गिरते-ढहते पुल और हवाई अड्डे – विकास का मुँह चिढ़ाती तस्वीर
भारत “विकास” कर रहा है, “विश्वगुरु” बन रहा है, लेकिन सिर्फ़ मुख्यधारा के मीडिया चैनलों पर, विज्ञापनों या मंत्रियों/नेताओं के भाषणों में! हक़ीक़त इससे बिल्कुल उलट है। आम लोग तो अपनी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं। लोगों को साफ़ पानी के लिए भी तरसना पड़ रहा है। ग़रीबों के बच्चे भुखमरी से मर रहे हैं, क्योंकि यह व्यवस्था सिर्फ़ कुछ घरानों की सेवा के लिए है। इन घरानों के ऐश-ओ-आराम के लिए आम लोगों की ज़िंदगियों की बलि चढ़ा दी जाती है। सभी सुविधाएँ इन्हीं धनी और मंत्रियों के लिए हैं। आम लोगों की सुविधाओं की ओर किसी का कोई ध्यान नहीं। हादसों में हज़ारों लोगों की ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है, क्योंकि सरकार हादसों के कारणों के प्रति लापरवाही दिखाती है।
पिछले 15 दिनों में ही बिहार में 10 पुल गिर चुके हैं। 27 जून को जबलपुर हवाई अड्डे के बाहर छत गिर गई। 28 जून को दिल्ली हवाई अड्डे के स्टेशन नंबर एक की छत गिरने के कारण एक टैक्सी ड्राइवर की मौत हो गई और 6 व्यक्ति घायल हो गए। 29 जून को गुजरात के शहर राजकोट के हवाई अड्डे के बाहर भी छत गिर गई। मुंबई में बारिश के कारण सड़क पर लगी होर्डिंग गिर गई, जिससे 16 लोगों की मौत हो गई। हैरानी की बात है कि इतनी बड़ी होर्डिंग नगर निगम की मंजूरी के बिना लगाई गई थी। जिस कंपनी ने यह होर्डिंग लगाई थी, उसने यह भी प्रचारित किया कि यह भारत में लगी सबसे बड़ी होर्डिंग है। बाद में नगर निगम ने कहा कि यह होर्डिंग सामान्य आकार से 4 गुना बड़ी थी। 16 लोगों की मौत के बाद नगर निगम की आँख खुली और उसे यह बयान देना पड़ा। लेकिन अब तक दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
इन सभी हादसों का कारण ज़्यादा बारिश बताया जा रहा है, जो सरासर झूठ है। ऐसे हादसे पहले भी होते आए हैं, क्योंकि इन इमारतों, पुलों आदि को बनाते समय गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जाता। इमारतें बनाते समय इमारत की गुणवत्ता से ज़्यादा ठेकेदारों और कंपनियों के मुनाफ़ों का ध्यान रखा जाता है, ताकि कम से कम ख़र्च में निर्माण किया जा सके। पिछले 50 सालों में भारत में लगभग 2500 पुल गिरे हैं और 2012 से 2021 के 9 सालों में ही भारत में 212 पुल गिरे हैं। पिछले साल ही गुजरात में मोरबी पुल गिरने से करीब 140 लोगों की जान चली गई थी। मोरबी पुल 100 साल पुराना था और पुल को मरम्मत की सख़्त ज़रूरत थी। सरकार ने पुल की मरम्मत का काम ओरेवा कंपनी को दिया था, जिसके पास पुल बनाने या मरम्मत करने का कोई अनुभव नहीं था। इस कंपनी का मुख्य काम तो घड़ियाँ और बिजली का सामान बनाना था। यह कंपनी कम रेट पर मरम्मत करने के लिए तैयार थी, तो सरकार ने यह काम कंपनी को दे दिया। इतने लोगों की जान जाने के बाद भी दोषी कंपनी मालिक, अधिकारियों आदि पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
असल में तो सड़कें, हवाई अड्डे, पुल आदि सारा ढाँचा भी पूँजीपतियों की ज़रूरतों के लिए ही बनाया जाता है, ना कि आम लोगों की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर। बची-खुची कसर ठेकेदार घटिया सामग्री लगाकर निकाल लेते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि कल को अगर बनाई गई इमारत, पुल आदि गिर भी गया तो सरकार की तरफ़ से कोई कार्रवाई नहीं होनी है और अगर मामला बढ़ने पर कार्रवाई हो भी गई तो पैसे देकर मामला रफ़ा-दफ़ा हो जाना है। इसलिए कुछ सालों में ही इन पुलों, सड़कों आदि का भट्ठा बैठ जाता है और ये आम लोगों की जान का ख़तरा बने हुए हैं। हर साल सड़कों पर पड़े गड्ढों के कारण ही हज़ारों लोगों को जान गँवानी पड़ती है। हर बार घटना के दोषियों को सज़ा देने की बजाय घटनाओं पर ही पर्दा डाल दिया जाता है और मंत्रियों, अफ़सरशाही, ठेकेदारों आदि का गठजोड़ बच निकलता है। इस जनविरोधी व्यवस्था में आम इंसान की जान की तो कोई क़ीमत नहीं, पर अगर किसी अमीर हस्ती को छींक भी आ जाए, तो उसकी ख़बर सारा दिन अख़बारों, ख़बर चैनलों की सुर्खी बनी रहती है। आज जागरूक जमीर वाले सभी लोगों को ऐसी जनविरोधी व्यवस्था को बदलने के लिए आगे आना चाहिए।