सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी मगर ये देश रहना चाहिए, अटल बिहारी वाजपेयी जी का यह भाव सिर्फ़ कथन नहीं था,
यह संकट की घड़ी में लिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय भी था।
सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी मगर ये देश रहना चाहिए, अटल बिहारी वाजपेयी जी का यह भाव सिर्फ़ कथन नहीं था,
यह संकट की घड़ी में लिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय भी था।
साल था 1991।
भारत आज़ादी के बाद के सबसे गहरे आर्थिक अंधेरे में खड़ा था। देश का ख़ज़ाना लगभग खाली।
विदेशी मुद्रा भंडार इतना कम कि कुछ ही दिनों में भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर दिवालिया घोषित हो सकता था।
प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंह राव ने अपने वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को तुरंत बुलाया।
सवाल सीधा था —
“देश कितने दिन चल सकता है?”
उत्तर और भी भयावह था —
“प्रधानमंत्री जी, अधिकतम 9 दिन।
उसके बाद IMF और वर्ल्ड बैंक हमें कर्ज़ चुकाने में असमर्थ मान लेंगे।”
कमरे में सन्नाटा था।
नरसिंह राव ने भारी मन से पूछा —
“तुरंत समाधान क्या है?”
मनमोहन सिंह ने बिना लाग-लपेट कहा —
“रुपये का कम से कम 20 प्रतिशत अवमूल्यन।
इसके बिना देश को बचाना असंभव है।”
यह फैसला आर्थिक था,
लेकिन राजनीतिक रूप से आत्मघाती माना जा रहा था।
कैबिनेट मीटिंग की सूचना मिलते ही
कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ मंत्री घबराकर दौड़े आए।
किसी ने चेताया —
“विपक्ष सड़कों पर उतर आएगा।”
किसी ने डराया —
“सरकार गिर जाएगी, चुनाव हार जाएंगे।”
शोर बढ़ता गया।
दबाव गहराता गया।
डॉ. मनमोहन सिंह ने धीरे से पूछा —
“क्या बैठक टाल दी जाए?”
नरसिंह राव ने सिर्फ़ इतना कहा —
“20 मिनट दीजिए।”
उन 20 मिनटों में
कोई बयान नहीं आया,
कोई चर्चा नहीं हुई,
कोई घोषणा नहीं हुई।
बस एक फोन गया —
अटल बिहारी वाजपेयी जी के पास।
देश की स्थिति उन्हें बताई गई।
खतरे की गहराई समझाई गई।
वाजपेयी जी ने एक पल भी राजनीति नहीं तौली।
उन्होंने सत्ता नहीं, भारत को चुना।
उन्होंने स्वयं मंत्रियों से बात की और कहा —
“आज सरकारें नहीं बचानी हैं,
आज देश को बचाना है।
मतभेद बाद में, राष्ट्र पहले।”
और चमत्कार हो गया।
कैबिनेट मीटिंग हुई।
कोई हंगामा नहीं।
कोई विरोध नहीं।
अवमूल्यन का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हो गया।
भारत दिवालिया होने से बच गया।
बाद में डॉ. मनमोहन सिंह ने पूछा —
“सर, उन 20 मिनटों में ऐसा क्या हुआ कि सब मान गए?”
नरसिंह राव का उत्तर इतिहास बन गया —
“मैंने अटल जी से बात की थी।”
यही थे अटल बिहारी वाजपेयी —
जो विपक्ष में रहते हुए भी
देश के पक्ष में खड़े रहे।
राजनीति करने वाले बहुत हुए,
लेकिन राष्ट्र के लिए राजनीति त्याग देने वाले
बहुत कम।
अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा उन 20 मिनट में..क्या बात हुई होगी…क्या कहा होगा अटल बिहारी वाजपेई जी ने….?
अब मैं आपको अपनी सोच के हिसाब से कुछ पंक्तियों में उन 20 मिनट में जो कुछ भी घटित हुआ होगा उसको लिख रहा हूं..ध्यान से पढ़िए..हो सकता हो ऐसा ना भी हुआ हो…पर संभवतः शायद यही हुआ होगा…
उन 20 मिनटों में क्या हुआ होगा?
जब नरसिंह राव ने अटल बिहारी वाजपेयी जी को फोन किया,
तो कोई राजनीतिक सौदेबाज़ी नहीं हुई।
कोई शर्त नहीं रखी गई।
कोई लाभ नहीं माँगा गया।
बात सीधी थी, कड़वी थी और देश के भविष्य से जुड़ी थी।
नरसिंह राव ने कहा होगा—
“अटल जी, हालात बहुत खराब हैं।
खज़ाना खाली है।
देश कुछ ही दिनों में आर्थिक रूप से गिर सकता है।
हमें रुपये का अवमूल्यन करना पड़ेगा,
लेकिन पार्टी के भीतर भारी विरोध है।”
वाजपेयी जी ने शायद एक पल रुककर पूछा होगा—
“अगर यह फैसला नहीं लिया गया, तो क्या होगा?”
उत्तर साफ़ था—
“देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपमानित होगा,
कर्ज़ बंद हो जाएगा,
और भारत को दिवालिया राष्ट्र कहा जाएगा।”
यहीं राजनीति समाप्त हो गई।
और राष्ट्र आरंभ हुआ।
अटल जी ने संभवतः यही कहा होगा—
“यह फैसला अगर देश को बचाता है,
तो विपक्ष का धर्म है कि वह साथ खड़ा हो।
राजनीति बाद में देखी जाएगी।”
इसके बाद वाजपेयी जी ने
ना भाषण दिया,
ना प्रेस कॉन्फ्रेंस की।
उन्होंने सीधे उन मंत्रियों से बात की
जो विरोध कर रहे थे।
और उनसे यह नहीं कहा कि
“कांग्रेस की सरकार बचाओ”
बल्कि यह कहा—
“इतिहास यह नहीं पूछेगा
कौन सी पार्टी सत्ता में थी,
इतिहास सिर्फ़ यह पूछेगा
क्या भारत बचा था या नहीं।”
यही बात तर्क नहीं थी,
नैतिक दबाव था।
और उस दबाव के आगे
राजनीति झुक गई।












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