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*#श्रीरामचरितमानस*
*प्रथम सोपान *बाल-काण्ड*
*मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं ।*
*करि बैदिक लौकिक सब रीतीं ॥१॥*
*मिलत महा दोउ राज बिराजे ।*
*उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥२॥*
*लही न कतहुँ हारि हियँ मानी ।*
*इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥३॥*
*सामध देखि देव अनुरागे ।*
*सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥४॥*
अर्थ – वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े ही शोभित हुए, कवि उनके लिये उपमा खोज-खोजकर लजा गये। जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर सम्बन्ध देखकर देवता अनुरक्त हो गये और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे।
👉 _*’मिले जनकु दसरथु’*_ – पहले कन्या के पिता को आगे आकर मिलना रीति है, इसीलिये मिलने में श्रीजनकजी का नाम पहले लिखा।
👉 _*’अति प्रीती’*_ से मिलने का भाव यह है कि केवल सामध की ही रीति नहीं की किंतु अत्यन्त प्रीति से मिले अर्थात् कुछ वेद-विहित नेग ही भर नहीं बरता या भेंट की सामग्रीमात्र धरकर, चन्दन-अतर लगाकर कन्धे-से-कन्धा छुआकर ही नहीं मिले किंतु हृदय की *’अति प्रीती’* से मिले। ‘अति प्रीती’ के सम्बन्ध से ही *’बिराजे’* पद दिया।
👉 _*’करि वैदिक लौकिक सब रीती’*_ – तीन प्रकार की रीति – कुलरीति, लोकरीति और वेदरीति जहाँ जो चाहिये वहाँ वैसी करते हैं और वैसा ही गोस्वामीजी लिखते हैं, यथा – *’गुरुहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा ॥’* (३१३/८) (यहाँ केवल कुलरीति की जाती है। अतः ‘कुल बिधि’ ही लिखा); *’बेद बिहित अरु कुल आचारू । कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥’* (३१९/२) (यहाँ वेदरीति और कुलरीति दोनों की जाती हैं। यह द्वारचार का समय है); *’करि बैदिक लौकिक सब रीती’* (यहाँ कुलरीति नहीं है। वैदिक रीति जो लोक में प्रचलित है, वही की जाती है); *’अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मंगल गाइ कै ।’* (१/३२७) (यह कोहबर का समय है, यहाँ केवल लोकरीति होती है, इससे यहाँ केवल ‘लौकिक रीति’ कहा) इत्यादि।
👉 _*’मिलत महा दोउ राज….’*_ – दोनों को *’महाराज’* कहकर दोनों को समान बताया। समान हैं, इसीलिये दोनों विशेष शोभित हुए, न्यूनाधिक होते तो विशेष शोभा नहीं होती।
👉 _*’उपमा खोजि…’*_ – उपमा खोजने वाले कवि बहुत हैं, इसीलिये ‘खोजि खोजि’ कहा।
👉 _*’लाजे’*_ – कवि लोग जब उपमा नहीं पाते तब लज्जित होते हैं। अपना काम नहीं निकला, बहुत खोजने पर भी सफल नहीं हुए, अतः लज्जित हुए। पर कवि हैं, कुछ कहा अवश्य ही चाहें, अत: कहा कि *’इन्ह सम एइ’* उपमा हैं।
👉 _*’लही न कतहुँ हारि हिय मानी’*_ से दर्शाया है कि कवियों ने बड़ा परिश्रम किया, फिर भी उपमा नहीं पायी, हार मान गये। हार मानने पर भी कवियों ने अपना (कवि का) काम किया ही, वह यह कि *’इन्ह सम एइ’* यह उपमा दी। उपमा नहीं मिलती रही, सो खोज लाये।
👉 _*’सामध देखि…’*_ – ‘मिले जनकु दसरथु अति प्रीती’ यह दोनों समधियों का मिलना ही *’सामध’* है। सामध देखकर अनुरक्त होने का कारण यह कि देवताओं ने इसके पहले कभी ऐसे ‘सम समधी’ नहीं देखे थे। आज एक नयी बात देखने से मन में अनुराग हुआ, तन से फूल बरसाने लगे और वचन से यश गाने लगे, यह सब अनुराग के लक्षण हैं। क्या यश गाते हैं यह अगली दो चौपाइयों में लिखते हैं – *’जग बिरंचि….।’*
*जगु बिरंचि उपजावा जब तें ।*
*देखे सुने ब्याह बहु तब तें ॥५॥*
*सकल भाँति सम साजु समाजू ।*
*सम समधी देखे हम आजू ॥६॥*
*देव गिरा सुनि सुंदर साँची ।*
*प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥७॥*
*देत पाँवड़े अरघु सुहाए ।*
*सादर जनकु मंडपहिं ल्याए ॥८॥*
अर्थ – (वे कहने लगे-) जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे। देवताओं की सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गयी। सुंदर पाँवड़े और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मंडप में ले आये।
👉 _*’बिरंचि’*_ — आदि-ब्रह्मा का नाम बिरंचि है। *’जगु बिरंचि उपजावा…’* अर्थात् आदि (सृष्टि के) ब्रह्मा से लेकर आज तक। *’देखे सुने’* अर्थात् बहुत-से देखे हैं और जिन्होंने नहीं देखे उन्होंने सुने हैं। जगत्‌ के उत्पन्न होने के साथ ही देवता भी अधिकार सहित तभी उत्पन्न हुए। विवाहादि में देवताओं का आवाहन होता है, वे बुलाये जाते हैं। जिनका आवाहन होता है वे आते हैं और देखते ही हैं। उनके लिये *’देखे’* कहा और जिनका आवाहन नहीं होता, अथवा जो किसी कारण से नहीं गये, उनका सुनना कहा।
👉 *साज* =ऐश्वर्य। *समाज* अर्थात् निमिवंशी और रघुवंशी दोनों समाज। *’सम समधी’* अर्थात् ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, वैभव आदि में दोनों समान हैं। यहाँ ब्रह्म का अवतार तो वहाँ परम शक्ति का अवतार (श्रीरामजी तथा श्रीसीताजी दोनों अभिन्न हैं, तत्त्वतः एक हैं, यथा – *’गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न’*)।
👉 _*’देव गिरा सुनि सुंदर साँची।’*_ – *’सुन्दर’* अर्थात् श्रवण-सुखदायी, श्रवण-रोचक । सुनकर सभी को प्रिय लगी अतः *’सुंदर’* कहा। *’साँची’* कहने का भाव यह है कि बहुत बढ़ाकर बड़ाई करने से मन में असत्य का प्रवेश होता है। (अर्थात् असत्यता की प्रतीति होती है, यही जान पड़ता है कि बड़ाई करते हैं।) इसीलिये कहते हैं कि *’देव गिरा’* है (देववाणी असत्य नहीं होती। सदा सत्य होती है। क्योंकि यदि देवता असत्य बोलें तो देवलोक से उनका पतन हो जाय, उनका देवत्व जाता रहे।) देवगिरा है, अतः उसे सत्य माना। *’सुंदर साँची’* दोनों कहने का भाव यह है कि वाणी के दो गुण हैं – प्रिय और सत्य। वाणी की प्रशंसा यह है कि वह सत्य और प्रिय हो, देववाणी में ये दोनों गुण यहाँ कहे, सुन्दर अर्थात् प्रिय है और सत्य है।
👉 _*’प्रीति अलौकिक दुहुँ दिसि माँची’*_ – इससे सूचित हुआ कि देवताओं ने दोनों राजाओं को ‘अलौकिक’ कहा, इसीलिये दोनों ओर के राजसमाजों में अलौकिक प्रीति हुई।
👉 _*’देत पाँवड़े अरघ…’*_ – इस कथन से स्पष्ट कर दिया कि श्रीरामजी को पाँवड़े और अर्ध्य पृथक् दिये गये और राजा को पृथक्। श्रीरामजी की आरती, अर्घ्य और पाँवड़े स्त्रियों द्वारा हुए, यथा – *’पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना ।’ ‘करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा । राम गमनु मंडप तब कीन्हा ॥’* (३१९/४) और, दशरथजी महाराज को श्रीजनकजी महाराज पाँवड़े, अर्घ्य स्वयं देते हुए लाये। यह *’देत’* शब्द से सूचित किया। जहाँ सेवकों द्वारा पाँवड़े बिछाये जाते हैं वहाँ ‘परत’ या ‘परहीं ‘लिखते हैं। यथा – *’बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं ।’* (३०६/५) श्रीरामजी को रानी आदि स्त्रियाँ ले आयीं, वहाँ *’परहिं’* कहा, यथा – *’पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना’*
👉 _*’सादर जनकु मंडपहिं ल्याए’*_ – भाव यह है कि श्रीरामजी को रानी श्रीसुनयनाजी मण्डप में लायीं और महाराज को जनकजी लाये।
(हरिगीतिका)
।। छन्द ।।
*मंडपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ,*
*रुचिरताँ मुनि मन हरे ।*
*निज पानि जनक सुजान सब कहुँ,*
*आनि सिंघासन धरे ॥*
*कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे,*
*बिनय करि आसिष लही ।*
*कौसिकहि पूजन परम प्रीति की,*
*रीति तौ न परै कही ॥*
अर्थ – मंडप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुंदरता से मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित हो गए)। सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती।
👉 _*’मंडपु बिलोकि बिचित्र रचना…’*_ – राजा जब मण्डप में लाये गये तब उनके साथ मुनि समाज भी मण्डप में आया। राजा के साथ अनेक मुनि हैं, यथा – *’साधु समाज संग महिदेवा । जनु तनु धरे करहिं सुख सेवा ॥’* (३१५/५); उन्हीं मुनियों का मन हरण करना कहा। मुनियों के मन को मोहित करना कहने से मण्डप की बड़ाई हुई। मुनियों के मन विषय-रस से रूखे होते हैं। वे अपना मन बाह्य पदार्थों से हटाये हुए सदा #परमात्मचिन्तन में लगाये रखते हैं। जब इन्हीं के मन को बाहर की सुन्दरता ने लुभा लिया, तब औरों की बात ही क्या? इसीलिये केवल *’मुनिमन हरे’* कहा। यहाँ राजा के मन का हरना नहीं लिखते, क्योंकि राजा का ऐश्वर्य कम नहीं है। यदि ‘नृप मन हरे’ लिखते तो राजा के ऐश्वर्य में न्यूनता पायी जाती, उससे समझा जाता कि राजा ने ऐसा ऐश्वर्य कभी देखा ही नहीं, तभी तो देखकर ठगे-से रह गये।
👉 _*’निज पानि जनक सुजान…’*_ – *’सुजान’* का भाव यह है कि वे जानते हैं कि महात्माओं की सेवा अपने हाथ से करनी चाहिये, फिर ये तो बाराती हैं और समस्त बारातियों के पूज्य भी हैं तब इनका अत्यन्त सम्मान योग्य ही है, इसीलिये उन्होंने अपने हाथ से सिंघासन रखे हैं। पंजाबीजी लिखते हैं कि *’सुजान’* का भाव यह है कि यद्यपि वे योगेश्वर हैं तथापि व्यवहार में चूकनेवाले नहीं; उसमें भी बड़े निपुण हैं। समझते हैं कि हमारा (अर्थात् कन्यावाले का) पक्ष न्यून है, हमें योग्य है कि वर-पक्ष के लोगों का आदर-सत्कार स्वयं करें।
कुछ विद्वानों का मत है कि ‘सिंहासन पहले से ही यथायोग्य इस प्रकार सजा रखे हैं कि सबके आने पर कठिनता न पड़े और न विलम्ब हो, इससे भी *’सुजान’* कहा। *’धरे’* भूतकालिक क्रिया देकर सूचित किया है कि पहले से ही मण्डप तले सभी के लिये सिंहासन लगा रखे थे। यदि उसी समय रखना अभिप्रेत होता तो ‘धरै’ वर्तमानकालिक क्रिया देते, उसी समय सभी को सिंहासन ला-लाकर देते तो सब लोग खड़े रहते, जो अयोग्य है। दूसरे समय बहुत लग जाता, लग्न को देर हो जाती, वह थोड़ी ही देर की है, बीती जा रही है, इसी में बीत जाती। जनकजी के लिये ‘धरे’ में यह भाव आ सकता है कि ‘लीजिये भगवन्! इस आसन पर विराजिये। उनके सामने सिंहासन को पकड़कर बैठने को कहना बड़े आदमियों के लिये ‘धरे’ के ही समान है।’
👉 _*’कुल इष्ट सरिस बसिष्टु पूजे…’*_ – निमिवंशियों के कुल के इष्ट भगवान् हैं। भगवान्‌ के समान श्रीवसिष्ठजी की पूजा की। पूजा के अन्त में स्तुति होती है, वैसे ही यहाँ पूजा करके विनती की। वसिष्ठजी राजा निमि के भी पुरोहित थे। वसिष्ठजी की अनुपस्थिति में एक बार उन्होंने महर्षि गौतम से यज्ञ कराया था, जिस पर वसिष्ठजी ने राजा को शाप दिया, राजा ने भी वसिष्ठजी को शाप दिया। [यह कथा पृथक् से ८३५(अ) में संलग्न है।] उस समय से वसिष्ठजी निमिकुल के पुरोहित नहीं रहे। गौतमजी और उनके पश्चात् शतानन्दजी इस कुल के पुरोहित हुए। मयंककार का मत है कि उस शापाशापी आदि के कारण जनकमहाराज ने अत्यन्त विनती की, जिससे वसिष्ठजी प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिया।
👉 _*’कौसिकहिं पूजत परम प्रीति’*_ – *’परम प्रीति’* का भाव यह है कि अन्य सभी ऋषियों की भी पूजा प्रेम के साथ की पर इनकी पूजा *’परम प्रीति’* से की; क्योंकि इनके द्वारा श्रीरामजी की प्राप्ति हुई, सब सुख और सुयश मिला। इस विवाह के, इस सम्बन्ध के मुख्य कारण भी ये ही हैं, जैसा कि आगे कहा भी है – *’जो सुख सुजसु लोकपति चहहीं । करत मनोरथ सकुचत अहहीं ॥ सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी । सब बिधि तव दरसन अनुगामी ॥’* (३४३/४-५)
।। दोहा ।।
*बामदेव आदिक रिषय, पूजे मुदित महीस ।*
*दिए दिब्य आसन सबहि, सब सन लही असीस ॥३२०॥*
अर्थ – राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया।
👉 _*’बामदेव आदिक रिषय…’*_ – श्रीवसिष्ठजी और श्रीविश्वामित्रजी का पृथक् पृथक् षोडशोपचार पूजन किया क्योंकि ये दोनों श्रीरामजी के गुरु हैं। वसिष्ठजी तो रघुकुलमात्र के गुरु हैं, राजा के भी गुरु हैं। अतएव उनका पूजन प्रथम किया। पूजन का भी भेद स्पष्ट है। वसिष्ठजी का पूजन ‘इष्टदेव के भाव से’, विश्वामित्रजी का ‘परम प्रीति से’ और वामदेव सहित अन्य ऋषियों का मुदित होकर पूजन किया। यथायोग्य जिसका जैसा चाहिये वैसा क्रमशः किया। दोनों की पूजा अलग-अलग करके तब और जितने ऋषि थे, समष्टि का पूजन किया, सबकी एक साथ पूजा की और सबको एक साथ आसन दिये, जिससे कि महात्माओं को देर तक खड़े नहीं रहना पड़े और लग्न भी न बीतने पाये।
👉 _*’दिए दिब्य आसन सबहि सब सन रही असीस’*_ – वसिष्ठजी और विश्वामित्रजी की आशिषे अलग-अलग हैं और वामदेवादि की इनसे पृथक् हैं। पूजा भी तीनों की पृथक् पृथक् हुई, पर आसन सभी को एक साथ दिये गये। इससे पाया गया कि सभी का पूजन खड़े हुए ही किया गया, तब सभी को आसन बता दिये जो क्रम से यथायोग्य लगे हुए थे। सब क्रम से बैठ गये। (अथवा, दोनों गुरुओं को ले जाकर प्रधान आसन पर बिठाया, अन्य सभी को कह दिया कि ये सब आसन आपलोगों के लिये हैं, इन पर विराजमान हो जाइये। यही आसन देना है।)
[यहाँ तक ऋषियों का पूजन हुआ, आगे इसी प्रकार राजा एवं अन्य बारातियों की पूजा लिखते हैं।]

*श्रीराम – जय राम – जय जय राम*

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