मानस रहस्य
भाग-121
शिवके इस रहस्यसे यह उपदेश मिलता है कि जब कोई धर्मसंकट आ पड़े तो सच्चे हृदयसे हरि-स्मरण करनेसे ही उसके निर्वाहकी राह निकल आवेगी।
अतएव जब केवल एक जन्मके लिये सतीका त्याग हो गया, तब सतीको अपनी करनीपर अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ और उन्होने भी उन्ही परमप्रभु श्रीरघुनाथजीकी हृदयसे प्रतिपत्ति ली और कहा कि ‘हे आरतिहरण । हे दीनदयाल !! मेरा यह शरीर शीघ्र छूट जावे, जिससे मैं दुःख-सागरको पार कर पुनः भगवान् शिवजीको प्राप्त कर सकूँ’ 一
कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी ॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा ॥
तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी ॥
तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ । होड़ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ ॥
भगवत्कृपासे योग लग गया और अपने पिता दक्षके यज्ञमे जाकर योगानलसे शरीरको त्यागकर सतीने हिमाचलके घर पार्वतीके रूपमें पुनर्जन्म धारण कर भगवान् शिवको पुनः पतिरूपमें प्राप्त कर लिया।
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥ अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। राम भगत समरथ भगवाना ॥
इस प्रकार भगवान् शिवने जो बिना अघके ही केवल सीताका वेष धारण करनेके अपराधपर सतीका त्याग कर दिया था, यह उनकी भक्तिकी पराकाष्ठा थी।
‘बिनु अघ तजी सती असि नारी।’ – इस पदमें ‘अघ’ शब्द आया है। अघ और अपराधमें महान् अन्तर है। अघ उस दुष्कर्मको कहते हैं, जो वेदादिद्वारा निषिद्ध होनेपर भी जान-बूझकर अपने वासनानुसार किये जाते हैं। अतः वे क्षम्य कभी नहीं हो सकते, उनका फल अवश्यमेव भोगना पड़ता
शेष अगले भाग में।
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