ऋषि चिंतन //आत्मा” की प्रसुप्ति का कारण है- “मनुष्य का अज्ञान।” उसका यह न जानना कि वह क्या है

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ऋषि चिंतन
जागृत आत्मा के क्या लक्षण
“आत्मा” की प्रसुप्ति का कारण है- “मनुष्य का अज्ञान।” उसका यह न जानना कि वह क्या है ? संसार में आया क्यों है ? और उसका लक्ष्य क्या है ? यदि वह इन तीनों बातों का ज्ञान संचय कर ले तो निश्चय ही उसकी आत्मा में जागरण की स्थिति पैदा हो जाए। इन तीनों प्रश्नों का उत्तर कोई गोपनीय रहस्य नहीं है। इनका उतर बिलकुल सीधा, सरल, एक और अंतिम है। मनुष्य परमात्मा का अंश, उसका पुत्र और प्रतिनिधि है। संसार में आनंद की खोज करने, उसको पाने और उसी क्रम में अपने को पहचानकर अपने लक्ष सच्चिदानंद स्वरूप को पा लेने के लिए आया है।
👉 अपने इस व्यक्तित्व, कर्तव्य और उद्देश्य की ओर से अज्ञानी, रहने के कारण वह वासनाओं, तृष्णाओं, एषणाओं, मरीचिकाओं कुरूपताओं और अमंगलों में अपनी चेतना को फँसाते रहकर आत्म-जागरण की ओर से विमुख और अनात्म पदार्थों में विभोर रहता है। विषयों में सुख खोजना, पदार्थों में आसक्ति बढ़ाना, माया से मोहित होना और कामनाओं का पालन करना उसका स्वभाव बन जाता है। ऐसी विपरीतता में उसकी आत्मा का मोह निद्रा में मूच्छित पड़ा रहना कोई आश्चर्य की बात नहीं।
👉 जिसकी आत्मा सोती है, वह मानो स्वयं सोता है। आत्म-प्रबोधन से रहित मनुष्य का अभौतिक जागरण संसार स्वप्न में निमग्नता के सिवाय और कुछ नहीं है। संसार में आकर संसार को पाने का कांक्षी कृपण सांसारिकता के सिवाय सच्चिदानंद स्वरूप को किस प्रकार पा सकता है? नश्वरता के उपासक को अमृतत्व मिल सकना संभव नहीं।
यदि आपको अपनी रुचियों और प्रवृत्तियों में कुरूपता, कुत्सा और कलुष-उन्मुखता का आभास मिले, तो समझ लेना चाहिए कि आपकी आत्मा सोई हुई है और साथ ही यह भी मान लेना चाहिए कि यह एक बड़ा दुर्भाग्य है, एक प्रचंड हानि है। इतना ही क्यों, वरन् तुरंत उसे दूर करने के लिए तत्पर हो जाना चाहिए। यदि आप प्रमादवश जिस स्थिति में हैं और उसमें ही पड़े रहना चाहेंगे, तो निश्चय ही अपनी ऐसी क्षति करेंगे, जो युग-युग तक जन्म-जन्मांतरों तक पूरी नहीं हो सकती।
👉 आत्मोन्मेषों के उपायों में आपको अपनी तुच्छताओं, क्षुद्रताओं तथा वासनाओं को त्यागना होगा। दुराचरण, दुर्विचार और दुष्कल्पनाओं को छोड़कर उन्नत, उदात्त और आदर्श रीति-नीति को ग्रहण करना होगा। *अपने मनोविकारों और निषेधों को त्यागकर शिव और सुंदर की साधना में लगना होगा। निश्चय ही वह एक साधना है, तप है, किंतु ऐसा तप नहीं है, जो मनुष्य के लिए दुष्कर हो। इस तप की साधना के लिए पुनरपि आत्मा की ओर ही परिवृत होना होगा, क्योंकि आत्मा ही उन सब शक्तियों और साहसों का केंद्र है, उक्त साधना में जिसकी आवश्यकता है। *मनुष्य की आत्मा ही उसका सबसे सच्चा मित्र और पथ प्रदर्शक है। उसी की प्रेरणा से मनुष्य सन्मार्ग, पवित्र प्रवृत्तियों और दिव्य गुणों की ओर अग्रसर होता है। अपनी आत्मा में विश्वा⁴स करिए और उसे अपने में अधिष्ठित वह परमात्मा ही समझिए ।
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जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता – आत्मज्ञान *पृष्ठ *७७
*पं. श्रीराम शर्मा आचार्य *
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