‼️ओ३म्‼️
योग दिवस
की हार्दिक बधाई और शुभकामनायें
योग शब्द का अर्थ है जुड़ना, जबकि अधिकतर लोग इस शब्द को सुनते ही आसन की परिकल्पना कर इस शब्द के व्यापक अर्थ को सीमित कर देते हैं अपने हाथ – पैर को मोड़कर जो हम विभिन्न मुद्राएं अपने शरीर को बलिष्ठ बनाने के लिए बनाते हैं, यह योग नहीं है, यह तो केवल योग का एक अङ्ग आसन है, जो योग के आठ अङ्गो में एक है, जैसे किसी शरीर के एक अंग को जान लेने से हम शरीर की कल्पना नही कर सकते उसी प्रकार योग के आठों अंगो के बिना न तो हम योग को जान सकते हैं और न योग के परम उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं।
योग वह विद्या है जो हमे परमात्मा से जोड़ती है आइए जानते हैं कैसे ?
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित योग दर्शन का प्रारम्भ “अथ योगानुशासनम्” वाक्य से किया गया है जिसका अर्थ है अब योग का अनुशासन मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि महर्षि ने “अब योग का अनुशासन” वाक्य से योग दर्शन का प्रारम्भ क्यों किया ? वैसे तो भारतीय धर्म ग्रन्थों को प्रारम्भ करने की परम्परा अथ और अंत इति शब्द से होना पाई जाती है किन्तु यहाँ इस शब्द के प्रयोग के पीछे कुछ विशेष प्रयोजन दिखता है,निश्चित ही योग की अनुशासित विधा को जानने से पहले भी कुछ और जानने की आवश्यकता है। वह क्या है?
वेदों को प्रामाण मानने वाले छः भारतीय दर्शनों में सांख्य और योग दर्शन का युग्म है। सांख्य और योग दर्शन को हम साथ पढ़ते हैं योग दर्शन को समझने से पूर्व सांख्य दर्शन की समझ आवश्यक है, क्योंकि सांख्य दर्शन सृष्टि की उत्पत्ति, उत्पत्ति के कारणों से लेकर उसके तिरोभाव अर्थात विनाश तक वृहद प्रकाश डालती है। मनुष्य जब तक विभिन्न योनियों में अपने बार–बार जन्म और मृत्यु के कारण को नहीं जान लेता, उसे जन्म – मृत्यु के बन्धन से मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। प्राणी के लिए जन्म – मृत्यु के बन्धन से मुक्ति आवश्यक है क्योंकि जन्म लेते ही वह तीन प्रकार के दु:खों से घिर जाता है। ईश्वरकृष्ण द्वारा प्रतिपादित सांख्य दर्शन की प्रथम कारिका कहती है “दु:खत्रयाSभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतो। दुष्टे सापार्थाचेन्नेकांतान्ततोS भावात”॥ अर्थात तीन प्रकार के दु:ख से (प्राणी) पीड़ित रहते हैं अतः उसके विनाशक कारण को जानने की इच्छा करनी चाहिए।भारतीय दर्शन पूरी तरह से यह विश्वास करता है की दु:खों की आत्यंतिक निवृत्ति ही मोक्ष है। आधिदैविक,आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक इन तीनों दु:खों से निवृत्ति तभी संभव है जब जीव परम ज्ञान को अपने बोध को जागृत कर ले। सांख्य और योग दर्शन का युग्म उस परम ज्ञान को प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है। सांख्य उस परम ज्ञान को प्राप्त करने के सैद्धांतिक पक्ष पर प्रकाश डालता है,तो योग उस सैद्धान्तिक पक्ष को व्यावहार मे उतारने की प्रेरणा के साथ उपाय भी प्रस्तुत करता है।
आधुनिक जीवन शैली ने मनुष्य को तनाव,कुंठा के साथ अनेक असाध्य रोग उपहार में दिये है, बदलते सामाजिक और आर्थिक परिवेश, भू – राजनैतिक समीकरण, मंदी और बेरोजगारी ने मनुष्य के सामान्य जीवन को अत्यंत कठिन बना दिया है,ऐसे मे यदि हम विभिन्न प्रकार के तापों अर्थात कष्टों के बीच अपने आप को मानसिक रूप से संतुलित और शरीर को निरोगी रख सकें तो वर्तमान परिस्थितियों में हमारे जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। शारीरिक स्वस्थ्य के लिए आसन और मानसिक स्वस्थ्य के लिए प्राणायाम रामबाण औषधि है। अष्टांग योग मे इनका तीसरा और चौथा स्थान है ।
प्रथम स्थान पर यम अर्थात जीवन को अनुशासित करने का विज्ञान जो ऐसे संस्कारों को जन्म देता है जो नैतिक मूल्यों के साथ दूसरों के प्रति सम्मान का भाव पैदा कर जीवन जीने की कला से आभूषित होता है। इनकी संख्या पाँच है –सत्य, अहिंसा, आस्तेय, अपरिग्रह, और ब्रह्मचर्य ।
दूसरा सोपान है नियम, सृष्टि के मूल में नियम है, यह एक आयाम है, वैसे ही जैसे - समय इस सृष्टि का आयाम है काल गड़ना इस आयाम के कारण संभव हो सका। नियम के बिना सृष्टि संभव ही नहीं है विभिन्न आकाशीय पिण्डो के बीच का आकर्षण – प्रतिकर्षण कितना हो यह कहाँ से तय होता है? बिना टकराए अरबों की संख्या मे आकाश मे तैरते ये पिण्ड आपस में टकराते क्यों नही हैं? जब प्रकृति में प्रत्येक स्थूल और सूक्ष्म वस्तु नियमों से बंधी हैं तो हम मनुष्यों का जीवन क्यों नहीं? बिना आत्मानियंत्रण के जीवन भटकाव की ओर ले जाएगा जहां पश्चाताप,अवसाद, रोग, क्लेश के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगता । योग दर्शन मे पाँच नियम हैं इन पर चल कर ही मनुष्य अपनी अगली यात्रा तयकर सकता है,ये पाँच नियम हैं - शौच,शुचिता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान।
तीसरा सोपान आसन और चौथे सोपान प्राणायाम की चर्चा हमनें ऊपर की है । प्राणायाम में तीन क्रियाओं का समावेश रहता है – पूरक, कुंभक और रेचन । पांचवा सोपान है प्रत्त्याहर, प्रतत्याहार प्रति और आहार शब्दों के मेल से बना है जिसका अर्थ है विपरीत आहार,इंद्रियों का आहार वाह्य जगत है जब इंद्रियों को वाह्य जगत से मोड़कर अर्थात संसार से हटाकर मनुष्य अपने भीतर की यात्रा में उसे लगाता है तब उसे आत्मबोध का रास्ता मिलता है बिना आत्मबोध के मनुष्य अपने जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करने मे असफल रहता है।
क्षठा सोपान है धारणा, प्रत्याहार के पश्चात मनुष्य अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर एकाग्रचित्त हो जाता है अब उसके जीवन मे भटकाव समाप्त हो जाता है। प्रात: जागने से लेकर रात्रि सोने तक उसके समस्त कार्य में जागरूकता रहने लगती है। वह अब एक सजग जीवन जीने का अभ्यस्त हो जाता है।
अष्टाङ्ग योग का सातवाँ सोपान है ध्यान अभी तक बताए गए योग के छ्ह अङ्ग केवल तैयारी थे इस सातवें सोपान को प्राप्त करने की। सातवें सोपान पर पहुँचने के पश्चात आत्मबोध के साथ जीव, जगत, आत्मा,परमात्मा, इस परिवर्तनशील जगत में क्या स्थायी है?क्या अस्थाई है? इन सब बातों का आध्यात्मिक ज्ञान स्वत: ही होने लगता है, उसके जीवन मे परमानंद अवतरित होने लगता है।
अष्टाङ्ग योग का अंतिम सोपान है समाधि जिसमे साधक का साक्षात्कार परमात्मा से होने लगता है। वह अपने जीवन के अंतिम उद्देश्य को प्राप्त कर मोक्ष की ओर अग्रसर हो जाता है अब उसके जीवन से वे समस्त कामनाएं समाप्त हो जाती हैं जो पुनर्जन्म का कारण बनती हैं और यहाँ उसके दुखों से आत्यंतिक निवृत्ति हो जाती है।
योग दर्शन हमे जीवन जीने की कला ही नहीं सिखाता अपितु जीवन के पार देखने की अद्भुत और अकल्पनीय क्षमता विकसित कराता है जो प्रत्येक मनुष्य के जीवन का अंतिम उद्देश्य है। योग की उपयोगिता तो हजारों वर्षों से सिद्ध है लेकिन योग को आसन और प्राणायाम तक सीमित न रखकर सम्पूर्ण योग दर्शन की उपयोगिता की व्यापक समझ को आत्मसात करना हमारे लिए अत्यंत आवश्यक है,तभी इन विपरीत परिस्थितियों मे हमारा जीवन आनंदमय बन सकेगा। भारत सदियों सें सुख,शांति, प्रेम, भाईचारे का संदेश पूरे विश्व को देता रहा है अंतर्रास्ट्रीय योग दिवस भारतीय दर्शन को विश्व पटल पर प्रस्तुत करने का स्वर्णिम अवसर है।
‼️आज का वेद मंत्र‼️
ओ३म् शं न: सत्यस्य पतयो भवन्तु शं नो अर्वन्त:शमु सन्तु गाव:। शं न ऋभव: सुकृत: सुहस्ता: शं नो भवन्तु पितरो हवेषु। (७|३५|१२|)
अर्थ :- सत्य का पालन करना हमें सुखदायक हो, उत्तम घोड़े और गौएँ हमें सुखकारी हों, श्रेष्ठ बुद्धि वाले, बड़े-बड़े काम करने वाले शिल्प क्रिया में चतुर जन हमारे लिए सुख देने वाले हो, यज्ञादि उत्तमोत्तम कार्यों में रक्षक माता- पिता आदि पितर हमें सुखदायक हो।
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