अभिशाप//कोई है जो सब देखता है और कर्मों का फल देता है ,आज भी कई रूपों में अभिशाप देखने को मिलते हैं,,यह पूर्वजों के पापों या नकारात्मक व्यवहारों (जैसे क्रोध, व्यसन, हिंसा, गरीबी) का दोहराव है जो परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।

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अभिशाप

आज भी कई रूपों में देखने को मिलते हैं, खासकर पीढ़ीगत अभिशाप और आधुनिक जीवन की समस्याओं जैसे नशे, हिंसा, या नकारात्मक व्यवहार पैटर्न के रूप में, जो पूर्वजों से बच्चों में आते हैं और सचेत प्रयासों से ही तोड़े जा सकते हैं, और इसके अलावा, विज्ञान और तकनीक जैसे वरदान भी जब दुरुपयोग होते हैं, तो वे भी अभिशाप बन जाते हैं, जैसे प्रदूषण या शोर। 
अभिशाप के आज के रूप:
पीढ़ीगत अभिशाप

यह पूर्वजों के पापों या नकारात्मक व्यवहारों (जैसे क्रोध, व्यसन, हिंसा, गरीबी) का दोहराव है जो परिवार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।
पारिवारिक कलह, मानसिक समस्याएं, या आर्थिक संकट जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाते हैं, ये भी अभिशाप के रूप में देखे जाते हैं।
आधुनिक जीवन की समस्याएं: शोर, प्रदूषण, या टेक्नोलॉजी का गलत इस्तेमाल, जो जीवन को मुश्किल बनाते हैं, उन्हें भी ‘आधुनिक अभिशाप’ कहा जा सकता है।

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मानसिक और भावनात्मक बंधन: व्यक्ति का अपनी समस्याओं या नकारात्मक भावनाओं में बंध जाना और आगे न बढ़ पाना, इसे भी अभिशाप का एक रूप माना जाता है, जैसा कि इस स्रोत में बताया गया है। 
अभिशाप को कैसे तोड़ें
सचेत प्रयास: इन नकारात्मक चक्रों को तोड़ने के लिए सचेत निर्णय लेना और नए, सकारात्मक व्यवहार अपनाना ज़रूरी है।
आत्म-जागरूकता: अपने पारिवारिक पैटर्न को समझना और उन्हें स्वीकार करना पहला कदम है।
व्यक्तिगत उपचार: स्वयं के भीतर के विषाक्त लक्षणों (जैसे अत्यधिक आलोचना, क्रोध) को खत्म करना। 
संक्षेप में, अभिशाप सिर्फ़ जादुई बातें नहीं, बल्कि गहरे मनोवैज्ञानिक और पारिवारिक पैटर्न भी हैं, जो आज भी हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं।
क्रोधित या अपमानित ऋषि अपनी तपस्या की शक्ति का उपयोग किसी व्यक्ति, देवता या स्थान को दंडित करने के लिए करते हैं, जिससे अक्सर महत्वपूर्ण और नाटकीय परिणाम होते हैं; जैसे दुर्वासा ऋषि द्वारा इंद्र को स्वर्ग की लक्ष्मीहीन करने का श्राप, या श्रृंगी ऋषि द्वारा राजा परीक्षित को तक्षक नाग द्वारा डसे जाने का श्राप, जिसके बाद कलयुग की शुरुआत हुई मानी जाती है। ये श्राप अक्सर व्यक्ति के अहंकार, गलत व्यवहार या कर्मों के परिणाम स्वरूप दिए जाते हैं और उन्हें सुधारने या एक बड़े उद्देश्य की पूर्ति के लिए होते हैं।
धर्मग्रंथों (जैसे विष्णु पुराण) के अनुसार,

कलियुग में श्राप देना उचित नहीं माना जाता, क्योंकि सभी मनुष्य पापी होते हैं, लेकिन श्राप के प्रभाव को नकारा भी नहीं गया है, ऐसा माना जाता है कि अगर कोई व्यक्ति श्राप को स्वीकार नहीं करता है, तो वह श्राप देने वाले पर ही लौट आता है.
आशीर्वाद का महत्व: श्राप से ज्यादा शक्तिशाली आशीर्वाद होता है, इसलिए दूसरों को आशीर्वाद देना चाहिए, न कि श्राप देना.

आज भी लोग मानते हैं कि श्राप का प्रभाव होता है, लेकिन यह मन, वचन और कर्म से जुड़ी एक गहरी आस्था है, और इसके असर को व्यक्तिगत अनुभवों और कर्मों के फल से जोड़ा जाता है.

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