- आज का श्रीमद् भागवतम् भाव
(21 – 4 – 25)
★ भागवत कहती है – कि यह मनुष्य शरीर बहुत दुर्लभ है । देवतालोग भी इसको पाने की आस करते हैं , क्योंकि केवल इसी शरीर में नये कर्म करने की स्वतंत्रता है , देवशरीर में नहीं । इसीलिए मनुष्य योनि कर्मयोनि कहलाती है , जबकि देवयोनि , भोगयोनि कहलाती है । इसलिये विवेकी पुरुष को इस शरीर में शक्ति के रहते हुए जप – तप – दान – धर्म व हरिनाम का उपार्जन कर लेना चाहिए । जो मनुष्य इसके स्वस्थ रहते हुए भी यह नहीं कर लेता , वह मृत्यु के बाद तब - स पश्चात तप्यते मूढो , मृतो गत्वात्मनो गतिम्। ( वा.रा.7/15/22 ) बहुत पछताता है , जब उसे भगवान से विमुख रहने का फल यमराज से मिलता है । तब वह पश्चाताप करने के अलावा और कुछ भी नहीं कर पाता ।
★ महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से सौ प्रश्न किये हैं – उनमें एक प्रश्न यह भी है , कि इस सृष्टि का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? तब युधिष्ठिर ने उत्तर में यही कहा है — कि - अहन्य हनि भूतानि गच्छन्ति यम मंदिरम्
शेषा स्थिरत्व मिच्छन्ति किम आश्चर्य मतः परम्। सबसे बड़ा आश्चर्य यही है , कि यहां मनुष्य प्रतिदिन सैकड़ों लोगों को यमलोक जाते हुए देखता है , फिर भी जो लोग बचे रहते हैं , वे भोग – विषयों में डूबे रहकर सदा के लिए यहीं टिके रहना चाहते हैं । मरकर सद्गति पाने के लिए कोई प्रयास नहीं करता ।

★ मनुष्य को लौकिक पदार्थों की प्राप्ति तो क्रिया से हो जाती है , परन्तु परमात्मतत्त्व की प्राप्ति तो विवेक से ही होती है । जीव को जीवनमुक्त करने की शक्ति केवल विवेक में है , क्रिया में नहीं । वैसे परमात्मा तो सबको प्राप्त है ही , लेकिन विवेकी पुरुष ही इस तत्व से परिचित हो पाता है । परमात्मतत्त्व से तो न कभी किसी का वियोग हुआ है , और न हो सकता है । इसीलिये शास्त्र कहते हैं , कि जो प्राप्त विवेक का आदर करके उसको महत्व देता है , उसी को तत्त्वबोध हो पाता है ।
( भाई रामगोपालानन्द गोयल ” रोटीराम ” )
ऋषिकेश
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