बाबा साहेब आंबेडकर : भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी रूपांतरण-कायांतरण के प्रस्तावक-प्रणेता
जन्म दिन ( 14 अप्रैल) पर सादर नमन के साथ- बाबा साहेब की बुनियादी वैचारिकी की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत है-
डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) के चिंतन, लेखन और व्यवहारक कार्यवाहियों का बड़ा हिस्सा भारत-पाकिस्तान बंटवारे से पहले का है। बंटवारे के बाद भी उन्होंने जो चिंतन, लेखन और व्यहारिक कदम उठाए, वे पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के बुनियादी संकटों, समस्याओं और उनके समाधान से जुड़े हैं। वे सतत मात्रात्मक व सकारात्मक परिवर्तन तथा सुधार के पक्ष में खड़े होते हैं और उसके लिए संघर्ष भी करते हैं। हर सकारात्मक परिवर्तन या सुधार का तहेदिल से स्वागत करते हैं। उसके लिए पूरा जोर लगाते हैं, लेकिन आंबेडकर सतही और ऊपरी परिवर्तनों और सुधारों में भारतीय उपमहाद्वीप के बुनियादी अंतर्विरोधों, संकटों और समस्याओं का समाधान नहीं देखते हैं। यहां तक कि वे संविधान सभा द्वारा निर्मित भारतीय संविधान ही अकेले भारतीय समाज का कायांतरण कर देगा, न ऐसा कुछ कहते हैं और न ऐसा विश्वास करते हैं और न ऐसा व्यवहार करते हैं, जिस संविधान के निर्माण के वे एक मुख्य स्तंभ थे। उनके लिए संविधान सकारात्मक परिवर्तन की दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण कदम था, लेकिन सिर्फ एक कदम। उनके लिए भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी रूपांतरण का मतलब है– हर तरह के अन्याय, शोषण-उत्पीड़न, असमानता, ऊंच-नीच, अतार्किकता, अवैज्ञानिकता और वर्चस्व-अधीनता के रिश्ते का पूरी तरह खात्मा और समता, स्वतंत्रता और बंधुता आधारित लोकतांत्रिक उपमहाद्वीप का निर्माण।
आंबेडकर और भारतीय संविधान
भारतीय समाज और भारतीय मानस के लोकतांत्रिकरण का प्रश्न भारत के कायांतरण (आमूल-चूल गुणात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन) का सवाल है। यही वजह है कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद डॉ. आंबेडकर उन कामों को पूरा करने में लग जाते हैं, जिनका संबंध भारत या भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी रूपांतरण से जुड़ा है। हालांकि संविधान निर्माण की प्रक्रिया में शामिल होने से पहले भी वह इन्हीं कामों में लगे हुए थे। संविधान के लागू होने के साथ ही वे संविधान को जमीन पर उतारने और उसके माध्यम से भारतीय समाज को लोकतांत्रिक बनाने के पहले कदम की ओर बढ़ते हैं। इसके पहले कदम के तौर पर वे हिंदू कोड बिल को स्वीकृत कराने की कोशिश करते हैं, जिसका संबंध भारतीय समाज के गैर-पितृसत्तात्मक कायांतरण की दिशा में बढ़ाए जाने वाले एक छोटे, लेकिन ऐतिहासिक कदम से था। इसमें वे असफल होते हैं। संविधान में स्वीकृत लैंगिक स्वतंत्रता और समानता को ज्योंही वे हिंदू कोड बिल के रूप में मूर्त, कानूनी रूप देने और व्यावहारिक रूप में उतारने की कोशिश करते हैं, भारतीय संविधान के निर्माण के अगुआ लोग ही इसे असफल कर देते हैं। कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देकर वे खुद को निचोड़ने की हद तक भारतीय समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की अपनी परियोजना में जुट जाते हैं, जो उनकी जिंदगी की सबसे मुख्य परियोजना थी।
सवाल यह उठता है कि फिर भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी रूपांतरण के लिए आंबेडकर का बुनियादी प्रस्ताव क्या हैं?
भारतीय उपमहाद्वीप के कायांतरण का पहला प्रस्ताव आंबेडकर 1916 में अपने प्रथम शोध पत्र ‘भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ में प्रस्तुत करते हैं, जो 1917 में प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने यह चिह्नित किया कि भारतीय उपमहाद्वीप में बुनियादी अन्याय दो स्तंभों पर टिका हुआ है– वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता। दोनों एक-दूसरे से नाभिनालबद्ध हैं। भारतीय उपमहाद्वीप से वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का विनाश किए बिना सबके लिए समता, स्वतंत्रता और न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। सती प्रथा, विधवा विवाह पर रोक और बाल विवाह को इसी पितृसत्ता का उपउत्पाद मानते हैं, जैसे पवित्रता-अपवित्रता और छूत-अछूत को वे वर्ण-जाति व्यवस्था का ऊपरी तौर पर दिखने वाला उपउत्पाद मानते हैं। वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का विनाश उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा ध्येय रहा। उनकी किताब ‘जाति का विनाश’ (1936) उनके 1916 के सूत्र का विकास है।
भारतीय उमहाद्वीप में असानता और अलोकतांत्रिक मानस का बुनियादी आधार क्या है?
डॉ. आंबेडकर का मानना था कि भारतीय उपमहाद्वीप के सारे अन्याय, असमानता और वर्चस्व-अधीनता के रिश्ते इसी वर्ण-जातिवाद और पितृसत्ता की जमीन पर फलते-फुलते हैं, इसी जमीन से अपने लिए खाद-पानी पाते हैं। भारतीय समाज के अलोकतांत्रिक मानस का भी यही बुनियादी स्रोत है। भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य की स्थापना और पूंजीवादी शोषण-उत्पीड़न इसी वर्ण-जातिवादी सत्ता पर फला-फूला और इसी का नतीजा भी था।
वे भारतीय समाज वर्ण-जाति और पितृसत्ता आधारित सारे भेदभावों के खात्मे के भारतीय संविधान के संकल्प को इसी रूप में एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखते हैं। उन्होंने जो महत्वपूर्ण किताबें [‘रिडल्स इन हिंदुज्म’ (हिंदू धर्म की पहेलियां), ‘रिव्योल्यूशन एंड काउंटर रिव्योलूशन इन एनशंट इंडिया’ (प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति), ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’ (बुद्ध और उनका धम्म)] लिखी है, उनमें समान रूप में वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता पर चोट करते हैं। उनकी नजर में ब्राह्मणवाद का कोर वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता है। उनकी नजर में सनातन धर्म, हिंदू धर्म, उसके धर्मग्रंथ, उसके महाकाव्य और उन विचारों के वाहक दार्शनिक, चिंतक, लेखक और नायक इसी ब्राह्मणवाद (वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता) के पोषक हैं। गांधी के साथ उनकी टकराहट का मूल बिंदु भी यही है। वे गांधी को ब्राह्मणवाद के आधुनिक युग के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में देखते हैं।
डॉ. आंबेडकर के चिंतन का मुख्य उद्देश्य वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का खात्मा है, क्योंकि उसके बिना इस भारतीय उपमहाद्वीप को उनके जीवन का सबसे बड़ा ध्येय समता, स्वतंत्रता और बंधुता आधारित समाज नहीं बनाया जा सकता है और न ही इस समाज व इसके मानस का लोकतांत्रिकरण किया जा सकता है। वे वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता को सिर्फ एक सामाजिक समस्या के रूप में नहीं देखते, बल्कि उनकी दृष्टि में पूरे उपमहाद्वीप की संरचनागत और संस्थागत बुनावट इसी पर टिकी हुई है। यह तय करती है कि आर्थिक संसाधनों पर किसका मालिकाना अधिकार होगा और कौन संसाधनहीन रहेगा। सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन में किसकी क्या हैसियत होगी, वह भी इसी से तय होता है। राजनीतिक ताकत किसके हाथ में रहेगी और कौन राजनीति का संचालक होगा, उसका भी स्रोत वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता ही है।
डॉ. आंबेडकर ने साफ शब्दों में बार-बार कहा कि जो कोई ग्रंथ, साहित्य, व्यक्ति और विचार किसी रूप में भी वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की पैरवी करता है या उसके विनाश के लिए निर्णायक कदम नहीं उठाता है, वह भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी कायांतरण का विरोधी है या उसके कायांतरण के लिए काम नहीं कर रहा है। ऐसे लोग कायांतरण-रूपांतरण के बुनियादी कार्यभार से मुंह मोड़कर सिर्फ कुछ ऊपरी सुधारों और परिवर्तनों के लिए काम कर रहे हैं। कायांतरण के इसी बुनियादी कार्यभार को अपने चिंतन, लेखन और व्यवहारिक कदमों का एजेंडा न बनाने के लिए वे दक्षिणपंथियों, उदारवादियों, गांधीवादियों और वामपंथियों की तीखी आलोचना करते हैं। ‘जाति का विनाश’ किताब इसका सबसे मुकम्मल साक्ष्य प्रस्तुत करती है।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति आंबेडकर दृष्टिकोण
तो क्या डॉ. आंबेडकर भारतीय उपमहाद्वीप के कायांतरण के लिए ब्रिटिश साम्राज्य से इस महाद्वीप की मुक्ति और पूंजीवाद से व्यापक मेहनतकश की मुक्ति की जरूरत नहीं समझते? इन दोनों का वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता (ब्राह्मणवाद) क्या रिश्ता है, इसका उनको भान नहीं है? क्या इन सवालों पर उन्होंने नहीं सोचा?
वस्तुत: डॉ.आंबेडकर ने मुकम्मल रूप में इस पर चिंतन-मनन और लेखन किया है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि भारतीय जनता का खून दो जोंक मिलकर चूस रहे हैं– ब्रिटिश सम्राज्य और ब्राह्मणवादी। इन दोनों जोंकों से मुक्ति के बिना भारतीय जन की मुक्ति नहीं हो सकती है। वह साफ तौर पर कुछ बातें समझ रहे थे। पहली तो यह कि भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता की स्थापना और भारतीयों की अंग्रेजों से पराजय इसी वर्ण-जाति व्यवस्था की देन है।
दूसरी बात यह कि ब्रिटिश सत्ता भारत में सौ-दो वर्षों की चीज है, लेकिन भारत की बहुसंख्यक जनता हजारों वर्षों से देशी शोषकों-उत्पीड़कों (ब्राह्मणवादियों) की औपनिवेशिक सत्ता की शिकार है, उनके जुए तले पीस रही है। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को भी भारतीय जनता का खून चूसने वाला जोंक कहा है, “मेरे मतानुसार ब्रिटिश सत्ता तथा ब्राह्मणी सत्ता हिंदू जनता के शरीर लगी दो जोंक हैं, तथा ये बिना रूके भारतीय जनता का खून पी रही हैं।”( बहिष्कृत भारत की संपादकीय, सम्यक प्रकाशन पृ. पृ.33)।
ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने इन देशी शोषकों-उत्पीड़को को भी अपने अधीन कर लिया है। ये देशी शोषक-उत्पीड़क ब्रिटिश सत्ता को तो हटाना चाहते हैं, लेकिन हजारों वर्षों से भारत की जनता का जो हिस्सा उनकी सत्ता और वर्चस्व के जुए तले पीस रही है, उसके ऊपर से अपना वर्चस्व खत्म नहीं करना चाहते हैं, उन्हें आजाद नहीं करना चाहते हैं। उन्हें आजादी तब तक नहीं मिल सकती है, जब तक वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का खात्मा न किया जाए और इससे जुड़े वर्चस्व और अधीनता के सारे रिश्तों को नेस्तनाबूद न कर दिया जाए।
आंबेडकर ने कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में हिस्सेदारी क्यों नहीं की?
वे ब्रिटिश सत्ता से अजादी की किसी उस लड़ाई में हिस्सेदारी नहीं करना चाहते थे, न किया, जिसके कार्यक्रम में दमित वर्गों (डिप्रेस्ड क्लास) की मुक्ति का ठोस और मुकम्मल कार्यक्रम न हो। वे कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे ब्रिटिश सत्ता के आजादी के आंदोलन को द्विज-सवर्ण हिंदुओं (अपरकॉस्ट) हिंदुओं का आंदोलन कहते थे, जो ब्रिटिश सत्ता को हटाकर अपनी मुकम्मल वर्ण-जातिवादी सत्ता कायम करना चाहते हैं। वे कांग्रेस और आजादी के आंदोलन की अन्य शक्तियों के इस कोरे आश्वासन पर विश्वास नहीं करना चाहते थे कि आजादी के बाद भारतीय जनता के सभी हिस्सों को न्याय मिलेगा, समता और स्वतंत्रता मिलेगी। उन्होंने दुनिया के उदाहरणों से बताया कि वर्चस्वशाली समुदाय दूसरे वर्चस्वशाली समुदायों के खिलाफ अपने संघर्ष में शोषित-उत्पीड़ित जनता का कोरे आश्ववासनों के आधार पर समर्थन लेते हैं, उनसे कुर्बानी कराते हैं और बाद में उन्हें धोखा देते हैं।
उन्होंने अश्वेत अमेरिकन के संदर्भ में अब्राहम लिंकन के कोरे आश्वासन और उनके धोखे को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया है। इसको विस्तार उनकी किताब ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया?’ [व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू दि अन्टचबल्स?] में देखा जा सकता है। इस किताब में ऐसे अन्य उदाहरण भी देते हैं। मसलन, उच्च जातियों के वर्चस्ववाली कांग्रेस का चरित्र क्या है, वह ब्रिटिश सत्ता से आजादी के नाम पर क्या कर रही है और क्या करना चाहती है और क्या करेगी? इस संदर्भ में सारे मुकम्मल तर्क उन्होंने इस किताब में प्रस्तुत किया है। यहां तक कि आंबेडकर ने कांग्रेस के सामने कई बार यह प्रस्ताव भी रखा कि वह कांग्रेस के ब्रिटिश सत्ता से मुक्ति संघर्ष में शामिल होने को तैयार हैं, बशर्ते कांग्रेस उनके एजेंडे को स्वीकार कर ले। यही स्थिति तमिलानाडु में पेरियार की बनी। वे तो कांग्रेस के ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष में शामिल हुए, लेकिन कई वर्षों तक शामिल होने के बाद गैर-ब्राह्मणों ( बहुजनों) के के एजेंडे को कांग्रेस के एजेंडे में ज्यों ही शामिल करने की कोशिश की, उन्हें कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया या देखने के लिए बाध्य कर दिया गया। कांग्रेस की नजर में पेरियार का अपराध यह था कि वे ब्रिटिश साम्राज्य को भारत की जनता का उतना ही बड़ा शत्रु मानते थे, जितना ब्राह्मणवादियों को पिछड़ों और महिलों का शत्रु मानते थे। यही अवस्थिति डॉ. आंबेडकर की भी थी।
कहा जा सकता है कि डॉ. आंबेडकर ने दमित वर्गों के हितों के लिए ब्रिटिश साम्राज्य और कांग्रेस दोनों पर दबाव बनाए रखा और कई कई बुनियादी चीजें हासिल भी कीं, जिसमें आरक्षण और वयस्क मताधिकार भी शामिल है। संविधान में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को जो मिला और ओबीसी के लिए जो प्रावधान हुआ, उसमें आजादी के पहले डॉ. आंबेडकर और अन्य लोगों के संघर्षों का परिणाम था।
डॉ. आंबेडकर कभी भी ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता या साम्राज्य की वकालत नहीं करते हैं, उनके जैसा व्यक्ति जो हर तरह के वर्चस्व, हर तरह की अधीनता की स्थिति से, हर तरह के शोषण-उत्पीड़न से घृणा करता हो, वह कैसे ब्रिटिश साम्राज्य का समर्थक हो सकता था। उनका लेखन इसकी गवाही देता है।
पूंजीवाद के प्रति आंबेडकर का नजरिया
क्या आंबेडकर पूंजीवाद को कोई आदर्श व्यवस्था मानते थे? ब्राह्मणवाद से मुक्ति के लिए पूंजीवाद की ओर देख रहे थे? क्या उनकी नजर में पूंजीवाद भारतीय उपमहाद्वीप का क्रांतिकारी रूपांतरण- कायांतरण कर देगा? ऐसा बिलकुल नहीं है। डॉ. आंबेडकर ने कभी भी पूंजीवाद को ब्राह्मणवाद के विकल्प के रूप में नहीं देखा, न ही अपने स्वतंत्रता, समता और बंधुता आधारित भारत के स्वप्न को पूंजीवादी दायरे में पूरा करने की सोचते थे। उन्होंने साफ शब्दों में इस देश के मेहनकश जनता के दो दुश्मन चिह्नित किए हैं– ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद। उन्होंने लिखा है, “ मेरी मान्यतानुसार इस देश में कामगारों को दो शत्रुओं का मुकाबला करना होगा। वे दो शत्रु हैं- ‘ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद’। (Babasaheb Dr. Ambedkar Writings and Speeches, Volume number 17, Part 3, page no.177 ( Chapter number 44). English edition.)
हां, उनका उन वामपंथियों से तीखा विरोध था, जो पूंजीवाद को तो दुश्मन मानते हैं, लेकिन वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की जड़ ब्राह्मणवाद का नाम तक नहीं लेते हैं। आंबेडकर इन्हीं मेहनतकशों को लेकर अपनी पहली पार्टी ‘लेबर पार्टी’ बनाते हैं, जिससे वह उम्मीद करते थे कि यह ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद दोनों के खिलाफ संघर्ष करेगी, क्योंकि ये दोनों मेहनतकशों की दुश्मन हैं। इस प्रक्रिया में वे वामपंथियों (कम्युनिस्टों) से मोर्चा भी बनाते हैं, लेकिन वामपंथी ब्राह्मणवाद के खिलाफ मुंह भी खोलने को तैयार न थे।
समाजवाद के बारे में क्या सोचते थे, आंबेडकर
तो क्या आंबेडकर ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद नकार कर समाजवाद को विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे? इसका उत्तर पूरी तरह हां में देना तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना होना। वे आर्थिक व्यवस्था के रूप में समाजवाद को पसंद करते थे, उसकी ओर झुके हुए थे, यह तो उनके चिंतन-मनन और लेखन में साफ-साफ दिखता है। यहां तक जब संविधान सभा में नेहरू ने संविधान के लक्ष्य-संबंधी प्रस्ताव रखा, तो उस पर बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा कि इस प्रस्ताव में जिन सामाजिक-आर्थिक न्यायों की बात की गई आखिर उन्हें हासिल करने का ठोस प्रस्ताव क्या है? यह कैसे हासिल होगा? इन प्रश्नों का जवाब स्वयं देते हुए उन्होंने कहा कि इन न्यायों को आर्थिक समाजवाद के बिना हासिल ही नहीं किया जा सकता है। यहां वे आर्थिक समाजवाद की पैरवी करते हैं। इसके पहले उन्होंने अनुसूचित जाति परिसंघ की तरफ संविधान की जो रूपरेखा (‘स्टेट एंड मॉइनारटिज’) प्रस्तुत की थी, उसमें राजकीय समाजवाद की वकालत करते हैं। खेती की जमीन और बड़े और भारी उद्योग-धंधों, बैंक और जीवन-बीमा के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव रखते हैं।
समाजवादी अर्थव्यवस्था की विस्तृत तस्वीर उन्होंने अपनी किताब ‘स्टेट एंड माइनॉरिटीज’ (राज्य और अल्पसंख्यक) में प्रस्तुत किया था। उद्योग धंधों के संदर्भ में उन्होंने व्यवस्था दी कि “वे उद्योग जो प्रमुख उद्योग हैं अथवा जिन्हें प्रमुख उद्योग घोषित किया जाए, राज्य के स्वामित्व में रहेंगे और राज्य द्वारा चलाए जाएंगे।” (बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड-2, पृ.166) बुनियादी उद्योगों के संदर्भ में भी उन्होंने साफ शब्दों में लिखा है कि “वे उद्योग प्रमुख उद्योग नहीं हैं, किंतु बुनियादी उद्योग हैं, राज्य के स्वामित्व में रहेंगे और राज्य द्वारा स्थापित निगमों द्वारा चलाए जाएंगे।” (वही, पृ.166) बीमा कारोबार के बारे में उन्होंने विशेष तौर पर जोर देकर कहा कि “बीमा राज्य के एकाधिकार में रहेगा और कृषि राज्य का उद्योग होगा।” (वही, पृ.166)।
डॉ. आंबेडकर ने संविधान के उद्देश्यों पर अपनी बात रखते हुए 6 दिसंबर 1946 को स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “मैं समझ नहीं पाता कि यदि भविष्य की कोई सरकार सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय करने में विश्वास करती है, तो बिना समाजवादी अर्थव्यवस्था के निर्माण के वह ऐसा कैसे कर सकती है।” (बीएडब्ल्यूएस 1994, वाल्यूम-13 पृ.8-9) लेकिन इस सब का मतलब यह नहीं है कि वे सोवियत संघ के समाजवाद के मॉडल से पूरी तरह सहमत थे।
डॉ. आंबेडकर हर व्यक्ति के व्यक्तित्व को अधिकतम विकास का अवसर प्रदान करना किसी समाज और राष्ट्र का सबसे बड़ी जिम्मेदारी मानते थे, लेकिन किसी के भी व्यक्तित्व का विकास किसी दूसरे के व्यक्तित्व की कीमत पर नहीं होना चाहिए। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की अनिवार्य शर्त के रूप में वे समता के साथ स्वतंत्रता को अनिवार्य मानते थे। वे ऐसी स्वतंत्रता के हिमायती नहीं थे, जो समता को खा जाए। लेकिन ऐसी समता के विरोधी थे, जिसमें स्वतंत्रता का स्पेस ही खत्म हो जाए। वे सोवियत मॉडल को स्वतंत्रता की अपनी सोच के अनुकूल नहीं पाते थे। दूसरी बात यह कि समता, स्वतंत्रता और बंधुता की बुनियादी शर्त के रूप में लोकतंत्र को देखते थे। लोकतंत्र उनके लिए सबसे बड़ा मूल्य था। वे सोवियत मॉडल को लोकतांत्रिक मॉडल के रूप में नहीं देखते थे। वे लोकतांत्रिक ढांचे के अंदर ही क्रांतिकारी परिवर्तन की कल्पना करते थे।
मार्क्स के बारे में आंबेडकर का नजरिया
डॉ. आंबेडकर मार्क्स को एक बड़े दार्शनिक और क्रांतिकारी चिंतक के रूप में देखते थे। उन्होंने सभी मेहनतकशों को ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र’ अनिवार्य तौर पढ़ने की सलाह दी थी। वे अपने तीन गुरूओं में एक गुरु बुद्ध के सापेक्ष यदि किसी को रखते थे, तो वे मार्क्स हैं। उन्होंने ‘बुद्ध एंड हिज धम्मा’ के साथ जिस किताब की लिखने की पूरी मुकम्मल योजना बनाई थी, वह मार्क्स और बुद्ध की तुलना है। मार्क्स के संदर्भ में अक्सर निजी संपत्ति और हिंसा का सवाल आता है। डॉ. आंबेडकर मानते हैं कि मार्क्स के विचार पहले से ही बुद्ध के विचारों में निहित हैं। इसलिए जब वे मार्क्स और बुद्ध के बीच निजी संपत्ति और हिंसा के सवाल पर तुलना करते हैं तो पाते हैं कि दोनों निजी संपत्ति के विरोधी थे और दोनों न्यायपूर्ण हिंसा को जायज मानते थे। इसलिए वे भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी रूपांतरण- कायांतरण के लिए बुद्ध को प्रस्थान बिंदु बनाते हैं। (देखें ‘बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स’, बाबासाहब अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड 3, अध्याय 18)
बुद्ध धम्म भारतीय उपहाद्वीप में सामाजिक लोकतंत्र कायम करने का एक मार्ग
‘बुद्ध और उनका धम्म’ डॉ. आंबेडकर के लिए सिर्फ एक आधात्मिक जरूरत भर नहीं है। बुद्ध उनके लिए भारत में वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के विनाश का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
वे बुद्ध और उनके धम्म को एक जाति विहीन और ईश्वर विहीन धम्म के रूप में देखते हैं। आंबेडकर की नजर में धम्म समाज के लिए एक जरूरी तत्व है, लेकिन उनको लोकतंत्र, विज्ञान और तर्क पर खरा उतरने वाला धम्म ही पसंद है, इसके साथ उसके जनकल्याणकारी होने की भी शर्त लगाते हैं। ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’ की शुरुआत में वे यह सवाल उठाते हैं कि बुद्ध और धम्म के नाम पर जो कुछ प्रचलित है, जो कुछ लिखा गया है, आखिर उसमें क्या प्रमाणिक और क्या अप्रमाणिक है? बिना किसी लाग-लपेट के वे कहते हैं कि बुद्ध धम्म के नाम पर जो कुछ हमारे सामने मौजूद है, उसमें जो कुछ भी तार्किक, विवेकसंगत और जनकल्याणकारी है सिर्फ वही चीजें प्रमाणिक हैं। जो कुछ भी उसमें अतार्किक और जनविरोधी है, वह सब कुछ अप्रमाणिक है।
वे बुद्ध धम्म को एक तार्किक, वैज्ञानिक, समतावादी, बंधुतावादी और स्वतंत्रता के पैरोकार धम्म के रूप में देखते हैं। जब यह सवाल उठा कि बुद्ध धम्म में स्त्रियों को समानता का अधिकार नहीं प्राप्त था, तो उन्होंने ‘राइज एंड फाल ऑफ हिंदू वीमेन’ लिख कर इन तथ्यों के साथ साबित किया कि बुद्ध धम्म में महिलाओं और पुरूषों के बीच पूरी समता थी, उन्हें बराबर की स्वतंत्रता प्राप्त थी। आंबेडकर किसी ऐसे धम्म को स्वीकार नहीं कर सकते थे जो स्त्रियों को दोयम दर्जे का ठहराता, दूसरे शब्दों में पितृसत्ता के पक्ष में खड़ा हो, उसकी पैरवी करता हो, चाहे वह बुद्ध धम्म ही क्यों न हो।
आंबेडकर के लिए बुद्ध धम्म भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक लोकतंत्र कायम करने का एक सबसे बड़ा साधन था। वे बुद्ध धम्म को असमानतावादी, पितृसत्तावादी और वर्ण-जातिवादी हिंदू धर्म और भारतीय इस्लाम के विकल्प के रूप में देखते थे। इससे आगे बढ़कर इन असमानतावादी, ईश्वरवादी, वर्ण-जातिवादी धर्मों के प्रतिस्थापक के रूप में देखते थे। उनके लिए बुद्ध धम्म एक जीवन पद्धति थी, जो लोकतांत्रिक और समतावादी मूल्यों पर आधारित थी। इसमें ईश्वर, कर्मफल, पुनर्जन्म, वर्ण-जातिवादी श्रेणीक्रम और पितृसत्ता और लोकतंत्र विरोधी मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं था।
उनका बुद्ध धम्म अपनाना एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक कदम या धार्मिक कदम नहीं था, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के क्रांतिकारी रूपांतरण- कायांतरण के लिए उठाया जाने वाला एक दार्शनिक, सांस्कृतिक और वैचारिक अभियान था। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप और दुनिया के सभी लोगों से बुद्ध और उनके धम्म के दिखाए मार्ग पर चलने का आह्वान किया। वर्मा (म्यांमार), नेपाल आदि देशों के बुद्धिस्ट सम्मेलनों में जाकर और अपनी बात रखकर इसके लिए कोशिश भी शुरू कर दी थी। डॉ. आंबेडकर बुद्ध और धम्म को सिर्फ मार्गदाता के रूप में देखते थे, मुक्तिदाता के रूप में नहीं।
भारतीय संविधान और बौद्ध धम्म
आंबेडकर संविधान और बुद्ध धम्म को अलग-अलग रास्ते के रूप में नहीं देख रहे थे। संविधान सभा के सदस्य और प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने भारत में राजनीतिक लोकतंत्र की नींव का आधार खड़ा कर दिया था, लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा था कि इस राजनीतिक लोकतंत्र को कायम रखने की अनिवार्य शर्त है कि सामाजिक लोकतंत्र भी कायम किया जाए। इन दोनों लोकतंत्र के स्तंभ पर ही समता, स्वतंत्रता और बंधुता आधारित भारत का स्वप्न टिका हुआ है, जो उनकी आंखों में बसता था। संविधान ने राजनीतिक लोकतंत्र की नींव खड़ी कर दी थी, उसके बाद उनका अगला बड़ा कदम भारतीय समाज के लोकतांत्रिकरण का था।
अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में उन्होंने साफ कह दिया था कि भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक रूप से फैले और स्वीकृत हिंदू धर्म और इस्लाम के रहते कभी भारतीय समाज का लोकतांत्रिकरण नहीं हो सकता है। इनको प्रतिस्थापित करना ही होगा, क्योंकि ये दोनों धर्म ईश्वर और धर्मग्रंथों द्वारा स्वीकृत असमानता पर टिके हुए हैं। इनमें तार्किकता और वैज्ञानिकता का अभाव है। पवित्रता और आस्था इनका सबसे बड़ा मूल्य है। इस्लाम की जो कुछ खूबियां थी, उसे भी हिंदू धर्म ने खत्म कर दिया है। ‘जाति के विनाश’ किताब में ही उन्होंने लिख दिया था कि कैसे भारतीय उपमहाद्वीप की जमीन पर आकर इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म हिंदू धर्म की वर्ण-जाति गंदगी को अपना लिये। बुद्ध और उनका धम्म आंबेडकर के लिए भारतीय उपमहाद्वीप को राजनीतिक और सामाजिक लोकतंत्र में तब्दील करने यानी कायांतरण की प्रक्रिया का हिस्सा था। बुद्ध और उनका धम्म उनके लिए भारतीय उपमहाद्वीप को लोकतांत्रिक मानस का बनाने के उनके वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष का एक हिस्सा था, जो बुनियादी तौर पर अलोकतांत्रिक है। उनका मानना था कि इन्हें अलोकतांत्रिक बनाने में हिंदू धर्म की सबसे बड़ी भूमिका है, लेकिन इस्लाम भी लोकतांत्रिक मानस के अनुकूल नहीं है।
आंबेडकर की नजर में यूरोपीय अमेरिकी लोकतंत्र का संकट
आंबेडकर की नजर में यूरोप-अमेरिकी लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ा खतरा आर्थिक असमानता का है, क्योंकि इन समाजों ने राजनीतिक लोकतंत्र की यात्रा के साथ सामाजिक लोकतंत्र भी काफी हद हासिल कर लिया। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणाम के तौर पर राजनीतिक लोकतंत्र तो कमोबेश कायम हुआ, लेकिन समाज के लोकतांत्रिकरण के लिए कोई बुनियादी संघर्ष नहीं हुआ। इस दिशा में एकमात्र प्रयास जोतीराव फुले-सावित्रीबाई फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर आदि के नेतृत्व में चले बहुजन-श्रमण आंदोलन ने किया। कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों ने इस कार्यभार को अपने हाथ में ही नहीं लिया। देशव्यापी स्तर पर इस कार्यभार का नेतृत्व डॉ आंबेडकर ने किया।
ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद मेहनतकशों के सबसे बड़े दुश्मन-आंबेडकर
आंबेडकर भारतीय उपमहाद्वीप, विशेषकर भारत के कायांतरण के लिए वर्ण-जातिवाद और पितृसत्ता के विनाश को सबसे बुनियादी शर्त मानते हैं। चूंकि पूंजीवाद भारत में अपने जन्म के साथ इसके साथ घुल-मिल गया था, जिसके चलते वह वर्ण-जातिवाद और पितृसत्ता से अपने फलने-फूलने के लिए ताकत ग्रहण करता है और इसके साथ इन दोनों को मजबूत भी बनाता है। इस सच्चाई को आंबेडकर 1930 के आसपास ही समझ गए थे। इसी के चलते उन्होंने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद को भारत की व्यापक मेहनतकश आबादी का मूल दुश्मन चिह्नित किया था। दोनों के विनाश के बिना भारत और भारतीय उपमहाद्वीप का कायांतरण नहीं हो सकता है।
भारतीय उपमहाद्वीप का क्रांतिकारी रूपांतरण- कायान्तरण इस महाद्वीप की क्रांतिकारी विरासत के आधार पर ही हो सकता है- बुद्ध, कबीर और फुले प्रतीक व्यक्तित्व-आंबेडकर
डॉ. आंबेडकर आधुनिक भारत के एक ऐसे चिंतक, लेखक और राजनेता हैं, जो भारतीय उपमहाद्वीप में आमूल-चूल परिवर्तन का प्रस्ताव करते हैं और उसके प्रणेता भी हैं। इस तरह आमूल-चूल परिवर्तन की विरासत और शक्ति के लिए वे यूरोप-अमेरिका की ओर नहीं देखते हैं, इसके लिए भारत की अतीत की क्रांतिकारी रूपांतरणकारी विरासत और शक्ति की ओर देखते हैं। इस क्रांतिकारी रूपांतरण- कायांतरणकारी विरासत और शक्ति के प्रतीक व्यक्तित्व और धारा के रूप में प्राचीन काल में गौतम बुद्ध, मध्यकाल में कबीर और आधुनिककाल में जोतीराव फुले की ओर देखते हैं। इन्हीं से वे उर्जा और शक्ति ग्रहण करते हैं। इन्हीं की विरासत को आगे बढ़ाते हैं। इन्हीं को अपना गुरू कहते हैं। हां, जरूरत पड़ने पर वे यूरोप-अमेरिका की ओर भी देखते हैं, वे बार-बार मार्क्स की ओर ताकते व झांकते हैं, वाल्तेयर को याद करते हैं, ऐसे ही अनेकानेक लोगों को। लेकिन भारत के क्रांतिकारी रूपांतरण- कायांतरण की मूल जमीन भारत में देखते हैं। भारत की क्रांतिकारी कायांतरणकारी विरासत और शक्ति के बल पर ही भारत और भारतीय उपमहाद्वीप का कायांतरण करना चाहते हैं।
डॉ. आंबेडकर ने भारत और भारतीय उपमहाद्वीप के कायांतरण की जो जरूरी बुनियादी शर्तें रखी हैं, उससे शायद ही कोई इंकार कर पाए, भले ही उनके सुझाए तरीकों और रास्तों से असहमति हो या समय के साथ में उसमें बदलाव की जरूरतें महसूस करे। स्वयं आंबेडकर, नायक पूजा, भक्ति और किसी विचार को पवित्र मानने की मुखालफत करते हैं। यह बात स्वयं उनके ऊपर भी लागू होती है, लेकिन भारतीय इतिहास में जिस व्यक्ति ने भारतीय उपमहाद्वीप के बुनियादी अंतर्विरोधों और बुनियादी संकटों को समझा उस व्यक्ति का नाम डॉ. भीमराव आंबेडकर है। उनके विचारों को किनारा करके न तो भारत और न ही भारतीय उपमहाद्वीप के बुनियादी संकट और समस्याओं को समझा जा सकता है तथा न ही उनके समाधान का कोई रास्ता निकाला जा सकता है। वजह यह कि उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के बुनियादी अंतर्विरोधों से किनारा कर सतही और ऊपरी सुधारों और समाधानों तक खुद को सीमित नहीं रखा। वे भारतीय उपमहाद्वीप के आमूल-चूल रूपांतरण- कायांतरण में इंसानियत का भविष्य देखते थे। वे इसके प्रस्तावक और प्रणेता दोनों बने।
सिद्धार्थ रामू