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“जिसको देखो, वही अभिमान में घूम रहा है।” प्रायः सभी लोग अपने विषय में ऐसा मानते हैं, कि “मैं ही सबसे अधिक बुद्धिमान हूं। बाकी सब लोगों की बुद्धि मुझसे कम है।”
इस प्रकार से बुद्धि का अभिमान प्रायः सभी में देखा जाता है। “इसके अतिरिक्त किसी किसी व्यक्ति को धन का भी अभिमान होता है, किसी को विद्या का, किसी को भूमि संपत्ति आदि का। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार की विशेषता के कारण अभिमान में डूबा ही रहता है।”
कोई कोई व्यक्ति जो ईश्वर को ठीक प्रकार से समझता है, और यह स्वीकार करता है, कि “उसके पास जो भी धन बल विद्या बुद्धि शक्ति आदि पदार्थ हैं, वे सब ईश्वर के दिए हुए हैं। और ईश्वर ही उन सब का स्वामी है।” “वह व्यक्ति स्वयं को ईश्वर प्रदत्त संपत्तियों का मालिक नहीं मानता, बल्कि ईश्वर का सेवक और उन संपत्तियों का रक्षक मानता है।” “ऐसा कोई विरला व्यक्ति ही अभिमान आदि दोषों से बच पाता है। शेष सारी दुनियां तो अभिमान के नशे में ही चल रही है।”
“अपने अभिमान के नशे में लोग दूसरों के साथ अनेक प्रकार से दुर्व्यवहार करते हैं। दूसरों पर अन्याय करते हैं, झूठे आरोप लगाते हैं। उनका अधिकार और संपत्ति छीन लेते हैं। उनके साथ सभ्यता और सम्मान से बात नहीं करते।” बस अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं, कि “जब भी अवसर मिले, तुरंत दूसरे व्यक्ति को किसी भी प्रकार से लूट लो।” ऐसी विचारधारा अधिकतर लोगों में दिखाई देती है। क्योंकि वे समझते हैं, कि “हम स्वतंत्र हैं, हम जो मर्ज़ी करें। हमें कोई दंड देने वाला तो है नहीं। फिर हम उल्टे सीधे काम क्यों न करें?”
मैं इस विषय में आप सबसे यह निवेदन करना चाहता हूं, कि सब लोगों को ऐसा समझना चाहिए, कि एक तो — “सब संसार का मालिक ईश्वर है। आपके पास जो भी जिस भी प्रकार की भौतिक संपत्ति और विद्या बल बुद्धि आदि है, वह सब ईश्वर की है, आपकी नहीं है। क्योंकि जब आप संसार छोड़कर जाएंगे, तो अपने साथ कुछ भी भौतिक संपत्ति नहीं ले जाएंगे, सब कुछ यहीं छूट जाएगा। इसलिए किसी भी वस्तु या संपत्ति का अभिमान न करें।” “और जो विद्या आपके पास है, वह भी आपकी नहीं है। वह भी ईश्वर की व्यवस्था से आपको अपने माता-पिता एवं गुरुजनों आदि से प्राप्त हुई है। मूलतः आपका कुछ नहीं है।” “इसलिए किसी भी वस्तु का अभिमान न करें।”
दूसरी बात – “कुछ लोग कुछ कंजूस प्रवृत्ति के होते हैं। वे धन को खूब बचा कर रखते हैं। रखें, कोई बात नहीं। इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है।” परंतु इतना तो समझें, कि “दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने में कोई धन खर्च नहीं होता। इसलिए दूसरों के साथ कम से कम अच्छा व्यवहार तो करें! सम्मान पूर्वक यथायोग्य व्यवहार तो करें!” “धनवान बलवान विद्वान आदि आदि गुणवान् होने मात्र से आपको यह अधिकार तो नहीं मिल जाता, कि आप दूसरों पर अत्याचार करें, या उनके साथ पक्षपात पूर्ण व्यवहार करें, या उनका अपमान करें।” “यदि वे धनवान और दुरभिमानी लोग इतना भी समझ लें, और अपने जीवन में सबके साथ सम्मान पूर्वक यथायोग्य न्यायपूर्ण व्यवहार करने लगें, तो यह संसार स्वर्ग बन सकता है।”
आशा है, “आप सब लोग मेरे इस निवेदन पर अवश्य ही विचार करेंगे, और सबके साथ सम्मान पूर्वक यथायोग्य न्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे, तभी आपके जीवन में आनन्द होगा, अन्यथा नहीं।”
—- “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक – दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात.”

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