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॥ शिवजी द्वारा सती का त्याग एवं शिवजी की समाधि॥

चौपाई :

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ।
भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं।
कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥

सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्‌! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥1॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई।
मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना।
सतींजो कीन्ह चरित सबु जाना॥_

आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥

बहुरि राममायहि सिरु नावा।
प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना।
हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥3॥

फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥3॥

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा।
सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती।
मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥

सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥4॥

परम पुनीत न जाइ तजि
किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु
हृदयँ अधिक संतापु॥56॥

सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है॥56॥

चौपाई :

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा।
सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं।
सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥

तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया॥1॥

अस बिचारि संकरु मतिधीरा।
चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई।
जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥

स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की॥2॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना।
राम भगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभ गिरा सती उर सोचा।
पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥

आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान्‌ हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला।
सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती।
तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥

हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥

दोहा :

सतीं हृदयँ अनुमान किय
सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन
नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥57 (क)॥

सोरठा :

जलु पय सरिस बिकाइ
देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ
कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥

प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥57 (ख)॥

चौपाई :

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी।
चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा।
प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होंने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥

संकर रुख अवलोकि भवानी।
प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई।
तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥

शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा॥2॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू।
कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा।
बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन।
बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥

वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥

दोहा :

सती बसहिं कैलास तब
अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु
जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥

तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥58॥


किसी ने क्या खूब कहा है ज़िंदगी के सिर्फ दो दिन हैं
एक दिन आपके हक में होता है और एक दिन आपके खिलाफ होता है
जिस दिन आपके हक में हो तो अभिमान मत करना
और जिस दिन आपके खिलाफ हो तो थोड़ा सब्र करना


अच्छी सोच और अच्छी भावना यही जीवन की सम्पत्ति है इन्हीं दो गुणों से जीवन पर्यंत व्यक्ति अपनी छाप छोडता है,

नाम और पहचान भले ही छोटी हो मगर खुद की होनी चाहिए सभी का सम्मान करना बहुत अच्छी बात है पर आत्मसम्मान के साथ जीना ही खुद की पहचान है,

जिंदगी की सफलता का राज हाथों की लकीरों में नही अपितु आत्मविश्वास में परिश्रम में समर्पण में और आपके धैर्य में छुपा है,बहुत खुबसुरत शब्द है SORRY इंसान कहे तो झगडा खत्म और डाक्टर कहे तो इंसान खत्म।
जय भोलेनाथ

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