Ved //मानव चेतना के प्रथम उच्छ्वास ऋग्वेद के प्रौढ़ चिन्तन से प्रतीत होता है कि स्रष्टा ने अपनी सृष्टि के संरक्षण- संवर्धनार्थ जिन सिद्धान्त-तरङ्गों का रेडियो तरङ्गों की भाँति अन्तरिक्ष में प्रक्षेपण किया,डॉ. देवीसहाय पाण्डेय ‘दीप’ सनातन, वैदिक साहित्य को लेकर अलख जगाए हुए है, हिन्दी व संस्कृत भाषाओं में विपुल साहित्य रचा है,

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मानव चेतना के प्रथम उच्छ्वास ऋग्वेद के प्रौढ़ चिन्तन से प्रतीत होता है कि स्रष्टा ने अपनी सृष्टि के संरक्षण- संवर्धनार्थ जिन सिद्धान्त-तरङ्गों का रेडियो तरङ्गों की भाँति अन्तरिक्ष में प्रक्षेपण किया; उन्हें ऋषियों की तपःपूत मेघागत ग्राहक ऊर्जा ने यथावत् ग्रहण कर मन्त्र रूप में छन्दोबद्ध कर दिया है। ऋग्वेद का चिन्तन इतना पूर्ण, प्रौढ़, सार्वदेशिक और सार्वकालिक है कि उसे डारविन के विकासवाद के सिद्धान्त से जोड़कर देखा ही नहीं जा सकता है। उपवेदों, वेदाङ्गों, आरण्यकों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, पुराणों, सांख्य-योग-न्याय-वैशेषिक-मीमांसा वेदान्तादि दर्शनों में ही नहीं, अपितु विश्व के समस्त धर्म-दर्शनों, सम्प्रदायों के मूल में वेदों के सिद्धान्त वैसे ही व्याप्त देखे जा सकते हैं, जैसे कटक- कुण्डलादि स्वर्णाभरणों में कनक की व्याप्ति परिलक्षित होती है।

सृष्टि के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु पर्यावरण-शोधन की बढ़कर आवश्यकता है, तदर्थ यज्ञ-कर्म की प्रधानता वेदों में है। तन-मन स्वस्थ रहे, इसके लिए ‘स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः’ — ऋग्वेद (1.89.8) का कथन है। सामाजिक सौमनस्य, सौहार्द एवं सहयोगपूर्ण जीवन के लिए दशम मण्डल का अन्तिम सूक्त सं० 191 भरत वाक्य इव द्रष्टव्य है । वेदमन्त्रों के मन्थन से प्रकट अमृततत्त्व ही मानवता को अमरत्व प्रदान कर सकता है। आज मनुष्य भटक गया है, स्वार्थ साधन में संलग्न आत्मकेन्द्रित वह सब कुछ अपने लिए ही चाहता है; अपनी संकुचित परिधि से बाहर निकल कर वह सृष्टि के संरक्षणार्थ- संवर्धनार्थ जिसमें कि उसका अपना अस्तित्व (existence) निहित है, सोचने को तैयार ही नहीं है; संसार के संघर्षो विषमताओं, शोषणों, उत्पीडनों का मूल कारण यही है द्वेष, दम्भ, घृणा, अपहरण, अशान्ति आदि इसी . से है। ऋग्वेद कहता है-जीवन को दातव्य-प्रधान बनाओ, सूर्य

डॉ. देवीसहाय पाण्डेय ‘दीप’ सनातन, वैदिक साहित्य को लेकर अलख जगाए हुए है, हिन्दी व संस्कृत भाषाओं में विपुल साहित्य रचा है, सर्वाधिक आनंद का विषय है, और अपने तरीके से संसार को आलोकित, प्रकाशित कर रहे हैं। उनका जन्म 10 जून 1939 को हुआ और  उन्होंने हिन्दी व संस्कृत से एम ए किया है। ‘तुलसी के काव्य में शृंगार’ विषय पर उनकी पीएचडी पूरी हुई है। सन 1960 से उनका अध्यापन व साहित्य लेखन अनवरत चल रहा है। वेद मर्मज्ञ डॉ. दीप ने संस्कृत व हिन्दी में महाकाव्य, खण्ड-काव्य, कहानी, कविता, उपन्यास, वेद, बालगीत, गीता, योग, वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस आदि से जुड़ा साहित्य लिखा है। इसके साथ ही वेद-मंत्रों की व्याख्या का यूट्यूब के माध्यम से उनके द्वारा प्रसारण होता है। उनका उद्देश्य है, जन-मानस में संस्कृत भाषा और सनातन वैदिक साहित्य का प्रचार-प्रसार करना। ईश्वर उन्हें शक्ति दे, वे अपने उद्देश्य में सफल हों और सम्पूर्ण विश्व में जन-जन तक उनकी साधना का श्रीफल पहुँचे।

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