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अनिवर्चनीय कार्य सन्ध्योपासना ~~

दो कालों की सन्धि को सन्ध्या कहते हैं । इन कालों में इष्टदेव के समीप बैठने का नाम उपासना है । श्री वंशीधर शर्मा जी ने भागवत् के प्रथम श्लोक की एक सौ आठ पक्षों में व्याख्या की है । उनका जो एकतालीसवा पक्ष है , उसमें “तेजो वारिमृदायथाविनिमयो यत्र त्रिसर्गो मृषा” की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि चूंकि भगवान् वेद सम्मत हैं , वेद त्रिकाण्डात्मक कहा गया है । इन त्रिकाण्डों में कर्मकाण्ड की चार विधियों के निरूपण के अनन्तर गुणानुवाद , अनुवाद , भुतार्थवाद का प्रतिपादन करने के अनन्तर वेद के उपासना काण्ड के सम्बन्ध में उपासना शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं ।

“वस्तु के स्वरूप की उपेक्षा किये बिना पुरुष की इच्छा के अनुसार मानस का प्रवाह ही उपासना है ।”

अर्थात् जो साधक जिस देवता का भक्त है , उस देवता का किसी भी प्रकार की मूर्ति बनाकर उसमें धातु आदि की भावना का परित्याग करके अपने इच्छा के अनुसार देवता के अष्टभुज , चतुर्भुज , शंख-चक्र आदि से युक्त मन की उस देवता के आकार से युक्त मन की वृत्ति के प्रवाह का नाम उपासना है ।

यह साधनरूपी सन्ध्योपासना है । इस सन्ध्या के माध्यम से साध्य रूपी परमात्मा की प्राप्ति होना साध्य सन्ध्योपासना है ।

अर्थात् जीवात्मा-परमात्मा के ऐक्य का नाम ही सन्ध्या है । इन दोनों के ऐक्य भाव की सदैव सन्निधि की अनुभूति उपासना है । परन्तु सर्वसाधारण साधकों को साधनरूपी सन्ध्योपासना करनी चाहिए ।

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