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यदि आप स्वयं प्रसन्न हैं, तो जिंदगी उत्तम है, यदि आपकी वजह से लोग प्रसन्न हैं तो जिंदगी सर्वोत्तम है

      


जहाँ भी ईश्वर की चर्चा चल रही हो, वहाँ बिना सोचे समझे बैठ जाएँ, क्या पता कोन सी संगत आपकी नैया पार लगा दे।

चाहे कितने भी “भारी-भरकम” शब्दों से

सजाकर “सुविचारों” का “आदान-प्रदान” कर दिया जाए,

यदि “आंखों” में “स्नेह होठों” पर “मुस्कान”

“ह्रदय” में “सरलता” और “व्यवहार” में करुणा एंवम “अपनापन” नहीं है, तो सब कुछ “व्यर्थ” है.!


उन व्यक्तियों के जीवन में,
आनंद और शांति कई गुणा बढ़ जाती हैं
जिन्होने प्रशंसा और निंदा में
एक जैसा रहना सीख लिया हो

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