि आपने उसके खानदान का सफाया कर लंका जीत ली और राज पाट मुझे सौंप दिया है वह तब से भन्नाया हुआ है।
भगवन आपने जिस दिन मुझे राज पाठ सौंपा उसके कुछ दिन बाद ही वह पाताल वासियों के साथ लंका पहुँच कर मुझ पर धावा बोल दिया। मैंने छः महिने तक मुकाबला किया पर ब्र्ह्मा जी के वरदान ने उसे इतना ताकत वर बना दिया है कि मुझे भागना पड़ा।
अपने बेटे, मन्त्रियों तथा स्त्री के साथ किसी प्रकार सुरंग के जरिये भाग कर यहाँ पहुँचा हूँ। उसने कहा कि ‘पहले धोखेबाज भेदिया विभीषण को मारुंगा फिर पिता की हत्या करने वाले राम को भी मार डालूँगा। वह आपके पास भी आता ही होगा। समय कम है, लंका और अयोध्या दोनों खतरे में हैं। जो उचित समझते हों तुरन्त कीजिये। भक्त की पुकार सुन श्रीराम जी हनुमान तथा लक्ष्मण सहित सेना को तैयार कर पुष्पक यान पर चढ़ झट लंका की ओर चल पड़े।
मूलकासुर को श्री राम चंद्र के आने की बात मालूम हुई, वह भी सेना लेकर लड़ने के लिये लंका के बाहर आ डटा।भयानक युद्ध छिड़ गया और सात दिनों तक घोर युद्ध होता रहा। मूलकासुर भगवान श्री राम की सेना पर अकेले ही भारी पड़ रहा था। अयोध्या से सुमन्त्र आदि सभी मन्त्री भी आ पहुँचे। हनुमान् जी भी संजीवनी लाकर वानरों, भालुओं तथा मानुषी सेना को जिलाते जा रहे थे। सब कुछ होते हुये भी पर युद्ध का नतीजा उनके पक्ष में जाता नहीं दीख रहा था अतः भगवान् चिन्ता में थे।
विभीषण ने बताया कि रोजाना मूलकासुर तंत्र साधना करने गुप्त गुफा में जाता है। उसी समय ब्रह्मा जी वहाँ आये और भगवान से कहने लगे – ‘रघुनन्दन ! इसे तो मैंने स्त्री के हाथों मरने का वरदान दिया है। आपका प्रयास बेकार ही जायेगा। श्री राम, इससे संबंधित एक बात और है, उसे भी जान लेना फायदे मंद हो सकता है। जब इसके भाई-बंधु लंका युद्ध में मारे जा चुके तो एक दिन इसने मुनियों के बीच दुखी हो कर कहा, ‘चण्डी सीता के कारण मेरा समूचा कुल नष्ट हुआ’। इस पर एक मुनि ने नाराज होकर उसे शाप दे दिया – ‘दुष्ट ! तुने जिसे चण्डी कहा है, वही सीता तेरी जान लेगी।’ मुनि का इतना कहना था कि वह उन्हें खा गया। यह देखकर बाकी मुनि उस के डर से चुप चाप खिसक गये। तो हे राम, अब कोई दूसरा उपाय नहीं है।अब तो केवल सीता ही इसका वध कर सकती हैं। आप उन्हें यहाँ बुला कर इसका वध करवाइये, इतना कह कर ब्रह्मा जी चले गये।भगवान् श्री राम ने हनुमान जी और गरुड़ को तुरन्त पुष्पक विमान से सीता जी को लाने भेजा।
सीता देवी-देवताओं की मन्नत मनातीं, तुलसी, शिव-प्रतिमा, पीपल आदि के फेरे लगातीं, ब्राह्मणों से ‘पाठ, रुद्रीय’ का जप करातीं, दुर्गा जी की पूजा करती कि विजयी श्री राम शीघ्र लौटें। तभी गरुड़ और हनुमान् जी उनके पास पहुँचे और राम जी का संदेश सुनाया। पति के संदेश को सुन कर सीता तुरन्त चल दीं। भगवान श्री राम ने उन्हें मूलकासुर के बारे में सारा कुछ बताया। फिर तो भगवती सीता को गुस्सा आ गया । उनके शरीर से एक दूसरी तामसी शक्ति निकल पड़ी, उसका स्वर बड़ा भयानक था। यह छाया सीता चण्डी के वेश में लंका की ओर बढ चलीं।
इधर श्री राम ने वानर सेना को इशारा किया कि मूलकासुर जो तांत्रिक क्रियाएं कर रहा है उसको उसकी गुप्त गुफा में जा कर तहस नहस करें। वानर गुफा के भीतर पहुंच कर उत्पात मचाने लगे तो मूलकासुर दांत किट किटाता हुआ सब छोड़ छाड़ कर वानर सेना के पीछे दौड़ा। हड़बड़ी में उसका मुकुट गिर पड़ा। फिर भी भागता हुआ वह युद्ध के मैदान में आ गया।
युद्ध के मैदान में छाया सीता को देखकर मूलकासुर गरजा, तू कौन ? अभी भाग जा, मैं औरतों पर मर्दानगी नही दिखाता। छाया सीता ने भी भीषण आवाज करते हुये कहा, ‘मैं तुम्हारी मौत-चण्डी हूँ, तूने मेरा पक्ष लेने वाले मुनियों और ब्राह्मणों को खा डाला था, अब मैं तुम्हें मार कर उसका बदला चुकाउंगी। इतना कह कर छाया सीता ने मूलकासुर पर पाँच बाण चलाये। मूलकासुर ने भी जवाब में बाण चलाये। कुछ देर तक घोर युद्द हुआ पर अन्त में ‘चण्डिकास्त्र’ चला कर छाया सीता ने मूलकासुर का सिर उड़ा दिया। वह लंका के दरवाजे पर जा गिरा।
राक्षस हाहाकार करते हुए इधर उधर भाग खड़े हुए। छाया सीता लौट कर सीता के शरीर में प्रवेश कर गयी। मूलका सुर से दुखी लंका की जनता ने मां सीता की जय जयकार की और विभीषन ने उन्हें धन्यवाद दिया। कुछ दिनों तक लंका में रहकर श्री राम सीता सहित पुष्पक विमान से अयोध्या लौट आये।
इक्यावन शक्तिपीठों में प्रमुख विन्ध्यवासिनी जी की कथा
‘भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल सदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है।
महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्।
हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचलपर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराण में विंध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है- विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।
श्रीमद्देवीभागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया।
उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई।
इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।
त्रेता युग में भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचल आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है।
द्वापरयुग में मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा।
तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचण्डी का अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे नन्दरायजीके यहाँ अवतरित हुई।
मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश: मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया। मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वक स्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण के श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए।
आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
मन्त्रशास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान बताया गया है-
सौवर्णाम्बुजमध्यगांत्रिनयनांसौदामिनीसन्निभां
चक्रंशंखवराभयानिदधतीमिन्दो:कलां बिभ्रतीम्।
ग्रैवेयाङ्गदहार-कुण्डल-धरामारवण्ड-लाद्यै:स्तुतां
ध्यायेद्विन्ध्यनिवासिनींशशिमुखीं पार्श्वस्थपञ्चाननाम्॥
अर्थ-जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादि सभी देवता स्तुति करते हैं।
विंध्याचलपर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुन्दर मुखवाली इन विंध्यवासिनी के समीप सदा शिव विराजित हैं।
सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है।
साभार~ पं देवशर्मा