ज्ञान के बाद यदि अहंकार का जन्म होता है तो वह ज्ञान जहर के समान है किन्तु ज्ञान के बाद यदि नम्रता का जन्म होता है तो यही ज्ञान अमृत के समान होता है कठिनाईया जब आती हैं तो कष्ट देती हैं पर जब जाती हैं तो आत्मबल का ऐसा उत्तम उपहार दे जाती हैं जो उन कष्टों की तुलना में हज़ार गुना मूल्यवान होती हैं एक मजबूत मन एक कमजोर शरीर को चला सकता हैं लेकिन एक कमजोर मन एक मजबूत शरीर को नहीं चला सकता आत्मबल शारीरिक बल से अधिक महत्वपूर्ण हैं जीवन में हर मुसीबत अपने पीछे सफलता लेकर आती है और कहती है कि मुझसे लड़ो संघर्ष करो और मुझे पराजित करके अपनी सफलता को प्राप्त करो धन के साथ साथ दुआएं भी कमाइए क्योंकि जहां धन काम नहीं आता वहां दुआएं काम आती है..!
जब देखिओ बेड़ा जरजरा तब उतरि परिओ हउ फरकि ॥६७॥
जब मैंने देखा कि शरीर रूपी बेड़ा पुराना हो गया तो इसमें से तुरंत ही उतर गया ॥ ६७ ॥
कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न सुहाइ ॥
कबीर जी कहते हैं- पापी पुरुष को भक्ति अच्छी नहीं लगती और न ही परमात्मा की पूजा-अर्चना से लगाव होता है।
माखी चंदनु परहरै जह बिगंध तह जाइ ॥६८॥
ज्यों मक्खी चंदन को छोड़कर जहाँ दुर्गन्ध होती है, वहीं जाती है (वैसे ही पापी पुरुष भक्ति-पूजा को छोड़कर पाप कर्मों की ओर जाता है) ॥ ६८ ॥
?कबीर बैदु मूआ रोगी मूआ मूआ सभु संसारु ॥*
हे कबीर ! बेशक कोई वैद्य है, चाहे कोई रोगी है, पूरा संसार मर रहा है। (अर्थात् ज्ञानी-अज्ञानी, विद्वान या मूर्ख सब मोह-माया की मौत से मर रहे हैं)
एकु कबीरा ना मूआ जिह नाही रोवनहारु ॥६९॥
परन्तु एकमात्र कबीर नहीं मरा, जिसे कोई रोने वाला नहीं ॥ ६६ ॥
कबीर रामु न धिआइओ मोटी लागी खोरि ॥
कबीर जी उद्बोधन करते हैं, हे लोगो ! आपको परमात्मा का न भजन करने की बड़ी बीमारी लग गई है।
काइआ हांडी काठ की ना ओह चर्है बहोरि ॥७०॥
शरीर रूपी लकड़ी की हांडी दोबारा आग पर नहीं चढ़ती अर्थात् मानव जन्म पुनः प्राप्त नहीं होता॥ ७० ॥
कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीनु ॥
हे कबीर ! ऐसी बात हो गई कि सब अपने मन की इच्छानुसार किया तो फिर
मरने ते किआ डरपना जब हाथि सिधउरा लीन ॥७१॥
अब मौत से क्यों डरना, जब सती होने वाली सिंदूर लगा नारियल हाथ में पकड़ लेती है तो पति के वियोग में जलने को तैयार हो जाती है।॥ ७१ ॥
कबीर रस को गांडो चूसीऐ गुन कउ मरीऐ रोइ ॥
हे कबीर ! ज्यों रस के लिए गन्ने को चूसना पड़ता है तो फिर गुणों को पाने के लिए कितने ही दुख-कष्टों का सामना करना पड़े, हिम्मत करनी चाहिए।
अवगुनीआरे मानसै भलो न कहिहै कोइ ॥७२॥
क्योंकि अवगुणी मनुष्य को कोई भला नहीं कहता ॥ ७२ ॥
कबीर गागरि जल भरी आजु काल्हि जैहै फूटि ॥
कबीर जी उद्योधन करते हैं- यह देह रूपी गागर श्वास रूपी जल से भरी हुई है, जिसने आज अथवा कल फूट जाना है।
गुरु जु न चेतहि आपनो अध माझि लीजहिगे लूटि ॥७३॥
यदि अपने गुरु-परमेश्वर का स्मरण न किया तो रास्ते में ही लूट लिए जाओगे ॥ ७३ ॥
(कबीर कूकरु राम को मुतीआ मेरो नाउ ॥*
कबीर जी कहते हैं- मैं राम का कुत्ता हूँ और मेरा नाम ‘मोती’ है।
गले हमारे जेवरी जह खिंचै तह जाउ ॥७४॥
मेरे गले में मालिक ने जंजीर डाली हुई है, वह जिधर खींचता है, उधर ही जाता हूँ॥ ७४ ॥
कबीर जपनी काठ की किआ दिखलावहि लोइ ॥
कबीर जी कहते हैं कि हे भाई ! तुलसी-रुद्राक्ष की माला लोगों को क्या दिखाते हो,
हिरदै रामु न चेतही इह जपनी किआ होइ ॥७५॥
यदि दिल में परमात्मा का चिंतन नहीं किया तो इस माला का कोई फायदा नहीं ॥ ७५ ॥
कबीर बिरहु भुयंगमु मनि बसै मंतु न मानै कोइ ॥
हे कबीर ! वियोग रूपी सांप जब मन को डंस लेता है तो उस पर किसी मंत्र का असर नहीं होता।
राम बिओगी ना जीऐ जीऐ त बउरा होइ ॥७६॥
ईश्वर-वियोग का दुख व्यक्ति को जिंदा नहीं रहने देता, परन्तु यदि वह जिंदा रहे तो बावला हो जाता है॥ ७६ ॥
कबीर पारस चंदनै तिन्ह है एक सुगंध ॥
कबीर जी बतलाते हैं- पारस एवं चन्दन में एक समान गुण हैं।
तिह मिलि तेऊ ऊतम भए लोह काठ निरगंध ॥७७॥
पारस को मिलकर लोहा स्वर्ण हो जाता है और चन्दन को मिलकर मामूली लकड़ी खुशबूदार हो जाती है।॥ ७७ ॥
कबीर जम का ठेंगा बुरा है ओहु नही सहिआ जाइ ॥
हे कबीर ! यम की चोट बहुत बुरी है, इसे सहन नहीं किया जाता।
एकु जु साधू मोहि मिलिओ तिन्हि लीआ अंचलि लाइ ॥७८॥
मुझे एक साधु मिल गया है, उसने शरण में लेकर बचा लिया है॥ ७८ ॥
कबीर बैदु कहै हउ ही भला दारू मेरै वसि ॥
कबीर जी कथन करते हैं कि वैद्य लोगों को कहता है कि मैं ही उत्तम हूँ, मेरे पास हर रोग का इलाज है।
इह तउ बसतु गुपाल की जब भावै लेइ खसि ॥७९॥
परन्तु वह इस बात से अनजान है कि कोई (वैद्य) भी मौत के मुँह से बचा नहीं सकता, क्योंकि यह जीवन तो ईश्वर की देन है, जब चाहता है, छीन लेता है॥ ७६ ॥
कबीर नउबति आपनी दिन दस लेहु बजाइ ॥
कबीर जी कहते हैं कि हे मनुष्य ! अपनी शान-शौकत का डंका दस दिन बजा लो,
नदी नाव संजोग जिउ बहुरि न मिलहै आइ ॥८०॥
ज्यों नदिया पार करने के लिए नाव में बैठे मुसाफिरों का मेल होता है और पार उतर कर दोबारा परस्पर नहीं मिलते, वैसे ही यह जीवन दोबारा नहीं मिलता ॥ ८० ॥
कबीर सात समुंदहि मसु करउ कलम करउ बनराइ ॥
हे कबीर ! बेशक सात समुद्रों की स्याही को घोल लिया जाए, पूरी वनस्पति की कलमें बना ली जाएँ,
बसुधा कागदु जउ करउ हरि जसु लिखनु न जाइ ॥८१॥
पूरी पृथ्वी को ही कागज क्यों न बना लिया जाए, इसके बावजूद भी परमात्मा का यश लिखना संभव नहीं ॥ ८१॥
कबीर जाति जुलाहा किआ करै हिरदै बसे गुपाल ॥
कबीर जी कहते हैं- जब मेरे दिल में ईश्वर ही बस चुका है तो फिर भला जुलाहा जाति से क्या फर्क पड़ सकता है।
कबीर रमईआ कंठि मिलु चूकहि सरब जंजाल ॥८२॥
हे कबीर ! राम मुझे मिल गया है, जिससे संसार के सब जंजाल दूर हो गए हैं॥ ८२ ॥
कबीर ऐसा को नही मंदरु देइ जराइ ॥
कबीर जी कथन करते हैं- ऐसा कोई नहीं है, जो मोह रूपी घर को जला दे और
पांचउ लरिके मारि कै रहै राम लिउ लाइ ॥८३॥
पाँच कामादिक लड़कों को खत्म करके राम के ध्यान में लीन रहे॥ ८३ ॥
कबीर ऐसा को नही इहु तनु देवै फूकि ॥
कबीर जी कथन करते हैं कि ऐसा कोई शख्स नहीं, जो इस शरीर की वासनाओं को जला दे।
अंधा लोगु न जानई रहिओ कबीरा कूकि ॥८४॥
कबीर चिल्ला-चिल्लाकर समझा रहा है परन्तु अन्धे अज्ञानी लोग इस बात को नहीं जानते ॥ ८४ ॥
कबीर सती पुकारै चिह चड़ी सुनु हो बीर मसान ॥
कबीर जी कहते हैं कि सती अपने मृतक पति की चिता पर कहती है, हे श्मशान ! मेरी बात सुनो,
लोगु सबाइआ चलि गइओ हम तुम कामु निदान ॥८५॥
सब लोग इस संसार को छोड़कर चले गए हैं, अब हम तुम्हारा काम भी यही अंतकाल होना है ॥८५॥
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