दीनानाथ//जो पुण्य के घमण्ड में भगवान के द्वार पर जाकर भी ऐंठे रहते हैं उनके लिए खुले द्वार भी बन्द हो जाते हैं। भगवान को दैन्य प्रिय है, अभिमान तो बिल्कुल भी नहीं। इसीलिए वे दीनानाथ कहलाते हैं।

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जो व्यक्ति पहले के किये पाप कर्म के लिए पश्चाताप करते हैं और स्वयं को पापी अनधिकारी तथा दीन हीन मानकर भगवान केचरणों में डरते हुए जाते हैं कि भगवान मुझे अपनायेंगे कि नहीं मुझे अपना मानेंगे कि नहीं यह भाव प्रधान व्यक्ति को भगवान स्वयंआकर ले जाते हैं,, स्वयं हाथ पकड़कर कल्याण के मार्ग पर ले आते हैं, परन्तु जो पुण्य के घमण्ड में भगवान के द्वार पर जाकर भी ऐंठे रहते हैंउनके लिए खुले द्वार भी बन्द हो जाते हैं। भगवान को दैन्य प्रिय है, अभिमान तो बिल्कुल भी नहीं। इसीलिए वे दीनानाथ कहलाते हैं।

स्वार्थ तो जीवात्मा में स्वभाव से है। स्वार्थ का मतलब होता है, “स्व अर्थ, अर्थात अपने लाभ के लिए कार्य करना।” “प्रत्येक जीवात्मा अपने लाभ के लिए कार्य करता है। यदि वह कोई कार्य दूसरों के लाभ के लिए करता भी है, तो भी उसमें उसको फल के रूप में कुछ न कुछ अपना लाभ मिलता ही है। इसलिए सूक्ष्म दृष्टि से देखें, तो जीवात्मा का स्वभाव ही है स्वार्थ।”
वह जब भी कोई कार्य करता है, तो पहले यह सोचता है कि “यदि मैं ऐसा कार्य करूं, तो इससे मुझे क्या लाभ होगा? यदि कोई लाभ होगा, तब तो मैं काम उस काम को करूं. यदि कोई भी लाभ नहीं होगा, तो मैं वह काम क्यों करूं? और यदि किसी काम को करने से मुझे कोई हानि होगी, तब भी मैं उस काम को नहीं करूंगा।”
कभी-कभी व्यक्ति हानिकारक कार्य को भी अविद्या के कारण लाभदायक मान लेता है। “जब वह अविद्या के कारण लाभदायक मान लेता है, तब भी वह उस हानिकारक कार्य को कर लेता है। करता लाभ सोच कर ही है।” वह ऐसा समझता है, कि “ऐसा करने से मुझे लाभ होगा। जैसे शराब पीने वाले मोटे तौर पर यह जानते हैं, कि शराब हानिकारक है। फिर भी उनको शराब पीने में सुख प्रतीत होता है। उसे सुखदायक मानकर ही वे शराब पीते हैं।” यह तो हुई अविद्या की बात।
अब यदि विद्या की बात करें, ठीक-ठीक समझने की बात करें, तो “यज्ञ करने से, दान देने से, दूसरे को अच्छी सलाह देने से, प्राणियों की रक्षा करने आदि उत्तम कार्यों को करने से व्यक्ति को लाभ होता है, सुख मिलता है। जो व्यक्ति ऐसा ठीक-ठीक समझता है, वह बुद्धिमान कहलाता है। वह व्यक्ति इन कार्यों को करता है।”
“अब जब आत्मा सारे काम करता ही अपने लाभ के लिए है, तो कोई भी कार्य निःस्वार्थ नहीं हुआ। यह सत्य है।” फिर भी संसार में इस शब्द का व्यवहार देखा जाता है, कि “यह व्यक्ति निस्वार्थ सेवा करता है.” तब उसका तात्पर्य होता है, कि “वह जब दूसरों की सेवा करता है, तो उसमें वह ईश्वर से मोक्ष आदि फल की इच्छा तो रखता है, परंतु सांसारिक लोगों से साक्षात कोई भौतिक धन सम्मान सुविधा आदि प्राप्त करने की उसकी इच्छा वहां नहीं होती। इसी को निःस्वार्थ सेवा के नाम से कहा जाता है।”
तो अब आपको अपने आसपास के लोगों में यह देखना है, कि “कौन आपको भौतिक धन सम्मान सुविधा आदि प्राप्त करने के स्वार्थ के उद्देश्य से कितना सहयोग देता है, और कौन निःस्वार्थ भाव से सहयोग देता है। जो निःस्वार्थ भाव से आपकी सेवा करता है। बस, उसी के साथ संबंध रखना अति उत्तम है। क्योंकि वह संबंध ही संसार में सबसे अधिक श्रेष्ठ और पवित्र है।”
“यद्यपि ऐसे लोग संसार में बहुत कम होते हैं, फिर भी कुछ न कुछ तो मिलते रहते हैं। और अधिकांश लोग जो आपकी सेवा करते हैं, वे अपने किसी न किसी भौतिक सुख सुविधा धन सम्मान प्रतिष्ठा प्रशंसा आदि के लाभ के कारण से करते हैं।” उनका जो आपके साथ संबंध है, वह भी इसी शर्त पर है, कि “यदि आप उन्हें इस प्रकार का भौतिक सुख सुविधा धन सम्मान आदि लाभ देंगे, तब तो वे आपकी सेवा करेंगे। जिस दिन आप उन्हें यह सुविधा देना बंद कर देंगे, वे भी आप से संबंध तोड़ देंगे।” “अर्थात उनका संबंध आपसे निःस्वार्थ नहीं है। वे सांसारिक स्वार्थ सिद्धि के उद्देश्य से आपसे संबंध रखते हैं। इसलिए उनका संबंध इतना पवित्र नहीं माना जाता।”
“ऐसे लोगों के साथ भी आप भले ही संबंध रखें, पर उनसे सावधान अवश्य रहें। क्योंकि कभी-कभी ऐसे लोग, लोभ आदि दोषों के कारण आपकी हानि भी कर सकते हैं।” “जैसी कि अनेक बार ऐसी घटनाएं सुनी जाती हैं, कि घर के नौकर या रिश्तेदार ही घर के मालिक की हानि कर देते हैं।”
“जो लोग निःस्वार्थ भाव से आपकी सेवा करते हैं, वे आपको हानि कभी नहीं पहुंचाएंगे। आपको किसी न किसी प्रकार का लाभ ही पहुंचाएंगे। ऐसे लोगों पर आप विश्वास कर सकते हैं। उनसे संबंध बनाए रखें। उनसे आपको सदा सुख ही मिलेगा।” “ऐसे लोगों को ईश्वर उनके अंदर से बहुत आनन्द देता है, जो संसार की निःस्वार्थ सेवा करते हैं।”
“और यदि ऐसे लोगों को देखकर आप भी उन जैसा बनने का प्रयत्न करें, तो आपके जीवन में भी बहुत आनन्द होगा। वह आनन्द आपको ईश्वर अंदर से अर्थात मन से ही देगा।”
—– “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।”

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