भारतीय स्वतंत्रता संग्राम महानायक, वीर शिरोमणि, ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ शहीदी स्मरण..138 वीं जन्मजयंती सुअवसर।
भारतवर्ष का इतिहास राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अनेक वीर शहीदों की गाथाओं से भरा पड़ा है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाली अविस्मरणीय बारहठ त्रिमूर्ति के क्रांतिकारी गुणगान आज देश के हर एक नागरिक के ज़बान पर मौजूद है। महान क्रांतिकारी एवं अमर बलिदानी ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ की यशोगाथा को शब्दों में बयां करना एक अल्प प्रयास मात्र के समान है। असीम देशप्रेम, अदम्य साहस एवं अप्रतिम शौर्य की प्रतिकृति वीर शिरोमणि ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ का जन्म 12 सितम्बर 1883 को देवखेड़ा, उदयपुर, राजस्थान में हुआ था। गौर वर्ण, ऊर्ध्व ललाट, दीर्घ नेत्र एवं सूर्य के समान मुखाकृति का तेज बालक जोरावरसिंह की जन्मजात वीरोचित पहचान थी। पिता का नाम कृष्णसिंह बारहठ एवं माता का नाम बख्तावर कंवर था। पत्नी का नाम अनोप कंवर था। राष्ट्र के प्रति प्रेम एवं स्वराज की साकार संकल्पना ठाकुर जोरावरसिंह को अपनी उज्ज्वल क्रांतिकारी वंश परम्परा से प्राप्त हुई थी। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा उदयपुर एवं उच्च शिक्षा जोधपुर में सम्पन्न हुई। अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी और घोर अत्याचारों से दुःखी भारतमाता का दर्द ठाकुर जोवरसिंह बारहठ को क्रांति के रास्ते पर ले आया। ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ सर्वप्रथम जोधपुर के प्रसिद्ध क्रांतिकारी बालमुकंद के संपर्क में आए। राजसेवा का वैभव त्याग कर ठाकुर जोरावरसिंह ने क्रांति की राह थाम ली। जब महान क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना तैयार की तो इसका जिम्मा ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ एवं इनके भतीजे महान वीर बलिदानी कुंवर प्रतापसिंह बारहठ को सौंपा। 23 दिसम्बर 1912 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद शक्ति के प्रतीक वायसराय लॉर्ड हार्डिंग का भव्य जुलूस जब चाँदनी चौक दिल्ली में पहुंचा तो ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ ने बुर्के से हाथ निकाल कर बम लार्ड हार्डिंग पर फेंक दिया। वायसराय रक्तरंजित हो गये एवं ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें इस घटना से हिल गयी। ठाकुर जोरावरसिंह दिल्ली से फरार हो गये।
इस अपराध के आरोप में बसन्त कुमार विश्वास, बाल मुकुंद, अवध बिहारी व मास्टर अमीर चंद को फांसी की सजा दे दी गयी। आरा बिहार की अंग्रेजी खजाना लूट की घटना निमाज 1914 में आप अग्रणी भूमिका में शामिल थे। अंग्रेजी सरकार ने ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ को तलाशने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा दी। ठाकुर जोरावरसिंह भेष बदल कर गुप्त स्थानों पर घूमते रहे। इस दौरान वे अनेक स्वतंत्रता सेनानियों से मिले एवं आजादी की अलख जागते रहे। लगातार 27 वर्षों तक राजस्थान एवं मध्यप्रदेश के बीहड़ जंगलों में भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी का सामना कर ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ ने भारतमाता के अमर प्रेम को अपनी अंतिम सांस तक निभाया। इस प्रकार अंग्रजों से लोहा लेते हुए अपनी मातृभूमि का यह लाल 17 अक्टूबर 1939 को अमरदास बैरागी के छद्म नाम से एकलगढ़, मंदसौर, मध्यप्रदेश में नारू रोग से जूझते हुए वीरगति को प्राप्त हो गया। इस वीर सेनानी का बारहठ परिवार राष्ट्र की आजादी की बलिवेदी पर अपना सब कुछ लुटा चुका था। अमर शहीद कुंवर प्रतापसिंह बारहठ बरेली जेल में अपना प्राणोत्सर्ग कर चुके थे। ठाकुर केसरीसिंह बारहठ अंग्रेजी सरकार के खिलाफ जीवटता के साथ अपनी अंतिम सांस तक लड़े एवं देशभक्ति के नाम अमर हो गये। भारतीय इतिहास का यह पहला एवं एकमात्र ऐसा सामंती परिवार था जिसने राष्ट्र आजादी महायज्ञ की बलिवेदी पर अपने पूरे परिवार को भेंट कर दिया था। भारतवर्ष बारहठ त्रिमूर्ति के अदम्य साहस एवं अमर बलिदान को भुलाये नहीं भूल सकता है। धन्य है राजस्थान वीरभूमि। धन्य है मातृभूमि भारतमाता। शहीद ठाकुर जोरावरसिंह का वैभव सदैव अमर रहे। ठाकुर जोरावरसिंह बारहठ की 137वीं जन्मजयंती सुअवसर पर कौटिश श्रद्धा सुमन सादर अर्पित है।
आलेख एवं संकलन :
करणीदान चारण












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