वास्तविक सुख
मनुष्य की अपनी “आत्मा” ही सब कुछ है। आत्मा से रहित वह एक मिट्टी का पिंड मात्र ही है। शरीर से जब “आत्मा” का संबंध समाप्त हो जाता है, तो वह “मुरदा” हो जाता है। शीघ्र ही उसे बाहर करने और जलाने-दफनाने का प्रबंध किया जाता है। संसार के सारे संबंध “आत्मा” द्वारा ही संबंधित हैं। जब तक जिसमें “आत्म-भाव” बना रहता है, उसमें प्रेम और सुख आदि की अनुभूति बनी रहती है और जब यह आत्मीयता समाप्त हो जाती है, वही वस्तु या व्यक्ति अपने लिए कुछ भी नहीं रह जाता। किसी को अपना मित्र बड़ा प्रिय लगता है।
उससे मिलने पर हार्दिक आनंद की उपलब्धि होती है। न मिलने से बेचैनी होती है, किंतु जब किन्हीं कारणों वश उससे मैत्री भाव समाप्त हो जाता है अथवा आत्मीयता नहीं रहती, तो वही मैित्र अपने लिए, एक सामान्य व्यक्ति बन जाता है। उसके मिलने-न-मिलने में किसी प्रकार का हर्ष-विषाद नहीं होता। बहुत बार तो उससे इतनी विमुखता हो जाती है कि मिलने अथवा दीखने पर अन्यथा अनुभव होता है। प्रेम, सुख और आनंद की सारी अनुभूतियाँ “आत्मा” से ही संबंधित होती हैं, किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति अथवा पदार्थ से नहीं। सुख का संसार “आत्मा” में ही बसा हुआ है। उसे उसमें ही खोजना चाहिए। सांसारिक विषयों अथवा वस्तुओं में भटकते रहने से वही दिशा और वही परिणाम सामने आएगा, जो मरीचिका में भूले मृग के सामने आता है।
👉 मनुष्य की अपनी विशेषता ही उसके लिए उपयोगिता तथा स्नेह-सौजन्य उपार्जित करती है। विशेषता समाप्त होते ही मनुष्य का मूल्य भी समाप्त हो जाता है और तब वह न तो किसी के लिए आकर्षक रह जाता है और न प्रिय ? इस बात को समझने के लिए सबके अधिक निकट रहने वाले माँ और बच्चे को ले लीजिए। माता से जब तक बच्चा दूध और जीवन रस पाता रहता है, उसके शरीर के अवयव की तरह चिपटा रहता है। उसे माँ से असीम प्रेम होता है। जरा देर को भी वह माँ से अलग नहीं हो सकता। माँ उसे छोड़कर कहीं गई नहीं कि वह रोने लगता है, किंतु जब इसी बालक को अपनी सुरक्षा तथा जीवन के लिए माँ की गोद और दूध की आवश्यकता नहीं रहती अथवा रोग आदि के कारण माँ की यह विशेषता समाप्त हो जाती है, तो बच्चा उसकी जरा भी परवाह नहीं करता। वह उससे अलग भी रहने लगता है और स्तन के स्थान पर शीशी से ही बहल जाता है। मनुष्य की विशेषताएँ ही किसी के लिए स्नेह, सौजन्य अथवा प्रेम आदि की सुखदायक स्थितियाँ उत्पन्न करती हैं।
जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता “आत्मज्ञान” पृष्ठ १२६ CODE AA 43
।।पं श्रीराम शर्मा आचार्य।।
















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