पलट के देख लो पन्ने, ज़िन्दगी की, हाल आज भी वही हैं,…
क़िताबों पे धूल जमने से, कहानियाँ नहीं बदला करती…!: नफ़रतों के शहर में चालाकियों के डेरे हैं, यहां वो लोग रहते हैं,…
जो आपके मुँह पर आपके हैं, और मेरे मुँह पर मेरे हैं…!
कौन हिसाब रखें, अपनी गलतियों का साहेब,…
खुद से रूबरू होना, सबके बस की बात नहीं…!
क्या आईना, और क्या इन्सान,…
क़दर नहीं रहती सहेब, टूटने के बाद…!
सब परेशान हैं मेरे ख़ामोश रहने से,…
और मैं परेशान हूँ, मेरे अंदर के शोर से…!
ग़ैरों ने नसीहत दी, और दिया अपनो ने धोखा,…
ये दुनिया हैं साहब, यहाँ चाहिए हर किसी को मौक़ा…!
दौलत तो ले के, निकले हो तुम जेब में मगर,…
मुमकिन ही नहीं किसी का मुक़द्दर ख़रीद लो…!
रहने दे मुझे, इन अंधेरों में ग़ालिब,…
कमबख़्त रौशनी में, अपनों के असली चेहरे, नज़र आ जाते हैं…!